जल में कुंभ कुंभ में जल है दोहे का हिन्दी अर्थ | Jal Me Kumb Dohe Ka Hindi Arth - Daily Hindi Paper | Online GK in Hindi | Civil Services Notes in Hindi

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गुरुवार, 23 सितंबर 2021

जल में कुंभ कुंभ में जल है दोहे का हिन्दी अर्थ | Jal Me Kumb Dohe Ka Hindi Arth

जल मैं कुंभ कुंभ मैं जल है दोहे का हिन्दी अर्थ 

जल मैं कुंभ कुंभ मैं जल है दोहे का हिन्दी अर्थ | Jal Me Kumb Dohe Ka Hindi Arth



जल में कुंभ कुंभ में जल हैबाहरि भीतरि पानी ।

फूटा कुंभ जल जलहिं समानाँयह तत कथौ गियानी ।

 

अर्थ 

  • इस सृष्टि (जल) में, (जो कि ब्रह्म का विवर्त है) कुंभ रूपी शरीर है। इस शरीर में (कुंभ में) में भी आत्मा है वह ब्रह्म ही है। इस प्रकार बाहर भीतर ब्रह्म ही है। शरीर जो कि मायारूप है उसके हटते ही ब्रह्म और आत्मा एकाकार हो जाता है। 


 

दोहे की व्याख्या 

  • इस कबीर के दोहे अर्थ यह है की उपरोक्त पंक्ति में कबीरदास के अध्यात्म का पता चलता है , वह जल और कुंभ , घड़े का उदाहरण देकर बताना चाहते हैं कि किस प्रकार शरीर के भीतर और शरीर के बाहर आत्मा का वास है , उस परमात्मा का रूप है। शरीर के मरने के बाद जो शरीर के भीतर की आत्मा है वह उस परमात्मा में लीन हो जाती है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार घड़े के बाहर और भीतर जल है। घड़ा के फूटने पर जल का विलय जल में ही  हो जाता है।

 

  • ठीक उसी प्रकार जीवात्मा शरीर से मुक्त होकर परमात्मा में लीन हो जाता है।


जल मैं कुंभ कुंभ मैं जल है दोहे की शंकराचार्य का प्रसिद्ध सूत्र है- 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरःअर्थात ब्रह्म सत्य है से समानता 


  • वैदिक साहित्य का विकास क्रमशः संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद में हुआ। इस विकास क्रम में उपनिषद अंतिम पड़ाव है, इस कारण इन्हें वेदांत भी कहा गया है। वेदांत ब्रह्म ज्ञान संबंधी विषयों का विवेचन है। यहाँ अद्वैत संबंधी विचार मिलते हैं। छंदोग्य उपनिषद में जीव को ब्रह्मस्वरूप कहा गया है। 


अद्वैतवाद का व्यवस्थित विवेचन शंकराचार्य के दर्शन में मिलता है। शंकराचार्य का प्रसिद्ध सूत्र है- 

'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः'


अर्थात ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है। ब्रह्म और जीव में कोई भेद नहीं है। ब्रह्म और जीव में जो भेद मालूम होता है वह माया के आवरण के कारण है। जगत ब्रह्म का विवर्त अर्थात भ्रामक आभास है। माया या अविद्या ब्रह्म की अनिर्वचनीय शक्ति है जो सत् पर आवरण डाल देती है तथा सत् से जीव को भ्रमित कर देती है। ज्ञान से अविद्या की निवृत्ति होती है तथा ब्रह्म और जीव के बीच माया के कारण भ्रम की जो स्थिति है वह मिट जाती है। ब्रह्म और जीव के एकत्व तथा माया के कारण उसमें आए व्यवधान को कबीर भी मानते हैं।