डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जीवन परिचय Dr Sarvapalli Biography in Hindi
• जन्म 5 सितम्बर 1888
• स्थान - तिरुतनी, तमिलनाडु
• पिता - सर्वपल्ली वीरास्वामी
• माता- सीताम्मा
• निधन 17 अप्रैल 1975
• उपाधियों- सर, भारत रत्न (1954)
• पद- राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति (प्रथम)
• रचनाएँ- - इंडियन फिलॉसफी ऑफ रवीन्द्रनाथ टैगोर - गौतम बुद्ध जीवन और दर्शन
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का संक्षिप्त जीवन परिचय
• डॉ. राधाकृष्णन का जन्म तमिलनाडु के तिरुतनी ग्राम में, जो तत्कालीन मद्रास से लगभग 64 कि.मी. की दूरी पर स्थित है, 5 सितम्बर 1888 को हुआ था।
• जिस परिवार में उन्होंने जन्म लिया वह एक ब्राह्मण परिवार था। उनका जन्म स्थान भी एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप में विख्यात रहा है। राधाकृष्णन के पुरखे पहले कभी ‘सर्वपल्ली’ नामक ग्राम में रहते थे और 18वीं शताब्दी के मध्य में उन्होंने तिरुतनी ग्राम की ओर निष्क्रमण किया था। लेकिन उनके पुरखे चाहते थे कि उनके नाम के साथ उनके जन्मस्थल के ग्राम का बोध भी सदैव रहना चाहिये। इसी कारण उनके परिजन अपने नाम के पूर्व 'सर्वपल्ली' धारण करने लगे थे।
• डॉ. राधाकृष्णन एक गरीब किन्तु विद्वान ब्राह्मण नाम 'सर्वपल्ली वीरास्वामी' और माता का नाम 'सीताम्मा' था।उनके पिता राजस्व विभाग में काम करते थे। उन पर बहुत बड़े परिवार के भरण-पोषण का दायित्वा वीरास्वामी के पाँच पुत्र तथा एक पुत्री । राधाकृष्णन का स्थान इन सन्ततियों में दूसरा था। उनके पिता काफी कठिनाई के साथ परिवार का निर्वहन कर रहे थे। इस कारण बालक राधाकृष्णन को बचपन में कोई विशेष सुख प्राप्त नहीं हुआ।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का विद्यार्थी जीवन
• उन्होंने राधाकृष्णन राधाकृष्णन का बाल्यकाल तिरुतनी एवं तिरुपति जैसे धार्मिक स्थलों पर ही व्यतीत हुआ। उन्होंने प्रथम आठ वर्ष तिरुपतिमें ही गुजारे। यद्यपि उनके पिता पुराने विचारों के थे और उनमें धार्मिक भावनाएँ भी थीं, इसके बावजूद को क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथने मिशन स्कूल, तिरुपति में 1896-1900 के मध्य विद्याध्ययन के लिये भेजा। फिर अगले 4 वर्ष (1900 से 1904) की उनकी शिक्षा वेल्लूर में हुई। इसके बाद उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास में शिक्षा प्राप्त की। वह बचपन से ही मेधावी थे।
• इन 12 वर्षों के अध्ययन काल में राधाकृष्णन ने बाइबिल के महत्वपूर्ण अंश भी याद कर लिये। इसके लिये उन्हें विशिष्ट योग्यता का सम्मान प्रदान किया गया। इस उम्र में उन्होंने वीर सावरकर और स्वामी विवेकानन्द का भी अध्ययन किया।
• उन्होंने 1902 में मैट्रिक स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की और उन्हें छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुई। इसके बाद उन्होंने 1904 में कला संकाय परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उन्हें मनोविज्ञान, इतिहास और गणित विषय में विशेष योग्यता टिप्पणी उच्च प्राप्तांकों के कारण मिली। इसके अलावा क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास ने उन्हें छात्रवृत्ति भी दी।
• दर्शनशास्त्र में एम.ए. करने के पश्चात् 1916 में वे मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हुए। बाद में उसी कॉलेज में वे प्राध्यापक भी रहे। डॉ. राधाकृष्णन ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से विश्व को भारतीय दर्शन शास्त्र से परिचित कराया। सारे विश्व में उनके लेखों की प्रशंसा की गयी।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का अध्यवसायी जीवन
