महात्मा गांधी ने विश्व
के बड़े नैतिक और राजनीतिक नेताओं जैसे- मार्टिन लूथर किंग जूनियर, नेल्सन मंडेला और
दलाई लामा आदि को प्रेरित किया तथा लैटिन अमेरिका, एशिया, मध्य पूर्व तथा यूरोप में सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों को
भी प्रभावित किया।
वर्तमान में गांधी की प्रासंगिकता
सांप्रदायिक कट्टरता और
आतंकवाद के इस वर्तमान दौर में गांधी तथा उनकी विचारधारा की प्रासंगिकता और बढ़ गई
है, क्योंकि उनके सिद्धांतों के अनुसार सांप्रदायिक सद्भावना
कायम करने के लिये सभी धर्मों-विचारधारों को साथ लेकर चलना ज़रूरी है।
आज के दौर में उनके
सिद्धांत बेहद ज़रूरी हैं, क्योंकि इससे पहले उनकी इतनी अधिक ज़रूरत कभी
महसूस नहीं की गई। लेकिन इसके साथ एक विरोधाभास यह है कि इतना सब होने के बावजूद
कोई भी उनके सिद्धांतों का अनुकरण करने के लिये तैयार नहीं है।
गांधी जी प्रयोगधर्मी
व्यक्ति माना जाता है, लेकिन यह प्रयोग केवल बौद्धिक स्तर तक सीमित
नहीं था; बल्कि इसे उन्होंने अपने जीवन में भी उतारा, जिसकी कुछ लोग आज
के दौर में आलोचना भी करते हैं। लेकिन उनके चिंतन और प्रयोगों में ‘लोग क्या कहेंगे’ जैसे शब्दों का
स्थान नहीं था।
20वीं शताब्दी के
प्रभावशाली लोगों में नेल्सन मंडेला, दलाई लामा, मिखाइल गोर्बाचोव, अल्बर्ट
श्वाइत्ज़र, मदर टेरेसा, मार्टिन लूथर
किंग (जू.), आंग सान सू की, पोलैंड के लेख
वालेसा आदि ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपने-अपने देश में गांधी की विचारधारा का उपयोग
किया और अहिंसा को अपना हथियार बनाकर अपने इलाकों, देशों में
परिवर्तन लाए।
यह प्रमाण है इस बात का कि गांधी के बाद और भारत के बाहर भी अहिंसा के ज़रिये अन्याय के खिलाफ सफलतापूर्वक लड़ाई लड़ी गई और उसमें विजय भी प्राप्त हुई।
महात्मा गांधी : एक सामान्य परिचय
- गांधी जी का जन्म पोरबंदर की रियासत में 2 अक्तूबर, 1869 में हुआ था। उनके पिता करमचंद गांधी, पोरबंदर रियासत के दीवान थे और उनकी माँ का नाम पुतलीबाई था।
- गांधी जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा राजकोट से प्राप्त की और बाद में वे वकालत की पढ़ाई करने के लिये लंदन चले गए। उल्लेखनीय है कि लंदन में ही उनके एक दोस्त ने उन्हें भगवद् गीता से परिचित कराया और इसका प्रभाव गांधी जी की अन्य गतिविधियों पर स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है।
- वर्ष 1893 में दादा अब्दुल्ला (एक व्यापारी जिनका दक्षिण अफ्रीका में शिपिंग का व्यापार था) ने गांधी जी को दक्षिण अफ्रीका में मुकदमा लड़ने के लिये आमंत्रित किया, जिसे गांधी जी ने स्वीकार कर लिया और गांधी जी दक्षिण अफ्रीका के लिये रवाना हो गए। विदित है कि गांधी जी के इस निर्णय ने उनके राजनीतिक जीवन को काफी प्रभावित किया।
- दक्षिण अफ्रीका में गांधी ने अश्वेतों और भारतीयों के प्रति नस्लीय भेदभाव को महसूस किया। उन्हें कई अवसरों पर अपमान का सामना करना पड़ा जिसके कारण उन्होंने नस्लीय भेदभाव से लड़ने का निर्णय लिया।
- उस समय दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों और अश्वेतों को वोट देने तथा फुटपाथ पर चलने तक का अधिकार नहीं था, गांधी ने इसका कड़ा विरोध किया और अंततः वर्ष 1894 में 'नटाल इंडियन कांग्रेस' (Natal India Congress) नामक एक संगठन स्थापित करने में सफल रहे। दक्षिण अफ्रीका में 21 वर्षों तक रहने के बाद वे वर्ष 1915 में वापस भारत लौट आए।
गांधी और सत्याग्रह
- गांधी जी ने अपनी संपूर्ण अहिंसक कार्य पद्धति को ‘सत्याग्रह’ का नाम दिया। उनके लिये सत्याग्रह का अर्थ सभी प्रकार के अन्याय, अत्याचार और शोषण के खिलाफ शुद्ध आत्मबल का प्रयोग करने से था।
- गांधी जी का मानना था कि सत्याग्रह को कोई भी अपना सकता है, उनके विचारों में सत्याग्रह उस बरगद के वृक्ष के समान था जिसकी असंख्य शाखाएँ होती हैं। चंपारण और बारदोली सत्याग्रह गांधी जी द्वारा केवल लोगों के लिये भौतिक लाभ प्राप्त करने हेतु नहीं किये गए थे, बल्कि तत्कालीन ब्रिटिश शासन के अन्यायपूर्ण रवैये का विरोध करने हेतु किये गए थे।
- सविनय अवज्ञा आंदोलन, दांडी सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन ऐसे प्रमुख उदाहरण थे जिनमें गांधी जी ने आत्मबल को सत्याग्रह के हथियार के रूप में प्रयोग किया।
