बिरसा मुंडा बलिदान दिवस 2021 | Birsa Munda Balidaan Divas 2021 - Daily Hindi Paper | Online GK in Hindi | Civil Services Notes in Hindi

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बुधवार, 9 जून 2021

बिरसा मुंडा बलिदान दिवस 2021 | Birsa Munda Balidaan Divas 2021

बिरसा मुंडा बलिदान दिवस 2021

बिरसा मुंडा बलिदान दिवस 2021  | Birsa Munda Balidaan Divas 2021

बिरसा मुंडा बलिदान दिवस निबंध 2021 

जन्म वर्ष 1875

बलिदान दिवस 9 जून 1900


बिरसा मुंडा का जन्म वर्ष 1875 में हुआ था। वे मुंडा जनजाति के थे। बिरसा का मानना था कि उन्हें भगवान ने लोगों की भलाई और उनके दुःख दूर करने के लिये भेजा है, इसलिये वे स्वयं को भगवान मानते थे। उन्हें अक्सर 'धरती अब्बा' (Dharti Abba) या जगत पिताके रूप में जाना जाता है।

वर्ष 1899-1900 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुआ मुंडा विद्रोह छोटा नागपुर (झारखंड) के क्षेत्र में सर्वाधिक चर्चित विद्रोह था। इसे मुंडा उलगुलान’ (विद्रोह) भी कहा जाता है।   


बिरसा मुंडा महान क्रांतिकारी थे, जनजातीय समाज को साथ लेकर उलगुलान किया था उन्होने। उलगुलान अर्थात हल्ला बोल, क्रांति का ही एक देशज नाम। वे एक महान संस्कृतिनिष्ठ समाज सुधारक भी थे, वे संगीतज्ञ भी थे जिन्होंने सूखे कद्दू से एक वाद्ध्ययंत्र का भी अविष्कार किया था जो अब भी बड़ा लोकप्रिय है। इसी वाद्ध्ययंत्र को बजाकर वे आत्मिक सुख प्राप्त करते थे व दलित, पीड़ित समाज को संगठित करने का कार्य भी करते थे। ठीक वैसे ही जैसे भगवान श्रीकृष्ण अपनी बंशी से स्वांतः सुख व समाज सुख दोनों ही साध लेते थे। सूखे कद्दू से बना यह वाद्ध्ययंत्र अब भी भारतीय संगीत जगत मे वनक्षेत्रों से लेकर बालीवूड तक बड़ी प्रमुखता से बनाया व बजाया जाता है। वस्तुतः बिरसा मुंडा की मूल कार्यशैली जनजातीय समाज को इसाइयों के धर्मांतरण से बचाने, अत्याचारों से समाज को बचाने, समाज मे व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने व शोषक वर्ग से समाज को बचाने की रही। भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण व अविभाज्य अंग रहा है जनजातीय समाज। मूलतः प्रकृति पूजक यह समाज सदा से भौतिकता, आधुनिकता व धनसंचय से दूर ही रहा है। बिरसा मुंडा भी मूलतः इसी जनजातीय समाज के थे। "अबुआ दिशोम रे अबुआ राज" अर्थात अपनी धरती अपना राज का नारा दिया था वीर बिरसा मुंडा ने।

 

वीर शिरोमणि बिरसा का बलिदान दिवस यह स्मरण करने का अवसर है कि स्वतंत्र भारत मे अर्थात अबुआ दिशोम मे जनजातीय व वनवासी बंधुओं के साथ व उनकी संस्कृति के साथ क्या क्या षड्यंत्र हो रहे हैं? षड्यंत्र का सबसे बड़ा उदाहरण है समूचे भारत मे फैलाया जा रहा आर्य व अनार्य का विघटनकारी वितंडा।

 

