पृथ्वीराज तृतीय प्रारम्भिक जीवन उपलब्धियां युद्ध विसटारवादी नीति और परिणाम । Prithvi Raaj Three History - Daily Hindi Paper | Online GK in Hindi | Civil Services Notes in Hindi

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बुधवार, 17 नवंबर 2021

पृथ्वीराज तृतीय प्रारम्भिक जीवन उपलब्धियां युद्ध विसटारवादी नीति और परिणाम । Prithvi Raaj Three History

पृथ्वीराज तृतीय प्रारम्भिक जीवन  उपलब्धियां युद्ध  विसटारवादी नीति और परिणाम 

पृथ्वीराज तृतीय प्रारम्भिक जीवन  उपलब्धियां युद्ध  विसटारवादी नीति और परिणाम । Prithvi Raaj Three History



पृथ्वीराज तृतीय प्रारम्भिक जीवन

 

  • पृथ्वीराज विजय महाकाव्य के रचयिता जयनक के अनुसार पृथ्वीराज का जन्म ज्येष्ठ की द्वादशी 1223 वि. तदनुसार 1166 ई. को गुजरात में हुआ उसकी माता चूडाकरण संस्कार के तुरन्त में पश्चात् पुनः गर्भवती हो गई और उसी वर्ष माघ शुक्ला तृतीया को उसके लघुभाता हरिराज का जन्म हुआ बुरे प्रभावों से सुरक्षित रखने हेतु उसके गले में बाघनखा व दशावतारो के चित्रों से युक्त कांठला पहनाया पृथ्वीराज विजयानुसार उसे छः भाषाओं का ज्ञान कराया गयाजो शिक्षा संस्कृति के तत्कालीन प्रसिद्ध केन्द्र अजमेर में संभव हुआ। ये भाषाएं संस्कृतप्राकृतअपभ्रंशपैशाचीमागधी व शोर सेनी होगी। उसे मीमांसाधर्मशास्त्रगणित इतिहाससैनय विज्ञान चिकित्सा शास्त्रचित्रकलासंगीत आदि का एक क्षत्रिय राजकुमार के लिए अपेक्षित ज्ञान प्रदान किया गया। साथ ही शस्त्र विद्या व धर्नुविद्या का प्रशिक्षण दिया गया। वह अपने युग का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी था। 


  • पृथ्वीराज रासो में उसकी प्रारम्भिक उपलब्धियों का विषत वर्णन है जो तथ्यात्मक आधार पर सत्य से दूर प्रतीत होता है। यद्यपि हम्मीर महाकाव्य के अनुसार पृथ्वीराज जब शस्त्रों व शास्त्रों में पारंगत हो गया तो सोमेश्वर ने स्वयं उसे सिंहासन आसीन कर दिया व स्वयं एकान्तवास में चला गयाअतः अवयस्क पृथ्वीराज को सिंहासन पर बैठा गया । उसका प्रथम शिलालेख चैत्र शुक्ल चतुर्थी 1234 वि का है। उसकी अवस्था कम होने के कारण माता कर्पूरी देवी की अध्यक्षता में प्रशासन चलाने हेतु एक संरक्षण परिषद बनीजिसमें प्रधानमन्त्री कैमारस ( कदम्भास)नागर ब्राह्मण स्कन्धवामन सोध भुक्नकमल्ल व मल्लिकार्जुन आदि गुजरात से सोमेश्वर के साथ आए थे। कैमास सर्वाधिक शक्तिशाली था जो पृथ्वीराज की अनुपस्थिति में परिषद की अध्यक्षता भी करता था ।

 

पृथ्वीराज कि प्रारंभिक उपलब्धियां

 

1. नागार्जुन का विद्रोह

 

