वैराग्य संदीपनी क्या है
॥ श्रीहरि : ॥
॥ अथ श्रीगोस्वामितुलसीदासकृत वैराग्यसंदीपनी ॥
परिचय: तुलसीदास जी की इस रचना में ४८ दोहे और सोरठे तथा १४ चौपाई की चतुष्पदियाँ हैं। वैराग्य
संदीपनी का अर्थ है ‘वैराग्य की प्रकाशिका’ एवं
इसका विषय, नाम के अनुसार ही वैराग्योपदेश है। इसलिए यह
पुस्तक बताती है कि कोई व्यक्ति कितनी आसानी से भक्ति एवं संत सङ्गति से स्थायी आध्यात्मिक सुख प्राप्त
कर सकता है।
मङ्गलाचरण और भगवत्स्वरूप-वर्णन
दोहा –
राम बाम दिसि जानकी लखन दाहिनी ओर ।
ध्यान सकल कल्यानमय सुरतरु तुलसि तोर ॥ १॥
भगवान् श्रीरामजी की बायीं ओर श्रीजानकीजी और दाहिनी ओर
श्रीलक्ष्मणजी हैं; यह ध्यान सम्पूर्ण रूप से कल्याणमय है।
तुलसीदासजी कहते हैं कि मेरे लिये तो यह कल्पवृक्ष ही है॥१॥
तुलसी मिटै न मोह तम किएँ कोटि गुन ग्राम ।
हृदय कमल फूलै नहीं बिनु रबि-कुल-रबि राम ॥ २॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि सूर्यकुल के सूर्य श्रीरामजीके बिना
करोड़ों गुणसमूहों का सम्पादन करने पर भी अज्ञान का अन्धकार नहीं मिटता और न
हृदयकमल ही प्रफुल्लित होता है॥२॥
सुनत लखत श्रुति नयन बिनु रसना बिनु रस लेत ।
बास नासिका बिनु लहै परसै बिना निकेत ॥ ३॥
जो बिना कान के सुनता है,
बिना आँख के देखता है, बिना
जीभ के रस लेता है, बिना नाक के गन्ध लेता (सूँघता) है और बिना
शरीर (त्वचा)-के स्पर्श करता है॥३॥
सोरठा –
अज अद्वैत अनाम अलख रूप-गुन-रहित जो ।
माया पति सोई राम दास हेतु नर-तनु-धरेउ ॥ ४॥
जो जन्मरहित है, अद्वितीय है,
नामरहित है,
अलक्ष्य है,
(प्राकृ) रूप और (माया के
तीनों) गुणों से रहित है और माया का स्वामी है,
वही तत्त्व श्रीरामचन्द्रजी हैं, जिन्होंने
(अपने) दास-भक्तों के लिये मनुष्य-शरीर धारण किया है ॥ ४ ॥
दोहा –
तुलसी यह तनु खेत है मन बच कर्म किसान ।
पाप-पुन्य द्वै बीज हैं बवै सो लवै निदान ॥ ५॥
तुलसीदासजी कहते हैं–यह शरीर खेत है; मन-वचन-कर्म
किसान हैं; पाप-पुण्य दो बीज हैं। जो बोया जायगा, वही
अन्तमें काटा जायगा (जैसा कर्म किया जायगा,
वैसा ही फल प्राप्त होगा होगा) ॥ ५॥
तुलसी यह तनु तवा है तपत सदा त्रैताप ।
सांति होई जब सांतिपद पावै राम प्रताप ॥ ६॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि यह शरीर तवा है, जो
सदा (आध्यात्मिक, आधिभौतिक,
आधिदैविक) तीनों तापों से जलता रहता है। इस
जलन से तभी शान्ति होती है, जब भगवान् श्रीरामजी के प्रताप से शान्तिपद
(परम शान्तिस्वरूप भगवान् के परमपद)-की प्राप्ति हो जाती है॥६॥
तुलसी बेद-पुरान-मत पूरन सास्त्र बिचार ।
यह बिराग-संदीपनी अखिल ग्यान को सार ॥ ७॥
तुलसीदासजी कहते हैं–
इस वैराग्य-संदीपनी में वेद-पुराणों का
सिद्धान्त और शास्त्रों का पूर्ण विचार है। यह समस्त ज्ञान का सारतत्त्व है॥७॥
संत-स्वभाव-वर्णन
दोहा –
सरल बरन भाषा सरल सरल अर्थमय मानि ।
तुलसी सरलै संतजन ताहि परी पहिचानि ॥ ८॥
इसमें सरल अक्षर हैं,
इसकी सरल भाषा है, इसे
सरल अर्थसे भरी हुई मानना चाहिये |
तुलसीदासजी कहते हैं, जो
सरल हृदय के संतजन हैं, उनको इसकी पहचान हो गयी है अर्थात् वे इस
वैराग्य-संदीपनीको सरलता से समझते हैं॥८॥
चौपाई –
अति सीतल अति ही सुखदाई ।
सम दम राम भजन अधिकाई ॥
जड जीवन कौं करै सचेता ।
जग महँ बिचरत है एहि हेता ॥ ९॥
(संतजन) अत्यन्त शीतल (शान्त-स्वभाव) और
अत्यन्त सुखदायक होते हैं| वे मन पर विजय पाये हुए और इन्द्रियों को
दमन करने वाले तो हैं ही, श्रीराम-भजनकी उनमें विशेषता होती है। वे
मूर्ख (संसारासक्त) जीवों को सचेत करते हैं–
सावधान करके भगवान्की ओर लगाते हैं और इसी
हेतु से जगत् में बिचरण करते हैं॥९॥
दोहा –
तुलसी ऐसे कहुँ कहूँ धन्य धरनि वह संत ।
परकाजे परमारथी प्रीति लिये निबहंत ॥ १०॥
तुलसीदासजी कहते हैं–ऐसे संत कहीं-कहीं (विरलें ही) होते हैं। वह
पृथ्वी धन्य है जहाँ ऐसे संत हैं, जो पराये कार्य में तथा परमार्थमें अर्थात् दूसरों की सेवा में और परमार्थ-साधन में निमग्र
रहते हैं तथा प्रीतिक साथ (अपने) इस ब्रत का निर्वाह करते हैं॥१०॥
की मुख पट दीन्हे रहैं जथा अर्थ भाषंत ।
तुलसी या संसारमें सो बिचारजुत संत ॥ ११॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि जो या तो मुख पर पर्दा डाले रहता यानी मौन
ही रहता है या केवल यथार्थ (सत्य) भाषण करता है,
इस संसारमें वही विचारयुक्त (विवेकी) संत
है॥११॥
बोलै बचन बिचारि कै लीन्हें संत सुभाव ।
तुलसी दुख दुर्बचन के पंथ देत नहिं पाँव ॥ १२॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि वह संत (साधु) स्वभाव को धारण किये हुए
विचारकर वचन बोलता है और दुःख तथा दुष्ट वचन के मार्ग पर कभी पैर नहीं रखता
अर्थात् वह न तो किसी का जी दुखाता है और न दुष्ट बचन बोलता है॥१२॥
सत्रु न काहू करि गनै मित्र गनै नहिं काहि ।