तथ्य यह है कि भारत मे जनजातीय समाज व अन्य जातियों की आकर्षक विविधता को विघ्नसंतोषी विघटनकारियों ने आर्य अनार्य का वितंडा बना दिया। कथित तौर पर आर्य कहे जाने वाले लोग भी भारत मे उतने ही प्राचीन हैं जितने कि अनार्य का दर्जा दे दिये गए जनजातीय समाज के लोग। वस्तुतः वनवासी समाज को अनार्य कहना ही एक अपशब्द की भांति है, क्योंकि आर्य का अर्थ होता है सभ्य व अनार्य का अर्थ होता है असभ्य। सच्चाई यह है कि भारत का यह वनवासी समाज पुरातन काल से ही सभ्यता, संस्कृति, कला, निर्माण, राजनीति, शासन व्यवस्था, उत्पादकता और सबसे बड़ी बात राष्ट्र व समाज को उपादेयता के विषय मे किसी भी शेष समाज के संग कदम से कदम मिलाकर चलता रहा है व अब भी चल रहा है।

 

यह तो अब सर्वविदित ही है कि इस्लाम व ईसाइयत दोनों ही विस्तारवादी धर्म हैं व अपने विस्तार हेतु इन्होने अपने धर्म के परिष्कार, परिशोधन के स्थान पर षड्यन्त्र, कुतर्क, कुचक्र व हिंसा का ही उपयोग किया है। अपने इसी लक्ष्य की पूर्ति हेतु पश्चिमी विद्वानों ने भारतीय जातियो मे विभेद उत्पन्न करना उत्पन्न किया व द्रविड़ों को भारत का मूलनिवासी व आर्यों को बाहरी आक्रमणकारी कहना प्रारंभ किया।

 

संस्कृत के कथित ज्ञाता मेक्समूलर ने आर्यन इन्वेजन थ्योरी का अविष्कार किया। मेक्समूलर ने लिखा कि आर्य एक सुसंस्कृत, शिक्षित, बड़े विस्तृत धर्म ग्रन्थों वाली, स्वयं की लिपि व भाषा वाली घुमंतू किंतु समृद्ध जाति थी। इस प्रकार मैक्समूलर ने आर्य इंवेजन थ्योरी के सफ़ेद झूठ का पौधा भारत मे बोया जिसे बाद मे अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने एक बड़ा वृक्ष बना दिया। यद्द्पि बाद मे 1921 मे हड़प्पा व मोहनजोदाड़ो सभ्यता मिलने के बाद आर्यन थ्योरी को बड़ा धक्का लगा किंतु अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा पद्धति, झूठे इतिहास लेखन व षड्यन्त्र के बल पर इस थ्योरी को जीवित रखा। सबसे बड़ी खेद की बात यह है कि अंग्रेजों के जाने के पश्चात भारत मे एक बड़ा वर्ग ऐसा जन्मा जो कहने को तो भारतीय संतति ही है किंतु उसकी मानसिकता भारत विरोधी है। यह वर्ग सेकुलर, नक्सलवादी, माओवादी, बुद्धिजीवी, प्रगतिशील, जनवादी, आदि आदि नामों से आपको यहाँ वहाँ समाज सेवा के नाम पर समाज व देश को तोड़ते हुये बड़ी सहजता से मिल जाएगा। सिंधु घाटी सभ्यता की श्रेष्ठता को छुपाने व आर्य द्रविड़ के मध्य विभाजन रेखा खींचने की यह कथा बहुत विस्तृत चली व अब भी इस कथित विघ्नसंतोषी वर्ग द्वारा चलाई जा रही है. आज आवश्यकता इस बात की है कि वनवासी समाज मे घुसपैठ कर रहे इस कालनेमी वर्ग को पहचानना और उनके देशविरोधी, समाज विरोधी चरित्र पर ढके हुये छदम आवरण को हटाना। कथित तौर पर जिन्हे आर्य व द्रविड़ अलग अलग बताया गया उन दोनों का डीएनए परस्पर समान पाया गया है। दोनों ही शिव के उपासक हैं। एन्थ्रोपोलाजिस्ट वारियर एलविन ने जनजातीय समाज पर किए अध्ययन मे बताया था कि ये कथित आर्य और द्रविड़ शैविज़्म के ही एक भाग है और गोंडवाना के आराध्य शंभूशेक भगवान शंकर का ही रूप हैं। माता शबरी, निषादराज, सुग्रीव, अंगद, सुमेधा, जांबवंत, जटायु आदि आदि सभी जनजातीय बंधु भारत के शेष समाज के संग वैसे ही समरस थे जैसे दूध मे शक्कर समरस होती है। प्रमुख जनजाति गोंड व कोरकू भाषा का शब्द जोहारी रामचरितमानस के दोहा संख्या 320 में भी प्रयोग हुआ है। मेवाड़ में किया जाने वाला लोक नृत्य गवरी व वोरी भगवान शिव की देन है जो कि समूचे मेवाड़ी हिंदू समाज व जनजातीय समाज दोनों के द्वारा किया जाता है। बिरसा मुंडा, टंटया भील, रानी दुर्गावती, ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, अमर शहीद बुधू भगत, जतरा भगत, लाखो बोदरा, तेलंगा खड़िया, सरदार विष्णु गोंड आदि आदि कितने ही ऐसे वीर जनजातीय बंधुओं के नाम हैं जिनने अपना सर्वस्व भारत देश की संस्कृति व हिंदुत्व की रक्षा के लिये अर्पण कर दिया।

