मध्यकालीन राजस्थान में सूफी आंदोलन | Sufi movement In Medieval Rajasthan - Daily Hindi Paper | Online GK in Hindi | Civil Services Notes in Hindi

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गुरुवार, 13 जुलाई 2023

मध्यकालीन राजस्थान में सूफी आंदोलन | Sufi movement In Medieval Rajasthan

मध्यकालीन राजस्थान में सूफी आंदोलन
(Sufi movement In Medieval Rajasthan)
Sufi movement In Medieval Rajasthan


मध्यकालीन राजस्थान में सूफी आंदोलन प्रस्तावना

 

मध्यकालीन राजस्थान में सूफियों के बारे में कुछ कहने से पहले हमें आपको तसव्वुफ के संबंध में कुछ जानकारी देना है। जैसे-

 

  • सूफी कौन थे ? 
  • इस्लाम में तसव्वुफ का उदगम 
  • इस्लाम में तसव्वुफ की आवश्यकता 
  • विभिन्न सूफी सके परिभाषाओं की उत्पत्ति तथा खानकाह

 

सूफी शब्द का उद्गम-सूफी शब्द न तो कुरान पवित्र और नही (हदीस मुहम्मदसा की जीवनी एवं उनके उपदेश) में मिलता है। परन्तु कुरान में ऐसे अनेक वाक्य है जैसे तौहिद, तकवा, खौफ, जिक्र आबिद, जाहीद, औलिया, अल्लाह, मुकबूर्न, इत्यादि, जिनकी व्याख्या द्वारा सूफीयों के मत की पुष्टि होती है ।

 

हजरत मुहम्मद के जीवन की बहुत सी घटनाएँ और उनके बहुत से प्रवचन सूफी सिद्धांत की आधारभूत सामग्री बन गए है। हजरत मुहम्मद के कुछ साथी (साहाबी) सदैव मस्जिद में निवास करते, इबादत में लीन रहते और सांसारिक जीवन से दूर रहते थें ये लोग "अहले सूफ्फा ' कहलाते थे । कुछ विद्वानों का मत है कि प्रारम्भिक सूफी यही लोग थे परन्तु यह मत सही नही है, वर्तमान शोध से यह सिद्ध हो चुका है कि "अहले सुफ्फा' से 'सुफी शब्द का प्रचलन नही हुआ है परन्तु जिन महापुरुषों ने विशेष प्रकार के सूफ (ऊनी वस्त्र धारण किये हे सूफी कहलाने लगे ।

 

तसव्यूफ को सुलुक अथवा तरीकत (आध्यात्मिक यात्रा) भी कहा जाता है। इस पथ पर यात्रा के लिए मार्ग-दर्शन की आवश्यकता होती है जो पीर अथवा मुर्शिद (गुरु) द्वारा किया जाता है ।

 

शिष्य को मुरीद कहते हैं, जिसे इस पथ पर यात्रा करने की इच्छा (इरादा ) हो वह किसी पीर से बैत करता है । बैत का अर्थ पीर के हाथ पर अपना हाथ देकर पीर के संघ (सिलसिला) के सुफियों तथा उस संघ को नियम पालन करने को प्रतिज्ञा बद्ध होता है ।

 

गुरु और शिष्य के सम्बन्ध को पीरी-मुरीदी कहा जाता है ।

 

यह यात्रा बड़ी कठिन है, इसमें अनेक मंजिले मिलती हैं, जिन्हें मकाम कहा जाता है । जिन आश्चर्यजनक एवं असाधारण आध्यात्मिक परिस्थितियों का इस यात्रा में सामना करना पड़ता है उसे हाल कहते है । इसका बहुवचन अहवाल है ।

 

पीर साधना (इबादत के विभिन्न नियम निर्धारित करता है, प्राय: अल्लाह का नाम लेने पर जोर दिया जाता है इसे 'जिक्र' कहते हैं। इसके साथ मुरीद को शरीअत के नियमों का पालन करना पड़ता है। घोर तपस्या, पीर के इशारों पर चिल्लाह (40 दिन किसी एक कमरे में एकान्त इबादत करने को कहते हैं) द्वारा अल्लाह का जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसे मारिफत कहते हैं ।

 

प्रथम सूफी 

सर्व प्रथम सूफी शब्द कूफा के निवासी अबू हाशिम के साथ जुड़ा हुआ है जो 778 ई. तक जीवित रहे । अगर यह सिद्धांत सही हैं तो फिर क्यों हजरत मुहम्मद के जीवन तथा उनके मृत्यु के प्राय: 200 वर्षो तक इस्लामिक इतिहास में सूफी शब्द का प्रयोग नही किया गया? इसका उत्तर इमाम कुरैशी ने इस प्रकार दिया है।

 

