राजस्थान के इतिहास के स्त्रोत |राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्त्रोत | Rajsthan History Sources in Hindi - Daily Hindi Paper | Online GK in Hindi | Civil Services Notes in Hindi

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सोमवार, 14 जून 2021

राजस्थान के इतिहास के स्त्रोत |राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्त्रोत | Rajsthan History Sources in Hindi

राजस्थान के इतिहास के  स्त्रोत

राजस्थान के इतिहास के  स्त्रोत |राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्त्रोत | Rajsthan History Sources in Hindi



इतिहास क्या है 


'इतिहास', अतीत काल की घटनाओं का प्रमाणिक दस्तावेज हैजो इतिहासकार द्वारा लिखा गया है, अर्थात अतीत क की घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से तो नही देखा जा सकता लेकिन कुछ 'साक्ष्य' या 'प्रमाण' ऐसे होते है, जो उसकी जानकारी देते है। 'साक्ष्य' स्वयं मे मूक होतें है, इतिहासकार उन्हें बुलवाता है। ये हमे कई रूपों में उपलब्ध होते है जैसे स्मारक, सिक्के, अभिलेख साहित्य तथा दस्तावेज आदि। राजस्थान के अत्यन्त प्राचीन काल के इतिहास को जानने के लिए केवल पुरातात्विक साक्ष्य ही उपलब्ध होते है, क्योकि तब मानव ने पढ़ना लिखना भी नहीं सीखा था। मध्यकाल में इतिहास ज्ञात करने के अनेक साधन उपलब्ध हो जाते है। समय-समय पर आने वाले विदेशी यात्रियों ने भी अपनी दृष्टि से यात्रा संबंधी लेखन कार्य किया है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व राजस्थान में अनेक छोटी-बड़ी देशी रियासतें थी जिन्होने अपने स्तर पर अपने अपने पूर्वजों का इतिहास संजोया था। इसलिए स्वतंत्रता से पूर्व राजस्थान का इतिहास इन्ही रियासतों का इतिहास है। इन सबके इतिहास को जोड़ कर देखा जाय तो राजस्थान का इतिहास दिखाई देता है।

 

1. पुरातात्विक स्त्रोत। 

2. साहित्यिक स्त्रोत । 

3. पुरालेख । 

4. आधुनिक साहित्य |

 

राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्त्रोत

 

  1. प्राचीन राजस्थान के इतिहास के निर्माण में पुरातात्विक स्त्रोतों की अहम भूमिका है। पुरातत्व का अर्थ है भूतकाल के बचे हुए भौतिक अवशेषों के माध्यम से मानव के क्रियाकलापों का अध्ययन। 
  2. ये अवशेष हमें अभिलेख, मुद्राएँ (सिक्के), मोहरे, भवन, स्मारक, मूतियाँ, उपकरण, मृदभाण्ड, आभूषण एवं अन्य रूपों में प्राप्त होते है। 
  3. इतिहास की जानकारी के लिए पुरातात्विक स्त्रोतों का अधिक महत्व है, क्योकि साहित्यिक स्त्रोतों की तुलना मे इनसे प्राप्त जानकारी अधिक विश्वसनीय, प्रामाणिक एवं दोष रहित मानी जाती है। इसके दो कारण है।
  4. प्रथम पुरातात्विक अवशेष समसामयिक एवं प्रामाणिक दस्तावेज होते है। द्वितीय, साहित्यिक स्त्रोतों की तुलना में इनमें अतिरंजना का अभाव होता है तथा ये काल विशेष के दोषरहित एवं पारदर्शी दस्तावेज होते है।

 

पुरातात्विक स्त्रोत को  पांच भागों में विभक्त किया जा सकता है

 

  1. अभिलेख। 
  2. मुद्राएं या सिक्के । 
  3. स्मारक ( दुर्ग, मंदिर, स्तूप, स्तंभ ) | 
  4. शैलचित्र कला । उत्खनित पुरावशेष (भवनावशेष, मृदभाण्ड उपकरणआभूषण आदि । )

