राजस्थान के इतिहास की अन्य अभिलेखीय सामग्री | Rajsthan History Sources in Hindi - Daily Hindi Paper | Online GK in Hindi | Civil Services Notes in Hindi

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शनिवार, 13 अप्रैल 2024

राजस्थान के इतिहास की अन्य अभिलेखीय सामग्री | Rajsthan History Sources in Hindi

 

राजस्थान के इतिहास की  अन्य अभिलेखीय सामग्री

राजस्थान के इतिहास की  अन्य अभिलेखीय सामग्री | Rajsthan History Sources in Hindi


 

आमेर रिकॉर्ड जयपुर अभिलेखागार


➽ अन्य अभिलेखागार सामग्री में आमेर रिकॉर्ड जयपुर अभिलेखागार से सम्बन्धित ही हैं । यद्यपि इनमें जयपुर राजस्व से सम्बन्धित सामग्री अधिक है, फिर भी अन्य राज्यों के राजनीतिक, सामाजिक एवं प्रशासनिक इतिहास को लिखने में इसका बड़ा महत्व है। यहीं सुरक्षित पत्रों में विभिन्न राज्यों के उच्च अधिकारियों द्वारा जयपुर के अधिकारियों को लिखे गये पत्र उल्लेखनीय हैं ।


मध्य दिल्ली बादशाहों द्वारा लिखे गये फरमान

 1585 से 1799 ई. के मध्य दिल्ली बादशाहों द्वारा लिखे गये 140 फरमान, 18 मन्सूर तथा 132 निशान जयपुर रिकॉर्ड में सुरक्षित हैं। फरमान और मन्सूर बादशाह द्वारा अपने सामन्तों, शाहजादों, शासकों या प्रजा को स्वयं अन्य से लिखवाकर भेजा जाता था। इन पत्रों पर तुगरा या राजा का पंजा लगा रहता था । निशान नामक पत्र शाहजादों या बेगमों द्वारा बादशाह के अतिरिक्त अन्य को लिखे गये पत्र कहलाते थे । फरमान एक ओर राजपूत राजाओं की तत्कालीन मुगल शासन की स्थितियों से अवगत कराते हैं तो दूसरी ओर उनके जन-प्रभाव को भी इंगित करते हैं ।

 

प्रलेख राजस्थान 


  हमें अभिलेखागार में संग्रहित पुरालेख सामग्री में अन्य कई प्रकार के प्रलेख प्राप्त होते हैं । जैसा पूर्व में बताया जा चुका हैं। इनमें अर्जदास्त हस्बुलहुक्म रम्ज, अहकाम, सनद, रुक्का, दस्तक, अखबरात आदि हैं। 

  अर्जदाश्त प्रजा द्वारा बादशाहों या शाहजादों द्वारा बादशाहों को लिखे जाने वाले पत्र थे । 

  हस्बुलहुक्म बादशाही आज्ञा से सम्बन्धित थे, जो वजीर अपनी ओर से लिखता था । रम्ज तथा अहकाम बादशाहों द्वारा अपने सचिव को लिखवाई गई टिप्पणी थी, जिसके आधार पर सचिव पूरा पत्र तैयार करता था । 

  सनद नियुक्ति अथवा अधिकार हेतु प्रदान किया जाता था। रुक्का पत्र कहलाता था । परवर्तीकाल में राजा की ओर से प्राप्त पत्र को खास रुक्का कहते थे । दस्तक के आधार पर सामान एक स्थान से दूसरे स्थान पर ला ले जा सकते थे। यह आधुनिक परमिट के समान था। राज्य और दरबार की कार्यवाहियों की प्रोसिडिंग्स को अखबारात कहा जाता था। 

 

  17 वीं शताब्दी से प्राप्त खरीता नामक सामग्री शासकों के पारस्परिक पत्र व्यवहार हैं। इनका संग्रह खतूत संग्रह कहलाता है। उदाहरणार्थ, जयपुर रिकॉर्ड संग्रहित फारसी-उर्दू लिपि में लिखित खरीता संग्रह को खतूते-महाराजन (1657-1719 ई) कहा जाता है। इसी प्रकार 1712 से 1947 ई. तक के जोधपुर राज्य के संग्रहित खरीते 32 फाइलों को खतूत फाइल के रूप में जाना जाता है। खरीतों से तत्कालीन शासकों की मनोवृत्तियों का अभिज्ञान होता है। साथ ही, इनसे तत्कालीन युग की सामाजिक धार्मिक आर्थिक स्थितियों का मूल्यांकन भी होता है

 

  राजपूत राज्यों में बहियां लिखने की परम्परा मध्यकाल से ही शुरू हो चुकी थी। जिन बहियों में राजा की दैनिक चर्या का उल्लेख रहता था, उन्हें हकीकत बीहयें कहा जाता था। जिनमें शासकीय आदेशों की नकल होती थी, उन्हें हकूमत री बही, महत्वपूर्ण व्यक्तियों से प्राप्त पत्रों की नकल जिसमें रहती थी, उसे खरीता बही, विवाह आदि से संबन्धित बही, ब्याह री बही सरकारी भवनों के निर्माण से सम्बन्धित बहियाँ, कमठाना बही इत्यादि प्रकार की बहियाँ राज्य अभिलेखागार, बीकानेर में उपलब्ध हैं।

