1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में मध्यप्रदेश में शामिल विभिन्न क्षेत्रों का रहा है ऐतिहासिक योगदान
अंग्रेजों की दासता से मुक्ति के लिए छेड़े गये
सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में मध्यप्रदेश में शामिल विभिन्न क्षेत्रों
ने ऐतिहासिक योगदान किया। उस महान संग्राम में मध्य भारत क्षेत्र के अलग-अलग
इलाकों की जनता ने त्याग और बलिदान की अविस्मरणीय कहानियाँ लिखीं। यह भी उल्लेखनीय
है कि जाति-पाँति, ऊँच-नीच का भेद भूलकर देश की जनता ने एक होकर अंग्रेजों के विरुद्ध
संघर्ष किया।
मेरठ में संग्राम की शुरुआत 10 मई, 1857 को हुई। मेरठ और उसके बाद दिल्ली
की घटनाओं से महू स्थित भारतीय सैनिकों में विद्रोह की भावना बलवती हो उठी। मेरठ
में क्रांति का विस्फोट होते ही इस क्षेत्र में सुगबुगाहट शुरू हो गयी थी। सर
राबर्ट हेमिल्टन की जगह कर्नल हेनरी ड्यूरेण्ड ने सेन्ट्रल इण्डिया में गवर्नर
जनरल के प्रथम एजेन्ट का चार्ज अप्रैल के प्रथम सप्ताह में सम्हाल लिया था। उसी
माह के अंत में ड्यूरेण्ड को समाचार मिला कि 37वीं बंगाल सेना का एक सिपाही रीवा
दरबार को एक सन्देश ले जाते हुए पकड़ा गया है। सन्देश में रीवा राजा से विद्रोह
में शामिल होने को कहा गया था।
दूर-दूर तक फैले विद्रोह के समाचारों ने
अंग्रेजों की भारतीय सेना में प्रतिरोध की भावना जाग्रत कर दी। महू स्थित गैरीजन
ने मई के दूसरे सप्ताह में इन्दौर रेसीडेन्सी पर आक्रमण करने का निश्चय किया।
उन्होंने इन्दौर स्थित सैनिकों का सहयोग प्राप्त करने के लिए गुप्त चर्चाएँ भी
कीं। 16 मई, 1857
को ड्यूरेण्ड को शक था कि महू स्थित 23वीं बंगाल सेना विद्रोह प्रारंभ कर सकती है।
अतः उसने अगले ही दिन महू से इन्दौर डाक भेजने पर रोक लगा दी। यह संदेह किया गया
था कि पत्रों में ऐसी जानकारी होगी, जो इन्दौर स्थित सैनिकों और आम लोगों
को भड़का सकती है।
इन्दौर रेसीडेन्सी के अधिकारियों को इन्दौर में
भी विद्रोह का भय सता रहा था। अतः अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए ड्यूरेन्ड ने
सीहोर से भोपाल कंटिन्जेंट सेना और सरदारपुर से मालवा भील कोर के सैनिकों को
इन्दौर पहुँचने का आदेश दिया और तीन दिनों में 20 मई को दोनों सेनाएँ इन्दौर पहुँच
गयीं। उनके आने के बाद महू के लिए डाक सेवा पुनः प्रारंभ कर दी गयी। इस प्रकार मई
का महीना आशंका और संदेह के बीच बीता, लेकिन यह निश्चित है कि अंग्रेजों
द्वारा सुरक्षा के इंतजाम करने के बाद भी इन्दौर और उसके आस-पास के क्षेत्रों में
विदेशी सत्ताधारियों के विरुद्ध विद्रोह की भावना तीव्रता के साथ फैलती जा रही थी।
जब मेरठ और दिल्ली की घटनाओं की सूचना महू पहुँची