  • नागार्जुन विग्रहराज चतुर्थ का पुत्र था जो सोमेश्वर के सिंहासन रोहण के समय नाबालिग था । सोमेश्वर की मृत्यु होने पर पृथ्वीराज को अयस्क देखकर नागार्जुन ने विद्रोह कर दिया। उसने गुडालपुरा को केन्द्र बनाकर कुछ सफलता भी प्राप्त की पृथ्वीराज धुडसवारोंऊँटसवारोंगजसेना व पैदलों की विशाल सेना सहित उसके विरुद्ध बढ़ातथा उसे दुर्ग में घेर लिया किन्तु नागार्जुन निकल भागाउसके सेनापति देव भट्ट व दुर्ग रक्षकों का मनोबल टूट गया। पृथ्वीराज ने दुर्ग पर अधिकार कर नागार्जुन की माता व पत्नी सहित परिजनों व समर्थकों को पकड़ लिया। कैदियों को अजमेर लाकर मरवा दिया विद्रोही मृतकों के मुंड अजयमेरु दुर्ग के विजयद्वार के बुर्ज पर लटका दिए ताकि आतंकित होकर लोग भविष्य में ऐसा दुःसाहस न करें। यह घटना 1178 ई. के आरम्भ में घटी। 


2. मुहम्मद गौरी का गुजरात अभियान

 

  • 1178 ई. में पश्चिमी राजस्थान व गुजरात को मुहम्मद गोरी के आक्रमण के प्रहार को झेलना पड़ाजिसने 1175 ई. ने मुल्तान व इच्छ पर अधिकार कर भारत पर आक्रमण हेतु आधार स्थल पहले ही बना लिया था। 1172 ई. में कुमारपाल की मृत्यु के पश्चात गुजरात की गद्दी पर कमजोर अजयपाल बैठा उसके बाद अवयस्क मूलराज द्वितीय गद्दी पर बैठा जिसकी संरक्षिका नावकी देवी थी। गोरी ने जब अपना अभियान आरंभ कियासमय उसके अनुकूल थाअजमेर व गुजरात के राजा अवयस्क थे।
  • मुहम्मद गोरी मुल्तान से बढ़कर भाटियों की प्राचीन राजधानी लोगवा पर टूट पड़ा व उसे नष्ट कर दिया। अब्दुल रज्जाक के अनुसार वह मुल्तान से बीकामपुर होकर आगे बढ़ाफलौदी तहसील के खिचंड गाँव के मार्ग से नाडोल व जालोर होते हुए आबू की ओर बढ़ा। लोद्रश से आबू तक के मार्ग में किराडू ओसियाँ साँडेराव नाडोल व कसिन्द्रा के मन्दिरों को नष्ट करता गया। इस अभियान के दौरान गौरी ने पृथ्वीराज के दरबार में संदेश वाहक भेजकर वार्षिक कर देने व अधीनता स्वीकार करने की मांग कीजिसे चौहान नरेश ने ठुकरा दिया। 
  • पृथ्वीराज विजय के अनुसार गौरी द्वारा नाडोल के घेरे का समाचार सुनते ही पृथ्वीराज ने सैनिक सहायता भेजने का विचार कियाकिन्तु कैमास ने तटस्थ रहने का निश्चय किया। 
  • गौरी की सेनाएं आबू के पास खसीन्द्रा नामक स्थान पर पहुँच गई जहाँ गुजरातमारवाड व आबू की संयुक्त सेनाओं ने रानी नावकी देवी के नेतृत्व में गोरी को निर्णायक पराजय दी गोरी की इस पराजय से अजमेर व गुजरात की स्वतंत्रता अगले बारह वर्षों के लिए सुरक्षित हो गई ज्यों ही गोरी की सेनाएं लौटी चौहान शासक ने अपनी पश्चिमी सीमाओं की सुरक्षा अवस्था को सक्रिय किया व शत्रु द्वारा तोड़े गए लगभग सभी मन्दिरों का जीणोंद्धार करायासाथ ही फलौदी पर अधिकार कर लिया ।

 

भांडानकों के विरुद्ध अभियानः

 

