धरती की यह है पीर, न है जंगल न है नीर पर निबंध
धरती की यह है पीर, न है जंगल न है नीर पर निबंध
धरती, जिसे
हम अपनी माता समान मानते हैं, आज
अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। यह वह धरती है जिसने हमें जीवन दिया, हमें पोषण दिया और हमें एक घर दिया। परंतु आज
धरती की यह पुकार सुनाई देती है कि "न है जंगल, न है नीर।" यह वाक्यांश हमें सोचने पर मजबूर करता है कि हमने
अपने पर्यावरण के साथ क्या किया है और हमारे भविष्य के लिए यह कितनी बड़ी चेतावनी
है।
जंगलों की महत्ता
जंगल धरती के फेफड़े हैं। ये न केवल पर्यावरण में संतुलन बनाए रखते हैं, बल्कि हमें ऑक्सीजन, दवाइयां, और अनेक संसाधन प्रदान करते हैं। इसके अलावा, जंगल जैव विविधता के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे अनेक वन्यजीवों का घर होते हैं, और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने में सहायक होते हैं।
लेकिन अफसोस की बात है कि आज मनुष्य की लालच और
स्वार्थ ने इन जंगलों को विनाश के कगार पर ला खड़ा किया है। विकास के नाम पर वन
क्षेत्र लगातार घटता जा रहा है। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई, जंगलों की आग और अवैध खनन ने धरती के फेफड़ों
को कमजोर कर दिया है।
जल संकट की ओर बढ़ता कदम
जल, जो जीवन का आधार है, आज संकट में है। नदियां सूख रही हैं, झीलें गायब हो रही हैं, और भूजल स्तर तेजी से गिरता जा रहा है। इसका मुख्य कारण है जल संसाधनों का अंधाधुंध दोहन और उनका उचित संरक्षण न किया जाना। कृषि, उद्योग, और घरेलू उपयोग के लिए अनियंत्रित तरीके से पानी का उपयोग हो रहा है, लेकिन उसे पुनर्भरण के प्रयास नाकाफी हैं।
धरती का यह पीड़ा का स्वर, "न है नीर," हमें चेतावनी देता है कि अगर हमने अभी भी जल संरक्षण के उपाय नहीं
अपनाए तो आने वाली पीढ़ियां इस अनमोल संसाधन से वंचित रह जाएंगी। जल संकट न केवल
जीवन को कठिन बनाएगा, बल्कि यह खाद्य संकट और सामाजिक संघर्षों को भी
जन्म देगा।
समाधान की ओर एक कदम
धरती की इस पीड़ा को समझते हुए हमें तुरंत कार्यवाही करनी चाहिए। जंगलों को बचाने के लिए वृक्षारोपण को प्रोत्साहन देना होगा, अवैध खनन और कटाई पर सख्ती से रोक लगानी होगी, और वन्यजीवों के संरक्षण के लिए विशेष प्रयास करने होंगे।
जल संरक्षण के लिए हमें अपने उपयोग में बदलाव
लाना होगा। वर्षा जल संचयन,
जल पुनर्चक्रण, और जलस्रोतों के संरक्षण के उपाय अपनाने होंगे। सामुदायिक स्तर पर जल
प्रबंधन योजनाएं बनानी होंगी और जनजागृति फैलानी होगी कि जल की महत्ता को समझा जा
सके।
निष्कर्ष
धरती की पीड़ा, "न है जंगल न है नीर," हमें यह बताती है कि अगर हमने अब भी अपनी आदतों को नहीं बदला, तो इसका परिणाम विनाशकारी होगा। यह समय है कि हम सब मिलकर धरती को पुनर्जीवित करने के लिए ठोस कदम उठाएं। धरती हमारी मां है, और उसकी पीड़ा को हमें समझकर उसे संतुलित और स्वस्थ बनाए रखने का संकल्प लेना चाहिए। तभी हमारा और आने वाली पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित रह सकेगा।