हजरत मुहम्मद के साथियों को साहाबा के अतिरिक्त उपाधि सर्वश्रेष्ठ नहीं हो सकती थी। सहाबा के साथी 'ताबेईन'' कहलाए और उनके बाद उनके साथी तबआ-ताबेईन के उपाधि से विभूषित किए गए। तदुपरान्त जिन महापुरुषों का ध्यान धर्म की ओर अधिक गया उन्हे जाहिद (संयमी) और आबिद (तपस्वी) कहा गया । अतः सुन्नियों में सर्वश्रेष्ठ ईश्वर भक्त पुरुष 'सूफी' के नाम से विख्यात हुए और दूसरी सदी से पूर्व ये बुजुर्ग इस नाम से प्रसिद्ध हुए

 

खानकाह 

सूफीवाद के प्रसार के साथ-साथ खानकाहों की भी स्थापना शुरू हुई क्योंकि इससे पहिले खानकाह नामक कोई संस्था इस्लाम में नहीं थी। खानकाह का अर्थ यहां पर यह है कि वह स्थान जहां एक सूफी अपने शिष्यों के साथ स्थाई तौर पर रहकर ईश्वर की आराधना करे जो एक घास-फूस का छप्पर तथा मिट्टी लकड़ी से बनी होती थी। कई खानकाहें दो मंजिली भी होती थी । मौलाना अब्दुर्रहमान जामी के अनुसार सर्व प्रथम खानकाह का निर्माण एक ईसाई हाकीम ने रमला (सीरिया) मे अबु हाशिम सुफी के लिए कराया था ।

 

11वीं सदी ई में खानकाहों का पूर्ण विकास हुआ। खानकाह के अनुशासन का पालन करने की प्रवृत्ति ने सूफीयों के संघठन की नीव को दृढ़ कर दिया खानकाह में केवल पीर / मुर्शिद (मुख्य गुरु) के बताए हुए नियमों का पालन करना होता था. 

 

उसे उस विशिष्ट सूफी सम्प्रदाय का पूर्ण ज्ञाता समझा जाता था और उसकी आज्ञा का उल्लंघन सम्भव न था । 

शेख अबू सईद अबुल खैर ने खानकाह वालों के लिए निम्नांकित 10 नियमों का पालन अनिवार्य बना दिया था:

 

1. सूफियों को अपने पोषाक / वस्त्र साफ रखने होंगे, और अपने मन को शुद्ध रखना होगा । 

2. किसी सूफी को मस्जिद अथवा किसी अन्य पवित्र स्थान पर गप लड़ाना नहीं चाहिए |3. सूफी लोग मिलकर इबादत करेंगे । 

4. सूफी रात्रि में अधिक इबादत करेंगे 

5. प्रातः काल (फजर) सूफी लोग ईश्वर से क्षमा याचना करेंगे और उसका जिक्र करेंगे ।

6. प्रातः काल प्रत्येक सूफी अधिक से अधिक समय कुरआन का पाठ करने में व्यतीत करेंगे । तथा सूर्योदय के पूर्व किसी से बात चीत नहीं करेगे । 

7. सांयकाल की नमाज (मगरीब) और इशा (सोने के समय) के नमाज के मध्य में ईश्वरीय जिक्र (स्मरण) करना होगा। 

8. प्रत्येक दरिद्र याचक तथा नव आगन्तुक का स्वागत करना उसकी सेवा में जो भी कष्ट हो उसे सहन करनी होगी। 

9. कोई सूफी अकेले भोजन नहीं करेगा, सब मिलकर भोजन करेंगें । 

10. बिना एक-दूसरे से आज्ञा लिए खानकाह से अनुपस्थित न रहेंगे. 

 

चिश्ती खानकाहा / जमअत खाना केवल सूफियों के समूहिक जीवन तथा इबादत का केन्द्र ही नहीं था । परन्तु इस स्थान पर हर एक (हिन्दू-मुस्लिम) को सिर छिपाने की जगह मिल जाती थी, कमी तो शासन के अत्याचार से बचने हेतु तो कभी शत्रु के आक्रमण से बचने के लिए लोग खानकाह की ओर दौड़ते थे मानसिक शान्ति प्राप्त करने एवं दुखी से निवारण हेतु भी लोग यहां आते थे ।

 

हर धर्म जाति या श्रेणी का व्यक्ति हो अगर वह किसी सूफी खानकाह में आकर शरण लेता था उसे वहां पर हर प्रकार की सहायता प्राप्त होती थी । खानकाह में दो तरह के लोग हुआ करते थे । (क) अस्थाई जो राहगीर या तीन दिन से अधिक खानकाह में नही ठहरते थे । (ख) स्थायी वे लोग खानकाह का समस्त इन्तजाम देखते थे

 

इसी तरह खानकाह सुफियों में सामूहिक जीवन तथा उनकी साधना का केन्द्र बना गया, हिन्दु-मुस्लिम हर धर्म पर विश्वास रखने वाले दीन-दुखी, फकीर, योगी, कलन्दर राहगीर, सर्व साधारण सभी व्यक्ति के लिए खानकाह आश्रय का स्थान बन गया । खानकाह में लंगर की प्रथा थी, जहाँ सभी प्रकार के लोगों का निःशुल्क भोजन मिलता था ।