ब्रिटिश प्रभुसत्ता की स्थापना
ब्रिटिश प्रभुसत्ता की स्थापना
- वित्तीय एवं आर्थिक हितों के साथ-साथ अंग्रेजी सरकार ने राज्यों पर राजनीतिक शिकंजा भी कसना शुरू किया जिससे कालांतर में उनकी प्रभुसत्ता स्थापित हो गई। उन्होने अपने पॉलिटिकल एजेण्ट्स इन राज्यों में नियुक्त कर दिए यद्यपि उनके साथ की गई संधियों में इस प्रकार की नियुक्तियों का कहीं भी उल्लेख अथवा प्रावधान नहीं था। जब बीकानेर राज्य के सुजानगढ़ कस्बे में सन् 1668 में पोलिटिकल एजेण्ट नियुक्त किया गया तो महाराजा ने इसके लिए विरोध जताया। अंग्रेजों का उत्तर था कि संधियों में ऐसा कहीं भी उल्लेख नहीं है कि अंग्रेजी सरकार इस प्रकार की नियुक्तियाँ नहीं करेगी और पॉलिटिकल एजेण्ट की नियुक्ति कर दी गई। सन् 1832 में अजमेर में एजेण्ट टू द गवर्नर जनरल इन राजपूताना स्टेट्स' की नियुक्ति के पश्चात् राजस्थान स्थित सभी रियासतों पर ब्रिटिश नियंत्रण कसता गया।
- ब्रिटिश सरकार धीरे-धीरे संधियों की शर्तों की पालना की बजाय उनकी अवहेलना और उल्लंघन में लिप्त हो गई । जोधपुर के महाराजा मानसिंह और उनके ठाकुरों के बीच, जो धोकलसिंह को उनकी जगह गद्दी पर बिठाना चाहते थे, सन् 1827 में विवाद बहुत बढ़ गया था तथा मानसिंह ने संधि की धारा के तहत अंग्रेजी सरकार से मदद मांगी परन्तु ब्रिटिश सरकार मदद के लिए नहीं आई इस दलील के साथ कि यह बाहरी आक्रमण नहीं था हालांकि धोकलसिंह की अगुवाई में ठाकुर जयपुर इलाके से जोधपुर पर आक्रमण की तैयारी कर रहे थे। इसी तरह जब 1839 में ठाकुरों और मानसिंह के बीच फिर टकराव हुआ तो ब्रिटिश सरकार ने मानसिंह को मदद देने की बजाय जोधपुर पर आक्रमण कर पांच महीने तक जोधपुर के किले को अपने कव्वे में रखा और महाराजा पर दबाव बढाकर एक कौलनामा लिखवाया कि भविष्य में वे अपना राज्य प्रबन्ध ठीक प्रकार से करेंगे। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार संधि की शर्तों के मामले में दोहरे मापदण्ड अपनाती रही.
- इसी प्रकार बीकानेर महाराजा ने सन् 1830 में अपने विद्रोही ठाकुरों के खिलाफ संधि की शर्त 7 के तहत मदद मांगी। इस शर्त में स्पष्ट तौर पर कहा गया कि महाराजा के मांगने पर अंग्रेज सरकार महाराजा से विद्रोह करने वाले और उनकी सत्ता को न मानने वाले ठाकुरों तथा राज्य के अन्य पुरुषों को उनके अधीन करेगी परन्तु अंग्रेजी सरकार ने संधि की व्याख्या अपनी मर्जी से करते हुए कहा कि यह प्रावधान अस्थाई परिस्थितियों के लिए था तथा महाराजा को अधिकार नहीं देता कि वह ब्रिटिश सरकार से भश्षि में सहायता की गुहार करें। सरकार ने रेजिडेंट को लिखा कि रियासतों के आंतरिक झगड़ों को निपटाने के लिए ब्रिटिश सहायता कभी नहीं दी जावे जब तक कि ब्रिटिश सरकार के इस बारे में स्पष्ट निर्देश न हो। ब्रिटिश सरकार के इस कृत्य पर डॉ. करणीसिंह लिखते हैं कि बीकानेर दरबार को जब ब्रिटिश सहायता की सख्त आवश्यकता थी, तब उन्हें अधरझूल में छोड़कर उनके साथ विश्वासघात किया गया ।
- कोटा से दिसम्बर 1817 में हुई संधि में एक पूरक शर्त फरवरी 1818 में जोड़ दी जिसके तहत कोटा राज्य का राज्य प्रबन्ध तत्कालीन दीवान राजराणा जालिमसिंह के बंशजों और उत्तराधिकारियों में निहित कर दिया। इस प्रावधान से महाराव नाममात्र का शासक रह गया और शासक व दीशन में निरन्तर टकराव एवं द्वेष रहने लगा। अंत में ब्रिटिश सरकार ने इसका हल सन् 1638 में निकाला और कोटा राज्य का बिमाजन करके झालावाड का नया राज्य बनाया जिसे जालिमसिंह के बंशजों को दे दिया गया ।
- संधियों में दो प्रावधान 'अधीनस्थ सहयोग' और 'ब्रिटिश सरकार की प्रभुसत्ता ऐसे थे जिनकी आड में ब्रिटिश सरकार ने राज्यों के आंतरिक मामलों में खुलकर हस्तक्षेप किश, जिससे राज्यों की संप्रभुता पर आघात हुआ। किसी भी राज्य का सिक्का उसकी संप्रभुता का चिन्ह होता था । ब्रिटिश सरकार ने राजाओं के सिक्के ढालने के अधिकार और उनकी मुद्रा को प्रचलन में आने से रोकने का प्रयत्न किया । इसका राज्यों ने विरोध भी किया परन्तु सफल नहीं हुए। इसी प्रकार राज्यों की डा सेवा को बन्द करवा कर इम्पीरियल डाक सेवा के लिए राज्यों में डाकघर चालू किए, अपने हित के लिए राज्यों में रेलवे सेवा शुरू की जिसके लिए जमीन और अन्य अधिकार राज्यों से प्राप्त किए जबकि संधियों में स्पष्ट था कि वे राज्यों में अपना कोई भी 'अधिकार क्षेत्र' (जुरिसिडक्शन) नहीं कायम करेगें.