तुलसी यह मत संत को बोलै समता माहि ॥ १३॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि वह न तो किसी को शत्रु करके मानता है और न
किसी को मित्र ही मानता है| संत का यही सिद्धान्त है कि वह समता में ही
यानी सबको समान समझकर ही बोलता है॥१३॥
चौपाई –
अति अनन्यगति इंद्री जीता ।
जाको हरि बिनु कतहुँ न चीता ॥
मृग तृष्णा सम जग जिय जानी ।
तुलसी ताहि संत पहिचानी ॥ १४॥
जो सर्वथा अनन्यगति हों अर्थात् भगवान् के सिवा अन्य किसी को भी इष्ट मानकर न भजता हो, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त किये हुए हो, जिसका चित्त श्रीहरि को छोड़कर कहीं भी न लगता हो और जो जगत्को अपने जी में मृगतृष्णा के समान मिथ्या जानता हो, तुलसीदासजी कहते हैं कि उसी को संत समझो॥ १४॥
सूर्य की किरणों के पड़ने से बालू में जल
प्रतीत होता है, परंतु वस्तुत: वहाँ जल नहीं होता और हरिण
उसी को जल समझकर प्यास बुझाने के लिये दौड़ता है। उसी को “मृगतृष्णा’ कहते
हैं।
दोहा –
एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास ।
रामरूप स्वाती जलद चातक तुलसीदास ॥ १५॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि जिसको एकमात्र (भगवान का ही) आश्रय है, एकमात्र
( भगवान् का ही जिसको) बल है, एकमात्र (उन्हीं से जिसको) आशा है और
(उन्हीं का) भरोसा है, (जिसके लिये) भगवान् श्रीरामचन्द्रजीका रूप
ही स्वाती नक्षत्र का मेघ है और (जो स्वयं) चातक (की भाँति उन्हीं की ओर देख रहा
है,) (वह संत है) ॥ १५ ॥
सो जन जगत जहाज है जाके राग न दोष ।तुलसी तृष्णा त्यागि कै गहै सील संतोष ॥ १६॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि जिसके राग-द्वेष नहीं है और जो तृष्णा को त्यागकर शील तथा संतोष को ग्रहण किये हुए है, वह संत पुरुष जगत्के (लोगों को भवसागर से तारने के) लिये जहाज है॥ १६॥
सील गहनि सब की सहनि कहनि हीय मुख राम ।
तुलसी रहिए एहि रहनि संत जनन को काम ॥ १७॥
शील (विनय तथा सुशीलता)-को पकड़े रहना, सबकी
कठोर बातों और व्यवहारों कों सहना;
हृदय से और मुख से सदा राम-(के नाम तथा
लीला-गुणों को) कहते रहना–तुलसीदासजी कहते हैं कि इस रहनी से रहना ही
संतजनों का काम है॥१७॥
निज संगी निज सम करत दुरजन मन दुख दून ।
मलयाचल है संतजन तुलसी दोष बिहून ॥ १८॥
वे अपने संगियोंको (जो उनका सत्सङ्ग करते हैं, उनको)
अपने ही समान बना लेते हैं; किंतु दुर्जनों के मन का दुःख दूना करते हैं
(द्वेषकी अग्नरि से जलते हुए दुर्जन लोग संतों के साथ विशेष द्वेष करके अपने दुःख
को बढ़ा लेते हैं)। (परंतु) तुलसीदासजी कहते हैं कि संत तो (वस्तुत: सदा) चन्दन के
समान शीतल और दोषरहित ही हैं॥१८॥
कोमल बानी संत की स्त्रवत अमृतमय आइ ।
तुलसी ताहि कठोर मन सुनत मैन होइ जाइ ॥ १९॥
संत की वाणी कोमल होती है,
उससे अमृतमय (रस) झरा करता है। तुलसीदासजी
कहते हैं कि उसे सुनते ही कठोर मन भी (पिघलाये हुए) मोम के समान (कोमल) हो जाता
है॥१९॥
अनुभव सुख उतपति करत भय-भ्रम धरै उठाइ ।
ऐसी बानी संत की जो उर भेदै आइ ॥ २०॥
संत की वाणी ऐसी होती है कि जो अनुभव-सुख-( आत्मानुभूति के आनन्द)
को उत्पन्न करती है, भय और भ्रम को उठाकर अलग रख देती है और आकर
हृदय को भेद डालती (हृदय की अज्ञान ग्रन्थि को तोड़ डालती) है॥२०॥
सीतल बानी संत की ससिहू ते अनुमान ।
तुलसी कोटि तपन हरै जो कोउ धारै कान ॥ २१॥
संतकी शीतल वाणी चन्द्रमासे भी बढ़कर अनुमान की जाती है, तुलसीदासजी
कहते हैं कि जो कोई उसको कानोंमें धारण करता है,
उसके करोड़ों तापों कों हर लेती है॥२१॥
चौपाई –
पाप ताप सब सूल नसावै ।
मोह अंध रबि बचन बहावै ॥
तुलसी ऐसे सदगुन साधू ।
बेद मध्य गुन बिदित अगाधू ॥ २२॥
संतजन पाप, ताप और सब प्रकार के शूलों को नष्ट कर देते
हैं। उनके सूर्य-सदृश वचन मोहरूपी अन्धकार का नाश कर डालते हैं।तुलसीदासजी कहते
हैं कि साधु ऐसे सदगुणी होते हैं। उनके अगाध गुण वेदों में विख्यात हैं॥ २२॥
दोहा –
तन करि मन करि बचन करि काहू दूखत नाहिं ।
तुलसी ऐसे संतजन रामरूप जग माहिं ॥ २३॥
जो शरीर से, मन से और वचन से किसी पर दोषारोपण नहीं करते, तुलसीदासजी
कहते हैं कि जगत में ऐसे संतजन श्रीरामचन्द्रजी के रूप ही हैं॥ २३॥
मुख दीखत पातक हरै परसत कर्म बिलाहिं ।
बचन सुनत मन मोहगत पूरुब भाग मिलाहिं ॥ २४॥
जिनका मुख दीखते ही पाप नष्ट हो जाते हैं, स्पर्श
होते ही कर्म विलीन हो जाते हैं और बचन सुनते ही मनका मोह (अज्ञान) चला जाता है, ऐसे
संत पूर्व (जन्मकृत कर्मो के कारण) सद्भाग्य से ही मिलते हैं॥२४॥
अति कोमल अरु बिमल रुचि मानस में मल नाहिं ।
तुलसी रत मन होइ रहै अपने साहिब माहिं ॥ २५॥
संतजन) अत्यन्त कोमल और निर्मल रुचि वाले
होते हैं। उनके मन में पाप नहीं होता। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे अपने स्वामी में
नित्य लगे हुए मन वाले होते हैं॥२५॥
