चाणक्य के अनुसार सच्चे मित्र बंधु की यह पहचान है
आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रु-संकटे ।
राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः ॥
शब्दार्थ- चाणक्य के अनुसार किसी असाध्य रोग से घिर जाने पर दुःखी होने पर, अकाल पड़ जाने पर, शत्रु का भय उपस्थित हो जाने पर, अभियोग से घिर जाने पर और परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु हो जाने पर साथ निभाने वाला व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में बन्धु कहलाता है।
आचार्य चाणक्य का मत है कि संसार के प्रत्येक
व्यक्ति के कुछ बन्धु होते हैं। पर सच्चा बन्धु (सगा, अपना या घनिष्ठ) वही है जो रोगी होने
पर, दुःख पड़ने पर, अकाल पड़ने पर, शत्रु से संकट उपस्थित होने पर, राज्य सभा में एवं श्मशान में जो साथ
देता है वही सच्चा बन्धु है ।
चाणक्य के अनुसार सच्चे मित्र बंधु के कार्य
बन्धु का तो कार्य ही है कि वह कदम-कदम पर साथ
देकर ऐसा होता नहीं- कहा भी जाता है - सुख के सब साथी होते हैं, दुःख में कोई साथ नहीं देता। सच्चा
बान्धव तो वही है जो मुसीबत में भी कांधे से कांधा मिलाकर साथ दे। यदि व्यक्ति
रोगी हो गया है तो उसकी परिचर्या करने में, अकाल
पड़ने पर खुद अपना पेट मात्र भरकर बान्धव को भोजन में साथी बनाये, मुकदमा लग जाने पर राज्यसभा में और
श्मशान में, जाने के मामले में बराबर साथ दे; वही सच्चा बान्धव है।
चाणक्य के अनुसार सुख-दुःख में काम आने वाला व्यक्ति ही अपना सच्चा मित्र हो सकता है
भावार्थ- चाणक्य ने उपरोक्त श्लोक द्वारा सच्चे बन्धु की पहचान करायी है। विमर्श-अपने सुख-दुःख में काम आने वाला व्यक्ति ही अपना सच्चा मित्र हो सकता है।
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