- डाक, तार व रेलवे कर्मचारियों की राज्यों में तैनाती राजाओं को हमेशा ब्रिटिश सरकार की उपस्थिति का अहसास कराती रहती। अपने हित अथवा राजाओं के अहित के लिए ब्रिटिश सरकार उत्तराधिकार, नाबालिग राजा के काल में राज्य प्रबन्ध, राजा को राजगद्दी से पदच्युत करना इत्यादि मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए सदैव तत्पर रहती थी। कालांतर में राज्यों में विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर अंग्रेजी अफसरों की नियुक्ति से राज्यों के भू-प्रबन्ध में सिद्धान्त, तिटिश राज्य आधारित पुलिस प्रशासन एवं चाय पालिका संबंधी कानून बनाए गए और उन्हें राज्यों में लाग कर दिया गया । देशी शिक्षा प्रणाली के स्थान पर रिटिश शिक्षा प्रणाली और देशी औषधालयों के स्थान पर ब्रिटिश आधारित चिकित्सा पद्धति का ढांचा राज्यों में खड़ा कर दिया गया।
- इन संधियों का सरसे पड़ा प्रभाव यह हुआ कि राजा महाराजा अपनी ही सुरक्षा के लिए ब्रिटिश सरकार पर निर्भर हो गए। दे अपनी एवं प्रजा की सुरक्षा के प्रति उदासीन रहने लगे। राजा और प्रजा का आपसी संबंध ढीला होता चला गया और राज्य का प्रशासन कमजोर हो गया जिस पर अंग्रेज अफसरों अथवा अंग्रेजों के प्रति वफादार हिन्दुस्तानी अफसरों का कब्जा हो गया । धीरे-धीरे ब्रिटिश प्रभुसत्ता पोषित होती चली गई ।
- इस प्रकार ब्रिटिश सरकार और राज्यों के आपसी संबंध संधियों के प्रावधानों पर कम और ब्रिटिश हितों और समय की आवश्यकताओं पर ज्यादा आधारित होने लगे। संधियों की शर्तों के विपरीत किए गए मनमाने कार्यो को नजीर और परिपाटी के रूप में उद्धृत करके भविष्य में प्रावधानों के उल्लंघन को न्यायोचित करार दे दिया जाता था। धीरे-धीरे इन स्वेच्छाचारी कार्यकलापों से ब्रिटिश प्रभुसत्ता रूपी एक ऐसा शब्दजाल बन गया जिसके तहत सभी जायज नाजायज कार्यों को उचित ठहराया जाने लगा। कैसी विडंबना थी कि रियासतों और ब्रिटिश सरकार के बीच किसी विवाद की और निर्णय की मध्यस्थता का अधिकार भी ब्रिटिश सरकार को ही था और उसका फैसला रियासतों को मानना पडता था सन् 1857 के विप्लव के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी का भारत में प्रशासन समाप्त हो गया और गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया एक्ट 1858 के द्वारा प्रशासन ब्रिटिश साम्राज्ञी के अधीन हो गया। नवंबर 1, 1858 को ब्रिटिश महारानी की घोषणा के द्वारा भारतीय रियासतें ब्रिटिश साम्राज्य का अंग हो गई और उनकी ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ हुई संधियों व इकरारनामा को ब्रिटिश सरकार ने भी पालनार्थ स्वीकार कर लिया। ब्रिटेन की रानी ने भारत की सम्राज्ञी (केसरे-हिन्द ) का खिताब धारण कर यह दिखाने की कोशिश की कि वह मुगल साम्राज्य की उत्तराधिकारी थी परन्तु यह वास्तविकता नहीं थी । राज्यों का ब्रिटिश सरकार से संबंध संधियों और इकरारनामों से था और दोनों इन अनुबंधों से बंधे थे । सन् 1877 में लॉर्ड लिटन द्वारा दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया जिसमें राजाओं को बुलाकर यह दर्शाने की चेष्टा की गई कि ब्रिटिश सरकार और उनका संबंध राजा सामंत (sovereign feudal) जैसा है और उनकी (राजाओं की) हैसियत अथवा स्तर मुगलों के राजपाट समाप्त होने से नहीं बदले हैं, केवल उनके स्वामी बदल गए हैं। यही धारणा ब्रिटिश प्रभुसत्ता की स्थापना के मूल में थी जो आगे चलकर ब्रिटिश निरंकुशता में बदल गई ।