जाके मन ते उठि गई तिल-तिल तृष्णा चाहि ।
मनसा बाचा कर्मना तुलसी बंदत ताहि ॥ २६॥
जिसके मन से तृष्णा और चाह तिल-तिल उठ गयी है (जरा भी नहीं रही है), तुलसीदास
मन से, वचन से और कर्म से उसकी वन्दना करता है॥ २६॥
कंचन काँचहि सम गनै कामिनि काष्ठ पषान ।
तुलसी ऐसे संतजन पृथ्वी ब्रह्म समान ॥ २७॥
जो सोने और काँच को समान समझते हैं और स्त्री को काठ-पत्थर-(के
समान देखते हैं), तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसे संतजन पृथ्वी पर
(शुद्ध सच्चिदानन्द) ब्रह्म के समान हैं ॥ २७॥
चौपाई –
कंचन को मृतिका करि मानत ।
कामिनि काष्ठ सिला पहिचानत ॥
तुलसी भूलि गयो रस एह ।
ते जन प्रगट राम की देहा ॥ २८॥
जो सोने को मिट्टी के समान मानते हैं और स्त्री को काठ-पत्थर के
रूप में देखते हैं, तुलसीदासजी कहते हैं कि जो इस (विषय) रस को
भूल गये हैं, वे (संत) जन श्रीरामचन्द्रजी के मूर्तिमान्
शरीर ही हैं॥२८॥
दोहा –
आकिंचन इंद्रीदमन रमन राम इक तार ।
तुलसी ऐसे संत जन बिरले या संसार ॥ २९॥
जो अकिञ्चन हैं (जिनके पास ममताकी कोई भी वस्तु नहीं है), जो
इन्द्रियों का दमन किये हुए हैं और जो एकतार (निरन्तर) राम में ही रमण करते हैं, तुलसीदासजी
कहते हैं ऐसे संतजन इस संसार में बिरले ही हैं॥२९॥
अहंबाद मैं तैं नहीं दुष्ट संग नहिं कोइ ।
दुख ते दुख नहिं ऊपजै सुख तैं सुख नहिं होइ ॥ ३०॥
सम कंचन काँचै गिनत सत्रु मित्र सम दोइ ।
तुलसी या संसारमें कात संत जन सोई ॥ ३१॥
जिसमें न तो अहंकार है,
न मैं-तू (या मेरा-तेरा) है, जिसके
कोई भी दुष्ट संग नहीं है, जिसको दुःख-(दुःखजनक घटना) से दुःख नहीं होता
तथा सुख से हर्ष नहीं होता, जो सोने और काँच को समान समझता है, जिसको
शत्रु-मित्र दोनों समान हैं–तुलसीदासजी कहते हैं कि इस संसारमें उसी को
संतजन कहते हैं ॥ ३०-३१॥
बिरले बिरले पाइए माया त्यागी संत ।
तुलसी कामी कुटिल कलि केकी केक अनंत ॥ ३२॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि कलियुग में माया का त्याग कर देने वाले संत
कोई-कोई ही मिलते हैं, पर (ऊपर से मीठा बोलने वाले और मौका लगते ही
साँपों कों खा जाने वाले) मोर-मोरिनी-जैसे कामी-कुटिल लोगों का अन्त (पार) नहीं
हैं॥३२॥
मैं तं मेट्यो मोह तम उग्यो आतमा भानु ।
संत राज सो जानिये तुलसी या सहिदानु ॥ ३३॥
जिसके आत्मारूपी सूर्यका उदय हो गया और मैं-तू-रूप अज्ञान के
अंधकार का नाश हो गया, तुलसीदासजी कहते हैं कि उसको संतराज
(संतशिरोमणि) जानना चाहिये; क्योंकि यही उसकी पहिचान है॥३३॥
संत-महिमा-वर्णन
सोरठा –
को बरनै मुख एक तुलसी महिमा संत की ।
जिन्ह के बिमल बिबेक सेस महेस न कहि सकत ॥ ३४॥
तुलसीदासंजी कहते हैं कि एक मुख से संत की महिमा का वर्णन कौन कर
सकता है। जिनके मलरहित (मायारहित विशुद्ध) विवेक है,
वे (सहस्नमुखवाले) शेषजी और (पद्ञमुख)
महेश्वर (शिवजी) भी उसका कथन नहीं कर सकते ॥ ३४॥
दोहा –
महि पत्री करि सिंधु मसि तरु लेखनी बनाइ ।
तुलसी गनपत सों तदपि महिमा लिखी न जाइ ॥ ३५॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि (संतकी महिमा इतनी अपार है कि) पृथ्वी को
कागज, समुद्र को दावात और कल्पवृक्ष कों कलम बनाकर
भी, गणेशजी से भी उसकी महिमा नहीं लिखी जा सकती
॥ ३५ ॥
धन्य धन्य माता पिता धन्य पुत्र बर सोइ ।
तुलसी जो रामहि भजे जैसेहुँ कैसेहुँ होइ ॥ ३६॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि उसके माता-पिता धन्य-धन्य हैं और वही
श्रेष्ठ पुत्र धन्य है, जो जैसे-कैसे भी भगवान् श्रीरामचन्द्रजीका
भजन करता है॥३६॥
तुलसी जाके बदन ते धोखेहुँ निकसत राम ।
ताके पग की पगतरी मेरे तन को चाम ॥ ३७॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि जिसके मुख से धोखे से भी ‘राम’ (नाम)
निकल जाता है, उसके पग की जूती मेरें शरीर के चमड़े से
बने॥३७॥
तुलसी भगत सुपच भलौ भजै रैन दिन राम ।
ऊँचो कुल केहि कामको जहाँ न हरिको नाम ॥ ३८॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि भक्त चाण्डाल भी अच्छा है, जो
रात-दिन भगवान् रामचन्द्रजी का भजन करता है;
जहाँ श्रीहरि का नाम न हो, वह
ऊँचा कुल किस काम का॥ ३८॥
अति ऊँचे भूधरनि पर भुजगन के अस्थान ।
तुलसी अति नीचे सुखद ऊख अन्न अरु पान ॥ ३९॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि बहुत ऊँचे पहाड़ों पर (विषधर) सर्पों के
रहने के स्थान होते हैं और बहुत नीची जगह में अत्यन्त सुखदायक ऊख, अन्न
और जल होता है। (ऐसे ही भजन रहित ऊँचे कुल में अहंकार, मद, काम, क्रोधादि
रहते हैं और भजन युक्त नीच कुल में अति सुखदायिनी भक्ति, शान्ति, सुख
आदि होते हैं; इससे वहीं श्रेष्ठ है) ॥ ३९॥
चौपाई –
अति अनन्य जो हरि को दासा ।
रटै नाम निसिदिन प्रति स्वासा ॥
तुलसी तेहि समान नहिं कोई ।
हम नीकें देखा सब कोई ॥ ४०॥