तो केप्टन, कमाण्डिंग
महू टी. हंगरफोर्ड ने कमाण्डिंग ऑफिसर कर्नल प्लॉट से कहा कि 23वीं भारतीय सेना के
स्थान पर महू जिले के द्वार पर तोपखाने की यूरोपियन कम्पनी को तैनात किया जाये, परंतु कर्नल प्लॉट को अपने सैनिकों पर
इतना भरोसा था कि उन्होंने हंगरफोर्ड को इसकी अनुमति नहीं दी। एक बार फिर
हंगरफोर्ड के आग्रह पर तोपखाना शेड्स से निकालकर उसके सामने खड़ा कर दिया गया। छह
जून से महीने के आखिर तक तोपखाना और घोड़े चौबीसों घण्टे तैयार रखे गए ताकि
विद्रोह होने पर तत्काल उसे दबाया जा सके। हंगरफोर्ड ने 17 जुलाई को महू के किले
से बंगाल सरकार के सचिव को जो पत्र भेजा था, उसमें उपर्युक्त बातों के सिवाय अनेक
अन्य तथ्य भी थे।
24 जून को कर्नल प्लॉट ने महू में एक फ़कीर को
पकड़ा था, जिस
पर क्रांतिकारी संदेश ले जाने का संदेह था। उसे इन्दौर जेल में बंद कर दिया गया
था। 27 जून को इन्दौर स्थित ब्रिटिश फौजों के बीच अनेक भेदिए देखे गये। जून के
अंतिम सप्ताह में इन्दौर रेसीडेन्सी की सुरक्षा के लिए खान नदी के पास तैनात
इन्दौर राज्य रिसाले के 300 सैनिकों को होल्कर सेना प्रमुख बख्शी खुमान सिंह ने
चतुराई से शहर में उनकी लाइनों में वापस भेज दिया। उनमें विद्रोह की भावना की झलक
मिलने पर एहतियात के तौर पर ऐसा किया गया था। ड्यूरेण्ड को 30 जून की मध्यरात्रि
को एक व्यक्ति ने सूचना दी कि रेसीडेन्सी में अगली सुबह विद्रोह होने की संभावना
है, लकिन
ड्यूरेण्ड ने उसे दुत्कार कर भगा दिया।
पिछली रात को मिली सूचना सही साबित हुई। एक
जुलाई, 1857
को इन्दौर में सुबह ही विद्रोह भड़क गया। क्रांतिकारियों ने सुबह 8.40 बजे
रेसीडेन्सी पर आक्रमण शुरू कर दिया। विद्रोह इन्दौर की होल्कर सेना ने शुरू किया।
क्रांतिकारियों में पैदल सैनिकों की दो कम्पनियाँ और नौ पाउण्ड की तीन तोपें थीं।
ड्यूरेण्ड ने इन्दौर रेसीडेन्सी की मूल्यवान वस्तुओं को महू के किले में ले जाने
का आदेश दिया था, परंतु क्रांतिकारी सैनिकों ने, जो पहले ही विद्रोह की योजना बना चुके
थे, ऐसा
होने नहीं दिया। जिस समय आक्रमण किया गया, ड्यूरेण्ड बेखबर अपनी मेज पर बैठकर कुछ
लिख रहा था कि उसे शोरगुल सुनायी पड़ा। इतने में उसे एक संदेशवाहक से सूचना मिली।
जैसे ही वह रेसीडेन्सी की सीढ़ियों पर आया होल्कर की फौज ने तीन तोपें दागी और
भोपाल कंटिन्जेट सेना पर गोलियों की बौछार कर दी। इसी बीच कर्नल ट्रेवर्स आ
पहुँचा। उसने भोपाल सेना के 75 घुड़सवारों को विद्रोहियों से मोर्चा लेने का आदेश
दिया, परंतु
वह अचम्भे में पड़ गया जब उसने देखा कि उनमें से केवल 5 सैनिकों ने उसकी आज्ञा का
पालन किया।
