अनुच्छेद 356 क्या है
डॉ. अंबेडकर द्वारा संविधान सभा में अनुच्छेद-356 को संविधान के एक मृत/अनाम पत्र (Dead Lettter) की संज्ञा देने और भविष्य में कभी इसका प्रयोग न किये जाने के अनुमान के विपरीत संविधान के लागू होने के बाद से अब तक 125 से अधिक मौकों पर इसका प्रयोग/दुरुपयोग किया जा चुका है।
लगभग सभी मामलों में इसका प्रयोग राज्यों में
संवैधानिक मशीनरी की विफलता के बजाय राजनीतिक हितों के लिये किया गया था।
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अनुच्छेद-356 का प्रयोग 27 बार किया और अधिकांश मामलों में इसका
प्रयोग राजनीतिक स्थिरता,
स्पष्ट जनादेश
की अनुपस्थिति या समर्थन की वापसी आदि के आधार पर बहुमत वाली सरकारों को हटाने के
लिये किया गया था।
वर्ष 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद उसने भी प्रतिशोध के रूप में 9 काॅन्ग्रेस शासित राज्यों की सरकारों
को भंग कर दिया।
वर्ष 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में पुनः वापसी के बाद उन्होंने एक ही
बार में विपक्षी दल द्वारा शासित नौ राज्यों की सरकारों को भंग कर दिया।
इसके बाद भी चुनी गई सरकारों ने इस अनुच्छेद का
दुरुपयोग इसी प्रकार जारी रखा।
अनुच्छेद-356 और सुरक्षा उपाय:
वर्ष 1994 के एस. आर. बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये फैसले
ने वर्षों से चली आ रही उस परंपरा को समाप्त कर दिया जिसके तहत यह मान लिया गया था
कि अनुच्छेद-356 का उपयोग वास्तव में न्यायिक समीक्षा
के दायरे से बाहर था। गौरतलब है कि इस सिद्धांत को सर्वोच्च न्यायालय में वर्ष 1977 के राजस्थान सरकार बनाम भारतीय
गणराज्य मामले में स्थापित किया गया था।
एस.आर. बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय के
फैसले ने राज्य सरकारों को भंग करने की शर्तों और इसकी प्रक्रिया को भी निर्धारित
किया।
एस.आर. बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय की
नौ सदस्यीय पीठ ने कड़ी शर्तों के साथ अनुच्छेद-356, जो कि राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुमति देता है, के दायरे को निर्धारित किया।
इसके तहत यह पता लगाना कि क्या राज्य में ऐसी
वस्तुगत स्थितियाँ मौजूद हैं जो राज्य में शासन की प्रक्रिया को असंभव बनाती हैं
और इस प्रक्रिया को न्यायिक समीक्षा के लिये भेजे जाने से पहले संसद के दोनों
सदनों द्वारा अनुमोदित करने की अनिवार्यता शामिल है।
न्यायपालिका का उत्तरदायित्व: न्यायपालिका को
स्वयं ही यह समझना चाहिये कि न्यायिक सक्रियता एक दुर्लभ अपवाद के रूप में अच्छी
हो सकती है, परंतु एक अतिसक्रिय कार्यकर्त्ता के
रूप में न्यायपालिका न तो देश के लिये अच्छी है और न ही न्यायपालिका के लिये।
राज्यपाल की भूमिका: एक लोकतांत्रिक सरकार के
कामकाज को सुचारु रूप से चलाने और संघवाद की भावना को मज़बूत करने के लिये किसी
राज्य के राज्यपाल द्वारा अपने विवेक तथा व्यक्तिगत निर्णय का प्रयोग करते समय
न्यायसंगत, निष्पक्ष एवं कुशलता से कार्य किया
जाना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
इस संदर्भ में सरकारिया आयोग और पुंछी आयोग की
सिफारिशों का पूरी तरह से अनुसरण किया जाना चाहिये।
उदाहरण के लिये राज्यपाल की नियुक्ति की
प्रक्रिया को स्पष्ट रूप से निर्धारित किया जाना चाहिये और राज्यपाल की नियुक्ति
की शर्तों के साथ राज्यपाल के लिये एक
निश्चित कार्यकाल का निर्धारण किया जाना चाहिये।
गौरतलब है कि वर्ष 1983 में गठित सरकारिया आयोग ने अपनी
रिपोर्ट में स्पष्ट किया था कि राज्यपाल का पद एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है, राज्यपाल न तो केंद्र सरकार के अधीनस्थ
है और न ही उसका एजेंट है।
राष्ट्रपति की सक्रियता की आवश्यकता: भारतीय
संविधान के तहत राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिमंडल की सहायता और सुझाव के प्रति बाध्य
होता है, हालाँकि अनुच्छेद-356 के दुर्भावनापूर्ण प्रयोग की स्थिति
में राष्ट्रपति सस्पेंसिव वीटो का प्रयोग कर सकता है।
उदाहरण के लिये पूर्व राष्ट्रपति के. आर.
नारायणन ने अक्तूबर 1977 में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की
सरकार के खिलाफ मंत्रिमंडल के प्रस्ताव को दो बार यह कहते हुए लौटा दिया था कि
राज्य में इस प्रकार राष्ट्रपति शासन लागू किया जाना संवैधानिक रूप से असंगत होगा।