गांधी के धर्म संबंधी विचार
- गांधी जी का जन्म एक हिंदू परिवार में हुआ था और चूँकि उनके पिता दीवान थे, इसलिये उन्हें अन्य धर्मों के लोगों से मिलने का भी काफी अवसर मिला, उनके कई ईसाई और मुस्लिम दोस्त थे। साथ ही गांधी जी अपनी युवा अवस्था में जैन धर्म से भी काफी प्रभावित थे। कई विश्लेषकों का मानना है कि गांधी जी ने ‘सत्याग्रह’ की अवधारणा हेतु जैन धर्म के प्रचलित सिद्धांत ‘अहिंसा’ से प्रेरणा ली थी।
- गांधी जी ने ‘भगवान’ को ‘सत्य’ के रूप में उल्लेखित किया था। उनका कहना था कि “मैं लकीर का फकीर नहीं हूँ।” वे संसार के सभी धर्मों को सत्य और अहिंसा की कसौटी पर कसकर देखते थे, जो भी उसमें खरा नहीं उतरता वे उसे अस्वीकार कर देते और जो उसमें खरा उतरता वे उसे स्वीकार कर लेते थे।
गांधी और स्वच्छता
- गांधीजी स्वच्छता को स्वतंत्रता से भी अधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे। भारत में स्वच्छता एक बड़ा मुद्दा है जिसे केवल एक रेल यात्रा के दौरान स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
- देश में कई लोगों के लिये स्वच्छता एक दिवास्वप्न है और इनकी स्वच्छता में उनकी सहायता करने के लिये, सरकार ने पिछले पाँच वर्षों में 11 करोड़ से अधिक शौचालयों का निर्माण किया है और 2 अक्तूबर 2019 को ग्रामीण भारत को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया है।
गांधी और स्वराज
- गांधीजी ने ऐसे रामराज्य का स्वप्न देखा था, जहाँ पूर्ण सुशासन और पारदर्शिता हो। उन्होंने यंग इंडिया (19 सितंबर 1929) में लिखा, रामराज्य से मेरा मतलब हिंदू राज नहीं है। मेरे रामराज्य का अर्थ है- ईश्वर का राज्य। मेरे लिये, राम और रहीम एक ही हैं; मैं सत्य और धार्मिकता के ईश्वर के अलावा किसी और ईश्वर को स्वीकार नहीं करता। चाहे मेरी कल्पना के राम कभी इस धरती पर रहे हो या न रहे हो, रामायण का प्राचीन आदर्श निस्संदेह सच्चे लोकतंत्र में से एक है, जिसमें एक बहुत बुरा नागरिक भी एक जटिल और महंगी प्रक्रिया के बिना त्वरित न्याय को लेकर आश्वस्त हो।
- 2 अगस्त 1934 को अमृत बाज़ार पत्रिका में उन्होंने कहा, 'मेरे सपनों की
रामायण, राजा और निर्धन दोनों के लिये समान अधिकार सुनिश्चित करती
है।' फिर 2 जनवरी 1937 को हरिजन में उन्होंने लिखा, 'मैंने रामराज्य
का वर्णन किया है, जो नैतिक अधिकार के आधार पर लोगों की संप्रभुता
है।’
- सुशासन की दिशा में सभी मंत्रालयों द्वारा सभी नियमित जानकारी और डेटा का सक्रिय प्रकाशन ऑनलाइन उपलब्ध कराया जा रहा है। सरकारी अधिकारियों और राजनीतिक कार्यपालिका की भूमिका और उत्तरदायित्व बहुत स्पष्ट रूप से परिभाषित किये गए है।
गांधी और अश्पृश्यता
- गांधी अस्पृश्यता या छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष को साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष से भी कहीं अधिक विकराल मानते थे। इसकी वजह यह थी कि साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में तो उन्हें बाहरी ताकतों से लड़ना था, लेकिन अस्पृश्यता से संघर्ष में उनकी लड़ाई अपनों से थी। वे कहते थे कि मेरा जीवन अस्पृश्यता उन्मूलन के लिये उसी प्रकार समर्पित है, जैसे अन्य बहुत सी बातों के लिये है।
- गांधी ने अस्पृश्यता को समाज का कलंक तथा घातक रोग माना, जो न केवल स्वयं को अपितु संपूर्ण समाज को नष्ट कर देता है। गांधी का कहना था कि इसी अस्पृश्यता के कारण हिंदू समाज पर कई संकट आए।
मैं तुम्हें एक जंतर देता हूं। जब भी तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहम तुम पर हावी होने लगे तो यह कसौटी अपनाओ, जो सबसे गरीब और कमज़ोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने हृदय से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिये कितना उपयोगी होगा, क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुँचेगा? क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर काबू रख सकेगा? यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज मिल सकेगा, जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त.. तब तुम देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहम समाप्त होता जा रहा है…”