जो श्रीहरिका अनन्य सेवक है और रात-दिन प्रत्येक श्वासमें उनका नाम
रटता है, तुलसीदासजी कहते हैं कि उसके समान कोई नहीं
है, मैंने सबको अच्छी तरहसे देख लिया है॥४०॥
चौपाई –
जदपि साधु सबही बिधि हीना ।
तद्यपि समता के न कुलीना ॥
यह दिन रैन नाम उच्चरै ।
वह नित मान अगिनि महँ जरै ॥ ४१॥
साधु यदि सभी प्रकारसे हीन भी हो तो भी कुलीन-(ऊँचे कुलवाले) की
उसके साथ समता नहीं हो सकती; क्योंकि यह (साथु) दिन- रात भगवान् के नाम
का उच्चारण करता है और वह (कुलीन) नित्य अभिमान की अग्रिमें जला करता है॥४१॥
दोहा –
दास रता एक नाम सों उभय लोक सुख त्यागि ।
तुलसी न्यारो ह्वै रहै दहै न दुख की आगि ॥ ४२॥
भगवान् का सेवक दोनों (पृथ्वी और स्वर्ग) लोकों का सुख त्यागकर एक
मात्र भगवान् के नाम में ही प्रेम करता है। तुलसीदासजी कहते हैं कि वह संसार से
अलग होकर (संसार की आसक्ति को छोड़कर) रहता है,
इसलिये दुःखकी अग्निमें नहीं जलता॥ ४२॥
शान्ति-वर्णन
रैनि को भूषन इंदु है दिवस को भूषन भानु ।
दास को भूषन भक्ति है भक्ति को भूषन ग्यानु ॥ ४३॥
रात्रि का भूषण (शोभा) चन्द्रमा है,
दिन का भूषण सूर्य है, सेवक
(भक्त) का भूषण भक्ति है, भक्ति का भूषण ज्ञान है।॥ ४३॥
ग्यान को भूषन ध्यान है ध्यान को भूषन त्याग ।
त्याग को भूषन शांतिपद तुलसी अमल अदाग ॥ ४४॥
ज्ञान का भूषण ध्यान है,
ध्यान का भूषण त्याग है। तुलसीदासजी कहते
हैं कि त्यागका भूषण शान्ति पद (भगवान् का शान्तिमय परमपद) है, जो
(सर्वथा) निर्मल और निष्कलङ्क है॥ ४४ ॥
चौपाई –
अमल अदाग शांतिपद सारा ।
सकल कलेस न करत प्रहारा ॥
तुलसी उर धारै जो कोई ।
रहै अनंद सिंधु महँ सोई ॥ ४५॥
यह निर्मल और निष्कलङ्क शान्तिपद ही सार (तत्त्व) है। (इसकी
प्राप्ति होनेपर) कोई भी क्लेश प्रहार (आक्रमण) नहीं करते (अर्थात् इस स्थिति में
समस्त अविद्याजनित क्लेशों का नाश हो जाता है)। तुलसीदासजी कहते हैं जो कोई इसे
हृदय में धारण कर लेता है, वह आनन्दसागर में निमग्र रहता है।॥ ४५॥
बिबिध पाप संभव जो तापा ।
मिटहिं दोष दुख दुसह कलापा ॥
परम सांति सुख रहै समाई ।
तहँ उतपात न बेधै आई ॥ ४६॥
विविध पापों से उत्पन्न जो ताप (कष्ट) हैं तथा जो दोष एवं असह्य दुःखसमूह
हैं, वे मिट जाते हैं और वह उस परमशान्ति रूप सुख
में समा जाता है कि जहाँ कोई भी उत्पात आकर प्रवेश नहीं कर सकता।॥ ४६॥
तुलसी ऐसे सीतल संता ।
सदा रहै एहि भाँति एकंता ॥
कहा करै खल लोग भुजंगा ।
कीन्ह्यौ गरल-सील जो अंगा ॥ ४७॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसे शीतल (शान्त) संत सदा इसी प्रकार
एकान्त में (केवल एक शान्तिपद रूप परमात्मा के परमपद में) ही निवास करते हैं।
जिन्होंने अपने अज्ञों को विषस्वभाव बना लिया है,
ऐसे सर्परूप दुष्ट लोग उन-(संतों) का क्या (
बिगाड़)’ कर सकते हैं ॥ ४७॥
दोहा –
अति सीतल अतिही अमल सकल कामना हीन ।
तुलसी ताहि अतीत गनि बृत्ति सांति लयलीन ॥ ४८॥
जो अत्यन्त शीतल, अत्यन्त ही निर्मल (पवित्र) तथा समस्त
कामनाओं से रहित होता है और जिसकी वृत्ति शान्ति में लवलीन रहती है, तुलसीदासजी
कहते हैं कि उसी को अतीत (गुणातीत) समझना चाहिये॥ ४८ ॥
चौपाई –
जो कोइ कोप भरे मुख बैना ।
सन्मुख हतै गिरा-सर पैना ॥
तुलसी तऊ लेस रिस नाहिं ।
सो सीतल कहिए जग माहीं ॥ ४९॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि यदि कोई क्रोध में भरकर मुख से (कठोर वाणी)
बोले और सामने ही वचन रूपी तीखे बाणों की वर्षा करे तो भी जिसको लेशमात्र भी रोष न
हो उसी को जगत में शीतल (संत) कहते हैं॥४९॥
दोहा –
सात दीप नव खंड लौ तीनि लोक जग माहिं ।
तुलसी सांति समान सुख अपर दूसरो नाहीं ॥ ५०॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि सातों द्वीप,
नवों खण्ड (नहीं-नहीं) तीनों लोक और जगत् भर
में शान्ति के समान दूसरा कोई सुख नहीं है॥ ५०॥
चौपाई –
जहाँ सांति सतगुरु की दई ।
तहाँ क्रोध की जर जरि गई ॥
सकल काम बासना बिलानी ।
तुलसी बहै सांति सहिदानी ॥ ५१॥
जहाँ सद्गुछकी दी हुई शान्ति प्राप्त हुई कि वहीं क्रोधकी जड़ जल
गयी और समस्त कामना और वासनाएँ बिला गयीं। तुलसीदासजी कहते हैं कि यही शान्ति की
पहचान है।॥ ५१॥
तुलसी सुखद सांति को सागर ।
संतन गायो करन उजागर ॥
तामें तन मन रहै समोई ।
अहं अगिनि नहिं दाहैं कोई ॥ ५२॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि जिसे संतों ने सुखदायक, शान्ति
का समुद्र और (ज्ञान का) प्रकाश करने वाला बतलाया है, उसमें
यदि कोई तन-मन से समा जाय-लीन होकर रहे तो उसे अहंकार की अग्नि किसी प्रकार नहीं
जला सकती ॥ ५२॥
दोहा –
अहंकार की अगिनि में दहत सकल संसार ।
तुलसी बाँचै संतजन केवल सांति अधार ॥ ५३॥
अहंकार की अग्रि में समस्त संसार जल रहा है। तुलसीदासजी कहते हैं
कि केवल संतजन ही शान्ति का आधार लेने के कारण (उससे) बचते हैं॥५३॥