इन्दौर में विद्रोह के नेता थे सआदत खान, वंश गोपाल, अर्राराव सिंह, भागीरथ, नवाब वारिस मोहम्मद खान, मौलवी अब्दुल समद आदि। इनमें सआदत खान
और वंश गोपाल की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण थी। आठ घुड़सवारों के साथ सआदत खान इन्दौर
की ओर से लाल घोड़े पर सवार चिल्लाता हुआ चला आ रहा था, 'तैयार हो जाओ, आगे बढ़ो, साहिबों को मार डालो, यह महाराजा का हुक्म है।' पैदल सेना और आम लोगों ने मिलकर दो
अंग्रेजों तथा 18 एंग्लो इण्डियन्स की हत्या कर दी। कर्नल ट्रेवर्स ने रेसीडेन्सी
बचाने की पूरी कोशिश की। होल्कर सेना के तोपचियों को भगाकर तोपों पर कब्जा कर लिया
गया और सआदत खान को घायल कर दिया, किन्तु शीघ्र ही होल्कर की पैदल सेना आ गयी और उसने तोपों पर पुनः
अधिकार कर लिया। विद्रोही सैनिक अब अपनी तोपें रेसीडेन्सी के सामने ले गये और
उन्होंने एक बार फिर गोलाबारी प्रारंभ कर दी।
के.एल. श्रीवास्तव ने "रिवोल्ट ऑफ 1857 इन
सेन्ट्रल इण्डिया (मालवा)" में लिखा है कि- तीन दिनों तक इन्दौर विद्रोहियों
के कब्जे में था। विद्रोही इन्दौर की सड़कों पर परेड करते हुए अपने नेता सआदत खान
को फौजी सेल्यूट देते थे और उसे 'नवाब सआदत खान' कहा जाने लगा था।
ट्रेवर्स ने एक बार फिर तोपखाने पर कब्जा करने
का प्रयास किया, लेकिन
वह सफल नहीं हो सका। भोपाल सैन्य दल के विद्रोही 270 सैनिकों ने अपने अधिकारियों
पर बंदूकें तान ली और उन्हें खदेड़ दिया। महीदपुर कंटेन्जेंट पैदल सेना तथा भील
कोर ने भी लड़ने से इंकार कर दिया। अंग्रेजों की हालत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा
सकता है कि रेसीडेन्सी की रक्षा के लिए अब उनके पास केवल 14 भारतीय तोपची, आठ अधिकारी, दो डॉक्टर, दो सार्जेंट तथा पाँच यूरोपियन नागरिक
थे। स्थिति निराशाजनक देख कर्नल ड्यूरेण्ड ने सिमरोल घाट होते हुए पीछे भागने का
फैसला किया। साढ़े दस बजे रेसीडेन्सी के पिछले दरवाजे से भागना शुरू हुआ। इस पलायन
में उन्हें तोपगाड़ियों और बैलगाड़ियों में बैठकर ही जाना पड़ा। उन्हें कुछ पैदल
सैनिकों का ही साथ मिल सका।
ड्यूरेण्ड ने महू से छावनी के कमाण्डिंग कैप्टन
टी. हंगरफोर्ट से फौरन सहायता भेजने का संदेश भेजा था। पत्र मिलते ही हंगरफोर्ट
रेसीडेन्सी की रक्षा के लिए फौरन रवाना हुआ। वह इन्दौर और महू के बीच राऊ पहुँचा
कि उसे ट्रेवर्स का पत्र मिला कि ड्यूरेण्ड ने रेसीडेन्सी छोड़ दी है और वह महू के
लिए सिमरोल घाट की ओर बढ़ रहा है, लेकिन उस रास्ते के आधे भाग पर क्रांतिकारियों ने कब्जा कर लिया था।
यह सुनकर भोपाल सेना के वे सैनिक जो अब भी अंग्रेजों के साथ थे, महू जाने को तैयार नहीं हुए और वे
सीहोर लौटने पर जोर देने लगे। जे. एम. नेप, जो पलायन दल में शामिल था, ने लिखा है कि वे तो उनके हाथ में कैदी