  • भांडानक चौहानों के उत्तर पूर्व में निकटस्थ पडौसी थे। यद्यपि उनके वास्तविक क्षेत्र का विवरण तो नहीं मिलता किन्तु वे वर्तमान अलवर क्षेत्र (मेवात) व हरियाणा के सटे हुए भू भागों के निवासी थे पासन्द चारलू ग्रंथानुसार उनका क्षेत्र हरियाणा था। 
  • काव्य मीमांसानुसार उनकी बोली अपभ्रंश थी। सकल तीर्थ स्त्रोतानुसार ये कन्नौज व सपालदक्ष (चौहान राज्य) के मध्य थे विग्रहराज चतुर्थ के काल से ही दिल्ली चौहानों के अधीन थी। किन्तु भांडानक शायद दिल्ली व सपालदक्ष के मध्य बाधा थेसाथ ही शायद उन्होंने विद्रोहीं नागार्जुन को समर्थन भी दिया था। 
  • पृथ्वीराज के अवयस्क होने का लाभ उठाते हुए उन्होंने सिर उठाया। किन्तु पृथ्वीराज ने सेना लेकर इन पर प्रहार कर उन्हें कुचल दिया। यह अभियान 1239 वि. अर्थात् 1182 ई. के लगभग किया गया इसके साथ ही इनकी शक्ति पूर्णतया समाप्त हो गई इनके पश्चात इनका विवरण नहीं मिलता इस विजय का उल्लेख जिनपति सूरी व पद्यप्रमु के अजमेर में हुए शास्त्रार्थ के समय मिलता है ।

 

पृथ्वीराज की दिग्विजय

 

दिग्विजय का अर्थ है एक विस्तारवादी व योद्धा राजा द्वारा अपने राज्य के चारों ओर अर्थात सभी दिशाओं में स्थित राजायों के नरेशों को परास्त कर अपनी शक्ति का लोहा मनवाना । चौहान सम्राटों की इस चली आ रही परम्परा का विग्रहराज चतुर्थ के पश्चात पृथ्वीराज ने भी अनुसरण किया। 


1. बुन्देलखण्ड पर आक्रमण

 

  • भांडानकों की शक्ति को समाप्त कर पृथ्वीराज ने अपनी दिगविजय नीति का अनुसरण करते हुए सर्वप्रथम बुन्देल खण्ड के परमार दी चंदेल पर आक्रमण किया। डॉ. दशरथ शमी के अनुसार चौहान सम्राट सेना सहित अजमेर से रवाना होकर अपनी सेना के केन्द्र नरैना पहुँचा वहाँ से इस अभियान पर अग्रसर हुआ डॉ. आर. बी सिंह के अनुसार पृथ्वीराज रासो के महोबाखण्ड तथा जयनक के आल्हा खंड में इसका कल्पना प्रधान काव्यात्मक विस्तृत वर्णन हैइनके अनुसार पृथ्वीराज जब सामेता से दिल्ली लौट रहा था तो उसके कुछ घायल सैनिक बुंदेल खण्ड की सीमा में चले गए थे उन्हें चंदेल राव ने गरबा दिया इससे पृथ्वीराज क्रोधित हो गया वास्तव में पृथ्वीराज की दिग्विजय नीति ही मुख्य कारण थी पृथ्वीराज की विशाल सेना बुंदेल खण्ड में प्रशिष्ठ हो गई। परमारदी देश का वीर सेनापति मलखान मारा गया तो उसने कन्नौज से अपने नाराज बनफरा वीर आलहा व ऊदल को बुलाया कन्नौज नरेश ने भी चौहान शक्ति को तोड़ने हेतु इनके साथ सैनिक सहायता भेजी। चौहान सेना ने अपने प्रहारों से चंदेल शक्ति को नष्ट करते हुए महोबा व कालिंजर आदि अपना अधिकार कर लिया आल्हा व ऊदल भी मारे गए । आखिर शारंगधर पद्धति व प्रबन्ध कोष के अनुसार परमारदी देव ने दाँतों के मध्य तिनका दबाकर पृथ्वीराज से शान्ति की याचना की। चौहान सेना चंदेलों के भू भाग को उजाइकर तथा लूटपाट कर वापस अपनी राजधानी लौट आई। 1201 ई. के मदनपुर अभिलेख ले अनुसार उसने हुए अपने भू भागों पर पुन अधिकार कर लिया। 