महा सांति जल परसि कै सांत भए जन जोइ ।
अहं अगिनि ते नहिं दहैं कोटि करै जो कोइ ॥ ५४॥
जो (संत) जन महान् शान्ति रूप जल को स्पर्श करके शान्त हो गये हैं, वे
अहंकार की अग्निसे नहीं जलते, चाहे कोई करोड़ों उपाय करे॥ ५४ ॥
तेज होत तन तरनि को अचरज मानत लोइ ।
तुलसी जो पानी भया बहुरि न पावक होइ ॥ ५५॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि (उस अहङ्कार रहित संत के) शरीर का तेज
सूर्य का-सा हो जाता है, लोग (उसे देख-देखकर) आश्चर्य मानते हैं; परंतु
(शान्ति के द्वारा) जो जल (के समान शीतल) हों गया है, वह
फिर अग्नि (के समान) नहीं हो सकता (उसमें अहङ्कार का उदय नहीं होता) ॥ ५५॥
जद्यपी सीतल सम सुखद जगमें जीवन प्रान ।
तदपि सांति जल जनि गनौ पावक तेल प्रमान ॥ ५६॥
यद्यपि वह शान्तिपद शीतल है,
सम है तथा सुखदायक है और जगत में (संतोंका)
जीवन-प्राण है तथापि उसे (साधारण) जल (के समान) मत समझो, (जल
के समान शीतल होने पर भी) उसका तेज अग्नि के समान है॥ ५६॥
चौपाई –
जरै बरै अरु खीझि खिझावै ।
राग द्वेष महँ जनम गँवावै ॥
सपनेहुँ सांति नहि उन देही ।
तुलसी जहाँ-जहाँ ब्रत एही ॥ ५७॥
जो सदा (अहंकार तथा कामना की अग्रि में) जलते-बरते रहते हैं, स्वयं
क्रोध करके दूसरों को क्रोधित करते हैं और राग-द्वेष में ही अपना जन्म (जीवन) खो
देते हैं–तुलसीदासजी कहते हैं कि जहाँ-जहाँ ऐसा व्रत
है (अर्थात् जिन-जिनका ऐसा स्वभाव है) उनके शरीर में (जीवनमें) स्वप्न में भी
शान्ति नहीं होती॥५७॥
दोहा –
सोइ पंडित सोइ पारखी सोई संत सुजान ।
सोई सूर सचेत सो सोई सुभट प्रमान ॥ ५८॥
सोइ ग्यानी सोइ गुनी जन सोई दाता ध्यानि ।
तुलसी जाके चित भई राग द्वेष की हानि ॥ ५९॥
तुलसीदास जी कहते हैं कि जिसके चित्त से राग-द्वेष का नाश हों गया
है, वही पण्डित है, वही
(सत-असत का) पारखी है; वही चतुर संत है, वही
शूरवीर है, वही सावधान है; वही
प्रामाणिक योद्धा है, वही ज्ञानी है, वही
गुणवान् पुरुष है, वही दाता है और वही ध्यान-सम्पन्न है॥५८-५९॥
चौपाई –
राग द्वेष की अगिनि बुझानी ।
काम क्रोध बासना नसानी ॥
तुलसी जबहि सांति गृह आई ।
तब उरहीं उर फिरी दोहाई ॥ ६०॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि जब राग-द्वेष की अग्नि बुझ गयी, काम, क्रोध
और वासना का नाश हो गया और घर में (अन्तःकरण में) शान्ति आ गयी, तभी
हृदय में भीतर-ही-भीतर (तुरंत राम की) दोहाई फिर गयी। (फिर अन्तःकरण में अज्ञान
तथा उससे पैदा हुए काम-क्रोधादि का साम्राज्य नहीं रहा, वहाँ
रामराज्य हो गया, सर्वतोभावसे भगवान् ही छा गये।) ॥६०॥
दोहा –
फिरी दोहाई राम की गे कामादिक भाजि ।
तुलसी ज्यों रबि कें उदय तुरत जात तम लाजि ॥ ६१॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि जब राम की दोहाई फिर गयी (हृदय में भगवान्
का प्रकाश तथा विस्तार हो गया), तब कामादि (दोष उसी क्षण से ही) भाग गये, जैसे
सूर्य के उदय होते ही उसी क्षण अन्धकार लजा (कर भाग) जाता है॥६१॥
यह बिराग संदीपनी सुजन सुचित सुनि लेहु ।
अनुचित बचन बिचारि के जस सुधारि तस देहु ॥ ६२॥
सज्जनो! इस बैराग्य-संदीपनी को सावधान एवं स्थिर चित्त से सुनो और विचारकर
अनुचित वचनों को जहाँ जैसा उचित हों सुधार दो॥ ६२॥
॥ इति श्रीमद्गोस्वामीतुलसीदासकृत वैराग्यसंदीपनी संपूर्णम् ॥
॥ श्रीमद्गोस्वामीतुलसीदास कृत ‘वैराग्य-संदीपनी ‘ समाप्त
॥
सील गहनि सब की सहनि कहनि हीय मुख राम ।
तुलसी रहिए एहि रहनि संत जनन को काम ॥ १७॥
शील (विनय तथा सुशीलता)-को पकड़े रहना, सबकी
कठोर बातों और व्यवहारों कों सहना;
हृदय से और मुख से सदा राम-(के नाम तथा
लीला-गुणों को) कहते रहना–तुलसीदासजी कहते हैं कि इस रहनी से रहना ही
संतजनों का काम है॥१७॥
निज संगी निज सम करत दुरजन मन दुख दून ।
मलयाचल है संतजन तुलसी दोष बिहून ॥ १८॥
वे अपने संगियोंको (जो उनका सत्सङ्ग करते हैं, उनको)
अपने ही समान बना लेते हैं; किंतु दुर्जनों के मन का दुःख दूना करते हैं
(द्वेषकी अग्नरि से जलते हुए दुर्जन लोग संतों के साथ विशेष द्वेष करके अपने दुःख
को बढ़ा लेते हैं)। (परंतु) तुलसीदासजी कहते हैं कि संत तो (वस्तुत: सदा) चन्दन के
समान शीतल और दोषरहित ही हैं॥१८॥
कोमल बानी संत की स्त्रवत अमृतमय आइ ।
तुलसी ताहि कठोर मन सुनत मैन होइ जाइ ॥ १९॥
संत की वाणी कोमल होती है,
उससे अमृतमय (रस) झरा करता है। तुलसीदासजी
कहते हैं कि उसे सुनते ही कठोर मन भी (पिघलाये हुए) मोम के समान (कोमल) हो जाता
है॥१९॥
अनुभव सुख उतपति करत भय-भ्रम धरै उठाइ ।
ऐसी बानी संत की जो उर भेदै आइ ॥ २०॥
संत की वाणी ऐसी होती है कि जो अनुभव-सुख-( आत्मानुभूति के आनन्द)
को उत्पन्न करती है, भय और भ्रम को उठाकर अलग रख देती है और आकर
हृदय को भेद डालती (हृदय की अज्ञान ग्रन्थि को तोड़ डालती) है॥२०॥
सीतल बानी संत की ससिहू ते अनुमान ।
तुलसी कोटि तपन हरै जो कोउ धारै कान ॥ २१॥