की तरह थे अतः भोपाल सैन्य दल के साथ ड्यूरेण्ड को सीहोर की ओर जाना पड़ा।
ड्यूरेण्ड तीन जुलाई को आष्टा और चार जुलाई को सीहोर पहुँचा। भोपाल की नवाब
सिकन्दर बेगम पूरी तरह अंग्रेजों के साथ थी। उसने ड्यूरेण्ड से कहा कि इस समय सारा
भारत अंग्रेजों का शत्रु है अतः उसे सीहोर न रुककर किसी सुरक्षित स्थान पर चला
जाना चाहिए। अत: ड्यूरेण्ड एक दिन ही सीहोर रुका और होशंगाबाद चला गया।
कर्नल ड्यूरेण्ड के पलायन से पूरे मध्यभारत
क्षेत्र में भय का वातावरण बन गया। मालवा के अनेक क्षेत्रों के ब्रिटिश ऑफिसर भाग
खड़े हुए। इससे आम लोगों में धारणा व्याप्त हो गयी कि मालवा में कंपनी की सत्ता का
खात्मा हो गया है। रेसीडेन्सी से अंग्रेजों के भाग जाने के बाद क्रांतिकारियों ने
रेसीडेन्सी कोषालय को लूट लिया। इस लूट में भोपाल सैन्य दल के वे सैनिक भी शामिल
हो गये, जिन
पर कोषालय की सुरक्षा का भार था। उनके बंगलों और सार्वजनिक इमारतों का यही हाल
हुआ। इस लूट में कुल नौ लाख में रुपये की राशि लूटी गयी और उसमें महू से पहुँचे
विद्रोहियों ने भी भाग लिया। इस प्रकार पहली जुलाई को रेसीडेन्सी पर ब्रिटिश
प्रभुत्व समाप्त हो गया और उस पर क्रांतिकारियों का अधिकार हो गया।
महू का विद्रोह
महू स्थित भारतीय सैनिकों में विद्रोह की भावना
उफान पर थी। केप्टन हंगरफोर्ड ने 17 जुलाई को बंगाल सरकार के सचिव को भेजे हुए
पत्र में लिखा कि एक जुलाई की सुबह करीब साढ़े आठ या नौ बजे इन्दौर की दिशा में
तोपें चलने की आवाज सुनायी दी। ग्यारह बजे कर्नल प्लॉट मेरे पास कर्नल ड्यूरेण्ड
का एक नोट लेकर आया जिसमें लिखा था 'जितनी जल्दी मुमकिन हो, यूरोपियन तोपखाना भेज दो, हम पर होल्कर का हमला हुआ है। उसी दिन
शाम को हंगरफोर्ड के बहुत आग्रह पर कर्नल प्लॉट ने यूरोपीय महिलाओं और बच्चों को
महू के किले में शरण लेने के लिए भेज दिया और तोपखाने के साथ हंगरफोर्ड किले की
सुरक्षा के लिए पहुँच गया। प्लॉट ने किले के द्वार की सुरक्षा के लिए अपनी स्वयं
की रेजीमेन्ट के पचास सैनिक भी नियुक्त कर दिये।
सुबह 23वीं पैदल सेना के मेस-हाउस को जलते हुए
देखा गया और रात 10 बजे के पहले अनेक घरों में विद्रोहियों ने आग लगा दी। रात
10.15 बजे दोनों भारतीय रेजोमेन्टों ने खुला विद्रोह कर दिया। तत्काल कोर के
अफसरों ने भागकर किले में शरण ली। उन पर घुड़सवार और पैदल दोनों सैनिकों ने
गोलियाँ चलायी। उसी समय प्लॉट किले में आया और उसने हंगरफोर्ड को तोपें बाहर
निकालने का आदेश दिया। तोपखाना बाहर निकालने में करीब 10 मिनट लगे, क्योंकि घोड़े चोटिल थे और बहुत से चालक
छोड़कर भाग चुके थे। जब तक हंगरफोर्ड तोपखाने के साथ बाहर आया, प्लॉट तथा उसका सहयोगी केप्टन फेगन जा