 

राजस्थान के इतिहास में अभिलेख

 

  • पुरातात्विक स्त्रोतों के अंतर्गत सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्त्रोत अभिलेख है। इसका मुख्य कारण उनका तिथियुक्त एवं समसामयिक होना है। 
  • ये प्रायः पाषाणः पट्टिकाओं, स्तंभों, शिलाओं ताम्रपत्रों, मूर्तियों आदि पर खुदे हुए मिलते है।
  • ये अधिकांशत: महाजनी लिपि या हर्ष लिपि मे खोदे गये। 
  • इनमें वंशावली क्रम तिथियाँ, विशेष घटना, विजय, दान आदि का विवरण उत्कीर्ण करवाया जाता रहा है। 
  • इनमें राजा महाराजाओं की उपाधियाँ उनके नाम के साथ लिखवायी गयी मिलती है, जिससे शासन स्वरूप की जानकारी मिलती है। 
  • स्पष्ट है, इन अभिलेखों मे शासक वर्ग की उपलब्धियाँ अंकित करवायी जाती थी। 
  • चित्तौड की प्राचीन स्थिति तथा मोरी वंश के इतिहास की जानकारी 'मानमोरी के अभिलेख' से, जो 713 ई. (770 वि.स.) का है, प्राप्त होती है। 
  • 946 ई. (1003 वि.स.) के प्रतापगढ़ लेख' से तत्कालीन कृषि समाज एवं धर्म की जानकारी मिलती है। 
  • 953 ई. (1010 वि.स.) के 'सांडेश्वर के अभिलेख' से वराह मंदिर की व्यवस्था, स्थानीय व्यापार कर शासकीय पदाधिकारियों आदि के विषय में पता चलता है। 
  • इसी तरह बीसलदेव चतुर्थ का 'हरिकेलि' नाटक तथा उसी के राजकवि सोमेश्वर रचित 'ललित विग्रह नाटक' शिलाओं पर लिखे है, जो चौहानो के इतिहास के प्रमुख स्त्रोत है।
  • 1161 ई. (1218 वि.स.) के कुमारपाल के लेख मे आबू के परमारों की वंशावली प्रस्तुत की गयी है। 
  • 1169 ई. (1226 वि.स.) के बिजोलिया शिलालेख से चौहानों के समय की कृषि, धर्म तथा शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश पड़ता है। 
  • 1460 ई. (1517 वि.स.) की 'कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति' में बप्पा, हम्मीर तथा कुंभा के विषय में विस्तृत जानकारी मिलती है। 
  • 1676 (1732 वि.स.) में मेवाड़ के महाराणा राजसिंह ने 'राज प्रशस्ति' लिखवाई। इसमें मेवाड़ का इतिहास व महाराणा की उपलब्धियो का वर्णन है। 
  • इसी प्रकार गौरी द्वारा चौहानों की पराजय के पश्चात भारत में तुर्क प्रभाव स्थापित हुआ, और उन्होने भी फारसी भाषा मे अनेक अभिलेख लिखवाये। 
  • अजमेर में ढ़ाई दिन के झोंपड़े का अभिलेख 1200 ई. का फारसी अभिलेख है। 
  • ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में 1637 ई. का शाहजहॉनी मस्जिद का अभिलेख है, जिससे ज्ञात होता है कि शाहजादा खुर्रम ने मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह को हराने के बाद यहां मस्जिद बनवायी थीं मुगलकाल में अजमेर, नागौर, रणथम्भोर, गागरोन, शाहबाद, चित्तौड़ आदि स्थानों पर फारसी अभिलेख खुदवाये। इन अभिलेखों मे हिज़री सम्वत् का प्रयोग है। 
  • अतः फारसी अभिलेख भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्त्रोत है।