संतकी शीतल वाणी चन्द्रमासे भी बढ़कर अनुमान की जाती है, तुलसीदासजी
कहते हैं कि जो कोई उसको कानोंमें धारण करता है,
उसके करोड़ों तापों कों हर लेती है॥२१॥
चौपाई –
पाप ताप सब सूल नसावै ।
मोह अंध रबि बचन बहावै ॥
तुलसी ऐसे सदगुन साधू ।
बेद मध्य गुन बिदित अगाधू ॥ २२॥
संतजन पाप, ताप और सब प्रकार के शूलों को नष्ट कर देते
हैं। उनके सूर्य-सदृश वचन मोहरूपी अन्धकार का नाश कर डालते हैं।तुलसीदासजी कहते
हैं कि साधु ऐसे सदगुणी होते हैं। उनके अगाध गुण वेदों में विख्यात हैं॥ २२॥
दोहा –
तन करि मन करि बचन करि काहू दूखत नाहिं ।
तुलसी ऐसे संतजन रामरूप जग माहिं ॥ २३॥
जो शरीर से, मन से और वचन से किसी पर दोषारोपण नहीं करते, तुलसीदासजी
कहते हैं कि जगत में ऐसे संतजन श्रीरामचन्द्रजी के रूप ही हैं॥ २३॥
मुख दीखत पातक हरै परसत कर्म बिलाहिं ।
बचन सुनत मन मोहगत पूरुब भाग मिलाहिं ॥ २४॥
जिनका मुख दीखते ही पाप नष्ट हो जाते हैं, स्पर्श
होते ही कर्म विलीन हो जाते हैं और बचन सुनते ही मनका मोह (अज्ञान) चला जाता है, ऐसे
संत पूर्व (जन्मकृत कर्मो के कारण) सद्भाग्य से ही मिलते हैं॥२४॥
अति कोमल अरु बिमल रुचि मानस में मल नाहिं ।
तुलसी रत मन होइ रहै अपने साहिब माहिं ॥ २५॥
संतजन) अत्यन्त कोमल और निर्मल रुचि वाले
होते हैं। उनके मन में पाप नहीं होता। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे अपने स्वामी में
नित्य लगे हुए मन वाले होते हैं॥२५॥
जाके मन ते उठि गई तिल-तिल तृष्णा चाहि ।
मनसा बाचा कर्मना तुलसी बंदत ताहि ॥ २६॥
जिसके मन से तृष्णा और चाह तिल-तिल उठ गयी है (जरा भी नहीं रही है), तुलसीदास
मन से, वचन से और कर्म से उसकी वन्दना करता है॥ २६॥
कंचन काँचहि सम गनै कामिनि काष्ठ पषान ।
तुलसी ऐसे संतजन पृथ्वी ब्रह्म समान ॥ २७॥
जो सोने और काँच को समान समझते हैं और स्त्री को काठ-पत्थर-(के
समान देखते हैं), तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसे संतजन पृथ्वी पर
(शुद्ध सच्चिदानन्द) ब्रह्म के समान हैं ॥ २७॥
चौपाई –
कंचन को मृतिका करि मानत ।
कामिनि काष्ठ सिला पहिचानत ॥
तुलसी भूलि गयो रस एह ।
ते जन प्रगट राम की देहा ॥ २८॥
जो सोने को मिट्टी के समान मानते हैं और स्त्री को काठ-पत्थर के
रूप में देखते हैं, तुलसीदासजी कहते हैं कि जो इस (विषय) रस को
भूल गये हैं, वे (संत) जन श्रीरामचन्द्रजी के मूर्तिमान्
शरीर ही हैं॥२८॥
दोहा –
आकिंचन इंद्रीदमन रमन राम इक तार ।
तुलसी ऐसे संत जन बिरले या संसार ॥ २९॥
जो अकिञ्चन हैं (जिनके पास ममताकी कोई भी वस्तु नहीं है), जो
इन्द्रियों का दमन किये हुए हैं और जो एकतार (निरन्तर) राम में ही रमण करते हैं, तुलसीदासजी
कहते हैं ऐसे संतजन इस संसार में बिरले ही हैं॥२९॥
अहंबाद मैं तैं नहीं दुष्ट संग नहिं कोइ ।
दुख ते दुख नहिं ऊपजै सुख तैं सुख नहिं होइ ॥ ३०॥
सम कंचन काँचै गिनत सत्रु मित्र सम दोइ ।
तुलसी या संसारमें कात संत जन सोई ॥ ३१॥
जिसमें न तो अहंकार है,
न मैं-तू (या मेरा-तेरा) है, जिसके
कोई भी दुष्ट संग नहीं है, जिसको दुःख-(दुःखजनक घटना) से दुःख नहीं होता
तथा सुख से हर्ष नहीं होता, जो सोने और काँच को समान समझता है, जिसको
शत्रु-मित्र दोनों समान हैं–तुलसीदासजी कहते हैं कि इस संसारमें उसी को
संतजन कहते हैं ॥ ३०-३१॥
बिरले बिरले पाइए माया त्यागी संत ।
तुलसी कामी कुटिल कलि केकी केक अनंत ॥ ३२॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि कलियुग में माया का त्याग कर देने वाले संत
कोई-कोई ही मिलते हैं, पर (ऊपर से मीठा बोलने वाले और मौका लगते ही
साँपों कों खा जाने वाले) मोर-मोरिनी-जैसे कामी-कुटिल लोगों का अन्त (पार) नहीं
हैं॥३२॥
मैं तं मेट्यो मोह तम उग्यो आतमा भानु ।
संत राज सो जानिये तुलसी या सहिदानु ॥ ३३॥
जिसके आत्मारूपी सूर्यका उदय हो गया और मैं-तू-रूप अज्ञान के
अंधकार का नाश हो गया, तुलसीदासजी कहते हैं कि उसको संतराज
(संतशिरोमणि) जानना चाहिये; क्योंकि यही उसकी पहिचान है॥३३॥
संत-महिमा-वर्णन
सोरठा –
को बरनै मुख एक तुलसी महिमा संत की ।
जिन्ह के बिमल बिबेक सेस महेस न कहि सकत ॥ ३४॥
तुलसीदासंजी कहते हैं कि एक मुख से संत की महिमा का वर्णन कौन कर
सकता है। जिनके मलरहित (मायारहित विशुद्ध) विवेक है,
वे (सहस्नमुखवाले) शेषजी और (पद्ञमुख)
महेश्वर (शिवजी) भी उसका कथन नहीं कर सकते ॥ ३४॥
दोहा –
महि पत्री करि सिंधु मसि तरु लेखनी बनाइ ।
तुलसी गनपत सों तदपि महिमा लिखी न जाइ ॥ ३५॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि (संतकी महिमा इतनी अपार है कि) पृथ्वी को
कागज, समुद्र को दावात और कल्पवृक्ष कों कलम बनाकर
भी, गणेशजी से भी उसकी महिमा नहीं लिखी जा सकती
॥ ३५ ॥
धन्य धन्य माता पिता धन्य पुत्र बर सोइ ।