 सबसे प्राचीन बही राणा राजसिंह (1652-1680 ई) के समय की है। इस बही से राजसिंह के काल में मेवाड राज्य के परगनों की, उनकी आर्थिक आमदनी तथा अन्य प्रकार के हिसाब किताब की जानकारी मिलती है। दूसरी प्राचीन रही जोधपुर हुकुमत री वही है। इस बही का उपयोग मुगल बादशाह शाहजहाँ की बीमारी से औरंगजेब की मृत्यु तक के सन्दर्भ में महाराजा जसवन्तसिंह युगीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक स्थितियों को जानने के लिए किया जा सकता है

 

  ठिकाना दस्तावेजों में बहियों की अपनी विशिष्टता है। इन बहियों के माध्यम से त्यौहार और उन्हें मनाने की विधि, शादी आदि अवसरों पर होने वाले खर्चे तथा विभिन्न वस्तुओं के मूल्यों का लेखा-जोखा प्राप्त होता है। इनसे नगर में जातियों की संरचना, स्त्रियों की स्थिति आदि के बारे में जानकारी मिलती है इस प्रकार बहियाँ सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास के लिए महत्वपूर्ण साधन हँ। 

 


राजस्थान के इतिहास लेखन सारांश 

 

  राजस्थान के इतिहास लेखन में पुरातात्विक, साहित्यिक और पुरालेखीय स्रोत आधारभूत सामग्री प्रदान करते हैं। पुरातात्विक स्रोत विश्वसनीयपूर्ण होते हैं जबकि साहित्यिक स्रोतों से मानवीय हस्तक्षेप होने के कारण सन्देह की दृष्टि से देखे जाते हैं। पुरालेखीय सामग्री भी इसी के समकक्ष होती है । यह उल्लेखनीय है कि राजस्थान के इतिहास के स्रोतों के रूप में इस सामग्री की पर्याप्त उपलब्धता है । 

 

  आधुनिक काल के राजपूताने के प्राचीन शोधकों में कर्नल टॉड (1782-1835) पहले व्यक्ति थे । उन्होंने सैकड़ों शिलालेखों, दानपत्रों, अनेक ग्रंथों, ख्यातों तथा फारसी तवारीखों, दानपत्रों, स्मारकों और पुरातन सामग्री के आधार पर राजपूताने का एनल्स एण्टीक्वीटीज नामक जो इतिहास ग्रन्थ लिखा वह पहला और असाधारण ग्रन्थ था । टॉड ने घोडो हाथियों, ऊँटों आदि पर हजारों मील की यात्रा पर जो कार्य किया, वह उनकी असाधारण गवेषणा, अथाह परिश्रम और कुशाग्र बुद्धि का परिचय देता है । 


  टॉड के 'एनल्स' के पश्चात् ही राजस्थान के इतिहास को यूरोप, अमेरिका और हिन्दुस्तान के साक्षर बर्ग में प्रसिद्धि मिली । यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि टॉड ने अपने ग्रन्थ में भौगोलिक, इतिहासपरक समाजशास्त्रीय, धार्मिक और आर्थिक तथ्यों को प्रस्तुत कर एक मिसाल कायम की। उसने जाति की उत्पत्ति, सामन्तशाही, राजस्थान की भू-संरचना, कृषि उत्पादन, अकाल, आय-व्यय, धर्म-सम्प्रदाय, मान्यताएँ एवं विश्वास, स्थापत्य आदि विषयों का पूर्व मध्यकाल से 1820 तक का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है ।

 

  जहाँ तक टॉड के इतिहास का प्रश्न है, उसके पश्चात् राजस्थान की वीर भूमि में कतिपय ऐसे दिग्गज इतिहासकार हुए हैं जिनके शोध को राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय दर्जा प्राप्त है। इनमें वीर विनोद लेखक श्यामलदास दधवाडिया (1836-1894), गौरीश हीराचन्द ओझा (1863-1947), डॉ. दशरथ शर्मा (1903-1976), महाराजकुमार, रघुवीर सिंह (1908-1991), डॉ. गोपीनाथ शर्मा (1909-1996). डॉ. मथुरालाल शर्मा (1896-1976) अत्यन्त उल्लेखनीय है । इन महान् इतिहासकारों का राजस्था के इतिहास के पुनर्लेखन में जो योगदान है, वह चिरस्थायी है इन इतिहासकारों ने राजस्थान अथवा इसके विशेष भाग का इतिहास अत्यन्त सावधानी से लिखा तथा टॉड के इतिहास की गम्भीर गलतियों को अध्यवसाय एवं लगन से संशोधित किया।