- सन् 1858 तक ब्रिटिश सरकार की रियासतों के प्रति नीति अस्पष्ट थी क्योंकि भारत की सैकड़ों रियासतों की समस्याएं एवं परिस्थितियां भिन्न थीं और बदलती रहती थी। परन्तु 1658 के बाद राज्यो से संबंधों को नियंत्रित करने हेतु एक सैद्धान्तिक आधार तैयार किया गया ।
- प्रश्न यह उठता है कि ब्रिटिश सम्राट को भारतीय रियासतों पर प्रभुसत्ता का उपभोग करने का अधिकार किसने दिया । सीधा सा उत्तर हैं। उनकी सैनिक ताकत ने। ली-वार्नर लिखते हैं कि ब्रिटिश सत्ता को ललकारा नहीं जा सकता क्योंकि ब्रिटिश सरकार और रियासतों की हैसियत बराबर की नहीं है, ब्रिटिश सरकार सर्वोच्च है और वह अपने अधिकारों और आदेशों की पालना करवाने में अपनी ताकत में कभी भी कमी नहीं होने देगी। ब्रिटिश सम्राट की प्रभुसत्ता को निम्नलिखित तलों के माध्यम से लागू किया जाता था.
शाही विशेषाधिकार (रॉयल प्रिरोगेटिव्ज )
- सन् 1858 में भारत का प्रशासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी से ब्रिटिश सम्राज्ञी द्वारा लिए जाने पर सभी राजाओं ने अपनी स्वामिभक्ति और निष्ठा सम्राज्ञी को अर्पित कर दी। किसी राजा की गद्दीनशीनी अथवा गद्दी से हटाने को मान्यता तभी मिलती थी जब ब्रिटिश सम्राट अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग करके इस प्रकार का आदेश देता था.
पार्लियामेन्ट के अधिनियम:
- ब्रिटिश पार्लियामेन्ट के अधिनियम अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सम्राट को प्रभुसत्ता के अधिकार प्रदान करते थे । उदाहरणार्थ, ब्रिटिश कानून के अनुसार ब्रिटिश भारत में रहने वाला कोई भी व्यक्ति रियासतों को रुपया उधार नहीं दे सकता था और न ही रियासतों के नाम पर रूपया एकत्रित कर सकता था ।
- इस कानून से राजाओं द्वारा उधार लेने पर अप्रत्यक्ष रूप से रोक लग गई । इसी प्रकार इण्डियन आर्म्स एक्ट (1878) के तहत शस्त्रों तथा युद्धोपकरण का आयात-निर्यात ब्रिटिश सरकार द्वारा नियंत्रित होता था । इसका परिणाम यह रूप कि रियासतों को हथियारों के जरिये शक्तिशाली नहीं होने दिया जाता ।
प्राकशतिक नियमः
- इसके अंतर्गत ब्रिटिश प्रभुसत्ता ने अमानवीय कृत्यों जैसे दास प्रथा, शिशुवध व सती को रोकने में अपने को सक्षम समझा ।
रियासतों से सीधा संबंध:
- संधियों और समझौतों के रूप में ब्रिटिश सरकार द्वारा द्वितीय पक्ष से सीधा इकरार करना प्रभुसत्ता की शक्ति का सबसे बड़ा स्रोत था । मूल संधियों में संशोधन करना अथवा उनमें कुछ जोड़ना अथवा पूरक संधियों को मूल संधियों से जोड़कर कुछ नई गतिविधियां जैसे रेलवे, डाकघर, तारघर आदि जो मूल संधियों के समय विद्यमान नहीं थे, को नियंत्रित करना इस कृत्य में शामिल थे ।
दस्तूर, लोकाचार एवं प्रथाएं:
- दस्तूर, लोकाचार तथा प्रथाएं शाही विशेषाधिकारों के प्रमुख स्रोत थे । स्थानीय ब्रिटिश अधिकारी बहुधा मौके पर ही परिस्थितिजन्य आवश्यकताओं के संदर्भ में कुछ निर्णय ले लेते थे और ये निर्णय कालांतर में प्रथागत कानून का रूप ले लेते थे ।
- इस प्रकार की कार्यप्रणाली के कारण ब्रिटिश प्रभुसत्ता की प्रकृति लचीली थी और प्रभुसता का प्रमुख आधार था शक्तिशाली होना ब्रिटिश प्रभुसत्ता का आधार यह नहीं था कि वह पूर्णरूपेण अधिकार सम्पन्न थी बल्कि यह था कि प्रथमतः तथा मूलतः वह प्रभुसत्ता थी और इसी कारण वह अधिकारों का उपभोग करती थी और इसीलिए वह अंत तक अपरिभाषित रही ।