तुलसी जो रामहि भजे जैसेहुँ कैसेहुँ होइ ॥ ३६॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि उसके माता-पिता धन्य-धन्य हैं और वही
श्रेष्ठ पुत्र धन्य है, जो जैसे-कैसे भी भगवान् श्रीरामचन्द्रजीका
भजन करता है॥३६॥
तुलसी जाके बदन ते धोखेहुँ निकसत राम ।
ताके पग की पगतरी मेरे तन को चाम ॥ ३७॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि जिसके मुख से धोखे से भी ‘राम’ (नाम)
निकल जाता है, उसके पग की जूती मेरें शरीर के चमड़े से
बने॥३७॥
तुलसी भगत सुपच भलौ भजै रैन दिन राम ।
ऊँचो कुल केहि कामको जहाँ न हरिको नाम ॥ ३८॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि भक्त चाण्डाल भी अच्छा है, जो
रात-दिन भगवान् रामचन्द्रजी का भजन करता है;
जहाँ श्रीहरि का नाम न हो, वह
ऊँचा कुल किस काम का॥ ३८॥
अति ऊँचे भूधरनि पर भुजगन के अस्थान ।
तुलसी अति नीचे सुखद ऊख अन्न अरु पान ॥ ३९॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि बहुत ऊँचे पहाड़ों पर (विषधर) सर्पों के
रहने के स्थान होते हैं और बहुत नीची जगह में अत्यन्त सुखदायक ऊख, अन्न
और जल होता है। (ऐसे ही भजन रहित ऊँचे कुल में अहंकार, मद, काम, क्रोधादि
रहते हैं और भजन युक्त नीच कुल में अति सुखदायिनी भक्ति, शान्ति, सुख
आदि होते हैं; इससे वहीं श्रेष्ठ है) ॥ ३९॥
चौपाई –
अति अनन्य जो हरि को दासा ।
रटै नाम निसिदिन प्रति स्वासा ॥
तुलसी तेहि समान नहिं कोई ।
हम नीकें देखा सब कोई ॥ ४०॥
जो श्रीहरिका अनन्य सेवक है और रात-दिन प्रत्येक श्वासमें उनका नाम
रटता है, तुलसीदासजी कहते हैं कि उसके समान कोई नहीं
है, मैंने सबको अच्छी तरहसे देख लिया है॥४०॥
चौपाई –
जदपि साधु सबही बिधि हीना ।
तद्यपि समता के न कुलीना ॥
यह दिन रैन नाम उच्चरै ।
वह नित मान अगिनि महँ जरै ॥ ४१॥
साधु यदि सभी प्रकारसे हीन भी हो तो भी कुलीन-(ऊँचे कुलवाले) की
उसके साथ समता नहीं हो सकती; क्योंकि यह (साथु) दिन- रात भगवान् के नाम
का उच्चारण करता है और वह (कुलीन) नित्य अभिमान की अग्रिमें जला करता है॥४१॥
दोहा –
दास रता एक नाम सों उभय लोक सुख त्यागि ।
तुलसी न्यारो ह्वै रहै दहै न दुख की आगि ॥ ४२॥
भगवान् का सेवक दोनों (पृथ्वी और स्वर्ग) लोकों का सुख त्यागकर एक
मात्र भगवान् के नाम में ही प्रेम करता है। तुलसीदासजी कहते हैं कि वह संसार से
अलग होकर (संसार की आसक्ति को छोड़कर) रहता है,
इसलिये दुःखकी अग्निमें नहीं जलता॥ ४२॥
शान्ति-वर्णन
रैनि को भूषन इंदु है दिवस को भूषन भानु ।
दास को भूषन भक्ति है भक्ति को भूषन ग्यानु ॥ ४३॥
रात्रि का भूषण (शोभा) चन्द्रमा है,
दिन का भूषण सूर्य है, सेवक
(भक्त) का भूषण भक्ति है, भक्ति का भूषण ज्ञान है।॥ ४३॥
ग्यान को भूषन ध्यान है ध्यान को भूषन त्याग ।
त्याग को भूषन शांतिपद तुलसी अमल अदाग ॥ ४४॥
ज्ञान का भूषण ध्यान है,
ध्यान का भूषण त्याग है। तुलसीदासजी कहते
हैं कि त्यागका भूषण शान्ति पद (भगवान् का शान्तिमय परमपद) है, जो
(सर्वथा) निर्मल और निष्कलङ्क है॥ ४४ ॥
चौपाई –
अमल अदाग शांतिपद सारा ।
सकल कलेस न करत प्रहारा ॥
तुलसी उर धारै जो कोई ।
रहै अनंद सिंधु महँ सोई ॥ ४५॥
यह निर्मल और निष्कलङ्क शान्तिपद ही सार (तत्त्व) है। (इसकी
प्राप्ति होनेपर) कोई भी क्लेश प्रहार (आक्रमण) नहीं करते (अर्थात् इस स्थिति में
समस्त अविद्याजनित क्लेशों का नाश हो जाता है)। तुलसीदासजी कहते हैं जो कोई इसे
हृदय में धारण कर लेता है, वह आनन्दसागर में निमग्र रहता है।॥ ४५॥
बिबिध पाप संभव जो तापा ।
मिटहिं दोष दुख दुसह कलापा ॥
परम सांति सुख रहै समाई ।
तहँ उतपात न बेधै आई ॥ ४६॥
विविध पापों से उत्पन्न जो ताप (कष्ट) हैं तथा जो दोष एवं असह्य दुःखसमूह
हैं, वे मिट जाते हैं और वह उस परमशान्ति रूप सुख
में समा जाता है कि जहाँ कोई भी उत्पात आकर प्रवेश नहीं कर सकता।॥ ४६॥
तुलसी ऐसे सीतल संता ।
सदा रहै एहि भाँति एकंता ॥
कहा करै खल लोग भुजंगा ।
कीन्ह्यौ गरल-सील जो अंगा ॥ ४७॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसे शीतल (शान्त) संत सदा इसी प्रकार
एकान्त में (केवल एक शान्तिपद रूप परमात्मा के परमपद में) ही निवास करते हैं।
जिन्होंने अपने अज्ञों को विषस्वभाव बना लिया है,
ऐसे सर्परूप दुष्ट लोग उन-(संतों) का क्या (
बिगाड़)’ कर सकते हैं ॥ ४७॥
दोहा –
अति सीतल अतिही अमल सकल कामना हीन ।
तुलसी ताहि अतीत गनि बृत्ति सांति लयलीन ॥ ४८॥
जो अत्यन्त शीतल, अत्यन्त ही निर्मल (पवित्र) तथा समस्त
कामनाओं से रहित होता है और जिसकी वृत्ति शान्ति में लवलीन रहती है, तुलसीदासजी
कहते हैं कि उसी को अतीत (गुणातीत) समझना चाहिये॥ ४८ ॥
चौपाई –
जो कोइ कोप भरे मुख बैना ।
सन्मुख हतै गिरा-सर पैना ॥
तुलसी तऊ लेस रिस नाहिं ।
सो सीतल कहिए जग माहीं ॥ ४९॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि यदि कोई क्रोध में भरकर मुख से (कठोर वाणी)