• 1909 में 21 वर्ष की उम्र में डॉ. राधाकृष्णन ने मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में कनिष्ठ व्याख्याता के तौर पर दर्शन शास्त्र पढ़ाना प्रारम्भ किया। यह उनका परम सौभाग्य था कि उनको अपनी प्रकृति के अनुकूल आजीविका प्राप्त हुई थी। यहाँ उन्होंने 7 वर्ष तक न केवल अध्यापन कार्य किया अपितु स्वयं भी भारतीय दर्शन और भारतीय धर्म का गहराई से अध्ययन किया। उन दिनों व्याख्याता के लिये यह आवश्यक था कि अध्यापन हेतु वह शिक्षण का प्रशिक्षण भी प्राप्त करे।
• इसी कारण 1910 में राधाकृष्णन ने शिक्षण का प्रशिक्षण मद्रास में लेना आरम्भ कर दिया। इस समय इनका वेतन मात्र 37 रुपये था। दर्शन शास्त्र विभाग के तत्कालीन प्रोफेसर राधाकृष्णन के दर्शन शास्त्रीय ज्ञान काफी आभभूत हुए। उन्होंने उन्हें दर्शन शास्त्र की कक्षाओं से अनुपस्थित रहने की अनुमति मैं प्रदान कर दी। लेकिन इसके बदले में यह शर्त रखी कि वह उनके स्थान पर दर्शनशास्त्र की कक्षाओं में पढ़ा दें। तब राधाकृष्णन ने अपने कक्षा साथियों को तेरह ऐसे प्रभावशाली व्याख्यान दिये, जिनसे वे शिक्षार्थी भी चकित रह गये। इसका कारण यह था कि उनकी विषय पर गहरी पकड़ थी, दर्शन शास्त्र के सम्बन्ध में दृष्टिकोण स्पष्ट था और व्याख्यान देते समय उन्होंने उपयुक्त शब्दों का चयन भी किया था।
• 1927 डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की “मनोविज्ञान के आवश्यक तत्व” शीर्षक से एक लघु पुस्तिका भी प्रकाशित हुई, जो कक्षा में दिये गये उनके व्याख्यानों का संग्रह था। इस पुस्तिका के द्वारा उनकी यह योग्यता प्रमाणित हई कि "प्रत्येक पद की व्याख्या करने के लिये उनके पास शब्दों का अतुल भण्डार तो है ही, उनकी स्मरण शक्ति भी अत्यन्त विलक्षण है।"
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की मानद उपाधियाँ
• जब डॉ. राधाकृष्णन यूरोप एवं अमेरिका प्रवास से पुनः भारत लौटे तो यहाँ के विभिन्न विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद उपाधियाँ प्रदान कर उनकी विद्वता का सम्मान किया। 1928 की शीत ऋतु में इनकी प्रथम मुलाकात पण्डित जवाहर लाल नेहरू से उस समय हुई, जब वह कांग्रेस पार्टी के वार्षिक अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिये कलकत्ता आए हुए थे।
• यद्यपि सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय शैक्षिक सेवा के सदस्य होने के कारण किसी भी राजनीतिक संभाषण में हिस्सेदारी नहीं कर सकते थे, तथापि उन्होंने इस वर्जना की कोई परवाह नहीं की और भाषण दिया।
• 1929 में इन्हें व्याख्यान देने हेतु ‘मैनचेस्टर विश्वविद्यालय द्वारा आमन्त्रित किया गया। इन्होंनें मैनचेस्टर एवं लन्दन में कई व्याख्यान दिये।
इनकी शिक्षा सम्बन्धी उपलब्धियों के दायरे में निम्नवत संस्थानिक सेवा कार्यों को देखा जाता है।
• सन् 1931 से 1936 तक आन्ध्र विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे।
• ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में 1936 से 1952 तक प्राध्यापक रहे।
• कलकत्ता विश्वविद्यालय के अन्तर्गत आने वाले जॉर्ज पंचम कॉलेज के प्रोफेसर के रूप 1937 1941 तक कार्य किया।
• सन् 1939 से 1948 तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।
• 1953 से 1962 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।
• 1946 में यूनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का राजनीतिक जीवन
• यह सर्वपल्ली राधाकृष्णन की ही प्रतिभा थी कि स्वतन्त्रता के बाद इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वे 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे। इसी समय वे कई विश्वविद्यालयों के चेयरमैन भी नियुक्त किये गये।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन राजनयिक कार्य