चुके थे।
लाइनों की ओर से तोपखाने पर गोलियाँ बरसाई जा
रही थी और परेड मैदान विद्रोही सैनिकों की गोलियों की बौछार से गूँज रहा था।
प्लांट 23वीं भारतीय सेना की लाइनों में गये। काये एण्ड मॉलेसन ने "हिस्ट्री
ऑफ सिपॉय वार इन इण्डिया" में लिखा है कि- प्लॉट सैनिकों को संबोधित कर
जोरदार तकरीर कर रहा था कि उन दोनों को गोली मार दी गयी। छर्रों से छलनी होकर वे
गिर गये। उसी समय घुड़सवार सेना का मेजर हेरिस भी मारा गया। इस बीच हंगरफोर्ड वहाँ
पहुँच गया। उसे कोई सैनिक नहीं दिखे, परंतु जलते हुए बंगले अवश्य दिखे, जिनमें अफसर रहते थे। उसने तोपों से
लाइनों पर गोलाबारी करने का आदेश दिया। परिणामतः वहाँ रहने वाले अपनी संपत्ति
छोड़कर भाग खड़े हुए, लेकिन अधिकांश अंग्रेज अधिकारियों ने किले में शरण ले ली तथापि तीन
अंग्रेज अफसर कोटन बुक्स, लेफ्टी मार्टिन और चेयरमेन पैदल भागे, लेकिन किले से 100 गज की दूरी पर
विद्रोहियों ने उन्हें पकड़ लिया और किले के भीतर खींचकर बुर्ज पर ले गये।
तीन जुलाई को पूरे महू में मार्शल लॉ की घोषणा
कर दी गयी। हंगरफोर्ड ने कुछ हथियारबन्द लोगों तथा बचे हुए सैनिक विद्रोहियों को
खदेड़ा, अनेक
लोग कत्ल कर दिये गये, अन्य पकड़े गये। उसी दिन शाम तक किले के चारों कोनों पर स्थित
बुर्जों पर तोपें चढ़ा दी गयी। साथ ही किले के उत्तरी दरवाजे पर बड़ी-बड़ी छह
तोपें तैनात कर दी गयी। फिर पाँच तारीख को सुबह अठारह पाउण्ड की चार तोप महू किले
के दक्षिणी द्वार पर रख दी गयी। उसी दिन महाराजा तुकोजीराव होल्कर द्वितीय की ओर
से होल्कर राज्य के भाऊ रामचंद्र राव रेशमवाले, होल्कर सेना के प्रमुख बख्शी खुमानसिंह
तथा महाराजा के एक अफसर केप्टन फेनविक, हंगरफोर्ड से मिलने महू के किले आये।
उन्होंने बताया कि महाराजा का अपने विद्रोही सैनिकों पर कोई काबू नहीं रहा और
उन्होंने इन्दौर में हुए विद्रोह के लिए अफसोस जाहिर किया। उन्होंने रेसीडेन्सी का
बचा हुआ खजाना महू भेजने की भी पेशकश की। सात जुलाई की सुबह हंगर फोर्ड के आदेश पर
एक विद्रोही तोपची को किले के उत्तरी दरवाजे पर फाँसी पर लटका दिया। जब फाँसी दी
जा रही थी उसी समय रेसीडेन्सी का बचा हुआ खजाना 4,16,690 रुपये और कम्पनी के 23.25
लाख के नोट महू पहुँचे। इन्हें महाराजा ने भेजा था।
महू के क्रांतिकारी इन्दौर के क्रांतिकारी
सैनिकों से जा मिले। महू में क्रांतिकारियों का मुखिया मुराद अली खान था।
क्रांतिकारी सैनिक, जिसमें महू और इन्दौर दोनों के सैनिक शामिल थे, चार जुलाई को अल सुबह तीन बजे देवास के
लिए रवाना हो गये। वे अपने साथ नौ लाख रुपये जो उन्होंने रेसीडेन्सी के खजाने से
लूटे थे, तोपें, घोड़े, हाथी, ऊँट, बैलगाड़ियाँ तथा अपना सामान ले गये।