 

जब गजनी से विदेशी आक्रांता हिंदू आराध्य सोमनाथ पर आक्रमण कर रहा था तब अजमेर, नाडोल, सिद्ध पुर पाटन, और सोमनाथ के समूचे प्रभास क्षेत्र में हिंदू धर्म रक्षार्थ जनजातीय समाज ने एक व्यापक संघर्ष खड़ा कर दिया था। गौपालन व गौ सरंक्षण का संदेश बिरसा मुंडा जी ने भी समान रूप से दिया है। और तो और क्रांतिसूर्य बिरसा मुंडा का "उलगुलान" संपूर्णतः हिंदुत्व आधारित ही है। ईश्वर यानी सिंगबोंगा एक है, गौ की सेवा करो एवं समस्त प्राणियों के प्रति दया भाव रखो, अपने घर में तुलसी का पौधा लगाओ, ईसाइयों के मोह जाल में मत फंसो, परधर्म से अच्छा स्वधर्म है, अपनी संस्कृति, धर्म और पूर्वजों के प्रति अटूट श्रध्दा रखो, गुरुवार को भगवान सिंगबोंगा की आराधना करो व इस दिन हल मत चलाओ यह सब संदेश भगवान बिरसा मुंडा ने दिये हैं। जिन्हे आर्य कहा गया वे और वे जिन्हे अनार्य कहा गया वे, दोनों ही वन, नदी, पेड़, पहाड़, भूमि, गाय, बैल, सर्प, नाग, सूर्य, अग्नि आदि की पूजा हजारों वर्षों से करते चले आ रहें हैं।

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जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे मारे गये थे.. अफसोस इतिहास में कभी उन मासूमो के नरसंहार की निंदा नही की गई, खास कर उनके द्वारा जो दिन रात गौ रक्षको पर नजर लगा कर बैठे होते हैं और उन्हें गुंडे मवाली बनाने का एक भी मौका नहीं गंवाते .. उस जगह बिरसा मुंडा जी अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियाँ भी हुईं। अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये।इस गिरफ्तारी में भी देश के अंदर के ही किसी गद्दार का हाथ था जिसे चाटुकारों ने छिपा दिया .

 

जेल की सलाखें भी बिरसा मुंडा जी के वजूद को चुनौती न दे पाई .  घोर व अंतहीन प्रताड़ना दी जाने लगी जेल में उन्हें पर वो टस से मस नहीं हुए थे ..भयानक प्रताड़ना के चलते आज ही के दिन अर्थात 9 जून 1900 को राँची कारागार में भगवान स्वरूप बिरसा मुंडा जी ने अपनी अंतिम सांस ली और प्राप्त कर ली सदा सदा के लिए अमरता .. आज 9 जून को आज़ादी के उन महानायक के बलिदान दिवस पर उन्हें बारम्बार नमन करते हुए उनकी गौरवगाथा को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प सुदर्शन परिवार लेता है .