• आजादी के बाद उनसे आग्रह किया गया कि वे मातृभूमि की सेवा के लिये विशिष्ट राजदूत के रूप में सोवियत संघ के साथ राजनयिक कार्यों की पूर्ति करें। इस प्रकार विजयलक्ष्मी पंडित का इन्हें नया उत्तराधिकारी चुना गया। पण्डित नेहरू के इस चयन पर अनेक व्यक्तियों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि दर्शनशास्त्री को राजनयिक सेवाओं के लिए क्यों चुना गया? उन्हें यह सन्देह था कि डॉक्टर राधाकृष्णन की योग्यताएँ सौंपी गई जिम्मेदारी के अनुकूल नहीं है। लेकिन बाद में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह साबित कर दिया कि मॉस्को में नियुक्त भारतीय राजनयिकों में वे सबसे बेहतर थे। वे परम्परावादी राजनयिक थे।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारत के उपराष्ट्रपति
• 1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉक्टर राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किये गये। संविधान के अंतर्गत उपराष्ट्रपति का नया पद सृजित किया गया था। नेहरूजी ने इस पद हेतु राधाकृष्णन का चयन करके पुनः लोगों को चौंका दिया। उन्हें आश्चर्य था कि इस पद के लिए कांग्रेस पार्टी ने किसी राजनीतिज्ञ का चुनाव क्यों नहीं किया ?
• उपराष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन ने राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार भी सम्भाला। सन् 1952 में वे भारत के उपराष्ट्रपति बनाये गये। बाद में पण्डित नेहरू का यह चयन भी सार्थक सिद्ध हुआ, क्योंकि उपराष्ट्रपति के रूप में एक गैर राजनीतिक व्यक्ति ने सभी राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया। संसद के सभी सदस्यों ने उन्हें उनके कार्य व्यवहार के लिये काफी सराहा। इनकी सदाशयता, दृढ़ता और विनोदी स्वभाव को लोग आज भी याद करते हैं।
शिक्षक दिवस-राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिन
• हमारे देश के द्वितीय किंतु अद्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिन (5 सितम्बर) को प्रतिवर्ष 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाया जाता है। इस दिन समस्त देश में भारत सरकार द्वारा श्रेष्ठ शिक्षकों को पुरस्कार भी प्रदान किया जाता है।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारत रत्न
• भारत रत्न यद्यपि उन्हें 1931 में ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा "सर" की उपाधि प्रदान की गयी थी लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात उसका औचित्य डॉ. राधाकृष्णन के लिये समाप्त हो चुका था। जब वे उपराष्ट्रपति बन गए तो स्वतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसादजी ने 1954 में उन्हें उनकी महान दार्शनिक व शैक्षिक उपलब्धियों के लिये देश का सर्वोच्च नागरिक अलंकरण "भारत रत्न" प्रदान किया।
राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का निधन
• सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन ने लम्बी बीमारी के बाद 17 अप्रैल, 1975 को प्रातःकाल अन्तिम सांस ली। वे अपने समय के एक महान दार्शनिक थे। देश के लिए यह अपूरणीय क्षति थी।
राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की कृतियाँ :
• दार्शनिक जगत में राधाकृष्णन ने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए। 1925 में उन्होंने 'इंडियन फिलॉसफी ऑफ रवीन्द्रनाथ टैगोर’, ‘दि रेन ऑव रिलीजन इन कस्टम्पोररी फिलॉसफी’, ‘कन्टेम्पोररी इंडियन फिलॉसफी' (1) 'ईस्टर्न रिलीजन एंड वेस्टर्न थॉट’, ‘गौतम बुद्धः जीवन और दर्शन', 'उपनिषदों का सन्देश' इत्यादि प्रमुख कृतियों की रचना की।