महू के सैनिकों ने इन्दौर के कुछ विद्रोही सैनिकों को लूटे गये खजाने में
हिस्सेदार नहीं बनाया था। अतः इन्दौर के कुछ सैनिक इस विवाद के कारण वापस इन्दौर
लौट गये।
इन्दौर की क्रांति
क्रांतिकारी सेना देवास, मक्सी, शाजापुर होती हुई काली सिंध नदी पार
करके नौ दिन में 112 मील यात्रा करते हुए, 12 जुलाई को ब्यावरा पहुँची। फिर सेना
गुना, पीपल्या, बदरवास, कोलारस, सीपरी पहुँची। वहाँ क्रांतिकारी सेना
के नेता सआदत खान ने इन्दौर के एक गुप्तचर से इन्दौर के समाचार ज्ञात किये। सीपरी
से सेना 30 जुलाई, 1857 को मुरार पहुँच गयी और एक अगस्त को उसने ग्वालियर में पड़ाव
डाला। क्रांतिकारियों का इरादा ग्वालियर की विद्रोही सेना के साथ बहादुरशाह की
सेवा में दिल्ली पहुँचना था। वे दिल्ली पहुँचे भी, लेकिन वह एक अलग कहानी है।
इन्दौर-महू की क्रांतिकारी घटनाओं में बलिदान
देने वालों का स्मरण किये बिना यह उल्लेख अधूरा रहेगा। महाराजा ने विद्रोह असफल
होने के बाद एक अंग्रेज के नेतृत्व में जाँच आयोग बैठाया। आयोग के फैसले पर 21
देशभक्तों को तोप से उड़ाया गया, 11 को गोली मारी गयी, 269 को आजीवन कारावास, 61 को विभिन्न अवधि की कड़ी सजा और 31
सैनिकों को सेवा से बरखास्त कर दिया गया।
इन्दौर के दो प्रमुख क्रांतिकारी नेता सआदत खान
और भगीरथ सिलावट इस संघर्ष में शहीद हो गये। भगीरथ अपने सैनिकों के साथ दिल्ली चले
गये थे। वहाँ उन्होंने मुगल बादशाह बहादुर शाह से भेंट की थी। उनका एक पत्र महाराज
होल्कर के नाम लेकर वे वापस लौटे, लेकिन इन्दौर पहुँचने से पहले ही देपालपुर के मामलतदार ने उन्हें
साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिया। भगीरथ के पैरों में बेड़ियाँ डाल दी गयी। बाद
में देपालपुर के पास की एक पहाड़ी पर उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया।
क्रांतिकारियों का प्रमुख सिपहसालार सआदत खान
आगरा के पास अंग्रेजों से युद्ध के बाद बच निकला। पहले वह अलवर गया, फिर उज्जैन आकर अकबर खान के नाम से
गुप्त रूप से नौकरी करने लगा। फिर वह राजस्थान के बाँसवाड़ा में 13 साल तक अकबर
खान के नाम से नौकरी करता रहा। उसने एक बार फिर उज्जैन की ओर रुख लिया। जनवरी, 1874 में उसे बाँसवाड़ा के जंगल में
गिरफ्तार कर लिया गया। उसे इन्दौर लाया। गया। उस पर हत्या और देशद्रोह के आरोप में
मुकदमा चलाया गया और जैसा कि तय था, 7 सितंबर 1874 को उसे फाँसी की सजा
सुना दी गयी।
एक अक्टूबर, 1874 को इन्दौर की क्रांति के इस वीर सेनानी को फाँसी दे दी गयी। शव रेसीडेन्सी परिसर में ही दफना दिया गया। इस प्रकार 17 वर्ष अंग्रेजों की पकड़ से बाहर रहकर अंततः सआदत खान ने अपने प्राणों की आहुति दी।