बोले और सामने ही वचन रूपी तीखे बाणों की वर्षा करे तो भी जिसको लेशमात्र भी रोष न
हो उसी को जगत में शीतल (संत) कहते हैं॥४९॥
दोहा –
सात दीप नव खंड लौ तीनि लोक जग माहिं ।
तुलसी सांति समान सुख अपर दूसरो नाहीं ॥ ५०॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि सातों द्वीप,
नवों खण्ड (नहीं-नहीं) तीनों लोक और जगत् भर
में शान्ति के समान दूसरा कोई सुख नहीं है॥ ५०॥
चौपाई –
जहाँ सांति सतगुरु की दई ।
तहाँ क्रोध की जर जरि गई ॥
सकल काम बासना बिलानी ।
तुलसी बहै सांति सहिदानी ॥ ५१॥
जहाँ सद्गुछकी दी हुई शान्ति प्राप्त हुई कि वहीं क्रोधकी जड़ जल
गयी और समस्त कामना और वासनाएँ बिला गयीं। तुलसीदासजी कहते हैं कि यही शान्ति की
पहचान है।॥ ५१॥
तुलसी सुखद सांति को सागर ।
संतन गायो करन उजागर ॥
तामें तन मन रहै समोई ।
अहं अगिनि नहिं दाहैं कोई ॥ ५२॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि जिसे संतों ने सुखदायक, शान्ति
का समुद्र और (ज्ञान का) प्रकाश करने वाला बतलाया है, उसमें
यदि कोई तन-मन से समा जाय-लीन होकर रहे तो उसे अहंकार की अग्नि किसी प्रकार नहीं
जला सकती ॥ ५२॥
दोहा –
अहंकार की अगिनि में दहत सकल संसार ।
तुलसी बाँचै संतजन केवल सांति अधार ॥ ५३॥
अहंकार की अग्रि में समस्त संसार जल रहा है। तुलसीदासजी कहते हैं
कि केवल संतजन ही शान्ति का आधार लेने के कारण (उससे) बचते हैं॥५३॥
महा सांति जल परसि कै सांत भए जन जोइ ।
अहं अगिनि ते नहिं दहैं कोटि करै जो कोइ ॥ ५४॥
जो (संत) जन महान् शान्ति रूप जल को स्पर्श करके शान्त हो गये हैं, वे
अहंकार की अग्निसे नहीं जलते, चाहे कोई करोड़ों उपाय करे॥ ५४ ॥
तेज होत तन तरनि को अचरज मानत लोइ ।
तुलसी जो पानी भया बहुरि न पावक होइ ॥ ५५॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि (उस अहङ्कार रहित संत के) शरीर का तेज
सूर्य का-सा हो जाता है, लोग (उसे देख-देखकर) आश्चर्य मानते हैं; परंतु
(शान्ति के द्वारा) जो जल (के समान शीतल) हों गया है, वह
फिर अग्नि (के समान) नहीं हो सकता (उसमें अहङ्कार का उदय नहीं होता) ॥ ५५॥
जद्यपी सीतल सम सुखद जगमें जीवन प्रान ।
तदपि सांति जल जनि गनौ पावक तेल प्रमान ॥ ५६॥
यद्यपि वह शान्तिपद शीतल है,
सम है तथा सुखदायक है और जगत में (संतोंका)
जीवन-प्राण है तथापि उसे (साधारण) जल (के समान) मत समझो, (जल
के समान शीतल होने पर भी) उसका तेज अग्नि के समान है॥ ५६॥
चौपाई –
जरै बरै अरु खीझि खिझावै ।
राग द्वेष महँ जनम गँवावै ॥
सपनेहुँ सांति नहि उन देही ।
तुलसी जहाँ-जहाँ ब्रत एही ॥ ५७॥
जो सदा (अहंकार तथा कामना की अग्रि में) जलते-बरते रहते हैं, स्वयं
क्रोध करके दूसरों को क्रोधित करते हैं और राग-द्वेष में ही अपना जन्म (जीवन) खो
देते हैं–तुलसीदासजी कहते हैं कि जहाँ-जहाँ ऐसा व्रत
है (अर्थात् जिन-जिनका ऐसा स्वभाव है) उनके शरीर में (जीवनमें) स्वप्न में भी
शान्ति नहीं होती॥५७॥
दोहा –
सोइ पंडित सोइ पारखी सोई संत सुजान ।
सोई सूर सचेत सो सोई सुभट प्रमान ॥ ५८॥
सोइ ग्यानी सोइ गुनी जन सोई दाता ध्यानि ।
तुलसी जाके चित भई राग द्वेष की हानि ॥ ५९॥
तुलसीदास जी कहते हैं कि जिसके चित्त से राग-द्वेष का नाश हों गया
है, वही पण्डित है, वही
(सत-असत का) पारखी है; वही चतुर संत है, वही
शूरवीर है, वही सावधान है; वही
प्रामाणिक योद्धा है, वही ज्ञानी है, वही
गुणवान् पुरुष है, वही दाता है और वही ध्यान-सम्पन्न है॥५८-५९॥
चौपाई –
राग द्वेष की अगिनि बुझानी ।
काम क्रोध बासना नसानी ॥
तुलसी जबहि सांति गृह आई ।
तब उरहीं उर फिरी दोहाई ॥ ६०॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि जब राग-द्वेष की अग्नि बुझ गयी, काम, क्रोध
और वासना का नाश हो गया और घर में (अन्तःकरण में) शान्ति आ गयी, तभी
हृदय में भीतर-ही-भीतर (तुरंत राम की) दोहाई फिर गयी। (फिर अन्तःकरण में अज्ञान
तथा उससे पैदा हुए काम-क्रोधादि का साम्राज्य नहीं रहा, वहाँ
रामराज्य हो गया, सर्वतोभावसे भगवान् ही छा गये।) ॥६०॥
दोहा –
फिरी दोहाई राम की गे कामादिक भाजि ।
तुलसी ज्यों रबि कें उदय तुरत जात तम लाजि ॥ ६१॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि जब राम की दोहाई फिर गयी (हृदय में भगवान्
का प्रकाश तथा विस्तार हो गया), तब कामादि (दोष उसी क्षण से ही) भाग गये, जैसे
सूर्य के उदय होते ही उसी क्षण अन्धकार लजा (कर भाग) जाता है॥६१॥
यह बिराग संदीपनी सुजन सुचित सुनि लेहु ।
अनुचित बचन बिचारि के जस सुधारि तस देहु ॥ ६२॥
सज्जनो! इस बैराग्य-संदीपनी को सावधान एवं स्थिर चित्त से सुनो और विचारकर
अनुचित वचनों को जहाँ जैसा उचित हों सुधार दो॥ ६२॥
॥ इति श्रीमद्गोस्वामीतुलसीदासकृत वैराग्यसंदीपनी संपूर्णम् ॥
॥ श्रीमद्गोस्वामीतुलसीदास कृत ‘वैराग्य-संदीपनी ‘ समाप्त
॥