2. पृथ्वीराज व गुजरात

 

  • भले ही सोमेश्वर सिद्धराज जयसिंह का दोहित्र व कुमारपाल चालुक्य का भान्जा थाकिन्तु गुजरात के चालुक्य व सपालदक्ष के चौहान परमपरागत शत्रु थे। रासो के अनुसार पृथ्वीराज के आबू के परमार राजा की पुत्री इच्छन कुमारी के विवाह सेजिससे गुजरात का भीमदेव करना चाहता थाशत्रुता फूट पड़ी। दूसरे रासो के अनुसार पृथ्वीराज के चाचा कन्ह चौहान ने भीमदेव के चाचा सारंदेव के सातपुत्रों की हत्या कर दी थी। इन कारणों से भीमदेव ने कुपित होकर चौहान राज्य पर आक्रमण कर पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर को मार डाला व नागोर पर अधिकार कर लिया। क्रोधित पृथ्वीराज ने भीमदेव को युद्ध में हराकर मार डाला किन्तु तथ्यात्मक दृष्टि से उपर्युक्त विवरण मिथ्या है। सोमेश्वर स्वाभाविक मौत से मरा व भीमदेव 1241 ई. से 1243 ई. के मध्य में स्वर्गवासी हुआ अभिलेखों के अनुसार दोनों पक्षों में युद्ध अवश्य हुआ । प्रहलाद देह रचित पार्थ पराक्रम व्यायोग के अनुसार आब के धारा वर्ष परमार ने जो चालुक्य सामन्त थाने चौहान आक्रमण को विफल कर दिया था। जिनपति सूरी की खरतर गच्छ पट्टावली के अनुसार यह युद्ध 1187 ई. से पूर्व समाप्त हो गया के अनुसार चालुक्य प्रधानमंत्री जगदेव प्रतिहार जिसे चौहान सम्राट के हाथों पर्याप्त हानि उठानी पड़ी । इस ग्रंथ थीपुनः उसे ( पृथ्वीराज) को नाराज नहीं करना चाहता था। जगदेवपृथ्वीराज की कमल समान रानियों के लिए चन्द्रमा था अर्थात उनके सुख का शत्रु था। (वीरावल अभिलेख) बीकानेर क्षेत्र से प्राप्त चालू अभिलेखानुसार आहड व अम्बारख नामक गोहिल चौहान 1241 वि. (1184 ई) में नागोर के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे। इससे स्पष्ट है कि नागौर में चालुक्यों व चौहानों का संघर्ष अवश्य हुआ जिसमें पृथ्वीराज ने निर्णायक विजय प्राप्त की तथा चालुक्य आक्रमणकारियों को चौहान क्षेत्र में प्रविष्ठ होने का कुपरिणाम भुगतना पड़ा। 

 

पृथ्वीराज व कन्नौज के गहड़वाल

 

  • पृथ्वीराज अपने सभी पड़ोसियों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात कन्नौज नरेश जयचंद गहडवाल पर भी अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने को आतुर था। जयचन्द गहडवाल भी पृथ्वीराज की भांति उत्तर भारत में स्वयं को सर्वशक्तिशाली सिद्ध करना चाहता था। रंभा मंजरी व प्रबंध चिन्तामणि के अनुसार वह विशाल सेना का अधिपति होने के कारण दल पुगव कहलाता था। दोनों ही पक्षों में दिल्ली संघर्ष का कारण थी। अजमेर के चौहानों की नवोदित शक्ति विग्रहराज चतुर्थ के समय से ही गहडबालो के लिए चुनौती बन गई थी जब शायद विग्रहराज चतुर्थ ने विजय चंद गहडूवाल को परास्त कर दिल्ली पर अधिकार किया था। जयचंद अपने पिता के इस अपमान को धोने के लिए आतुर था। ताजुल मासिर के अनुसार पृथ्वीराज व जयचंद दोनों ही विश्व विजय के सपने ले रहे थे। दोनों की शत्रुता का बोध पुरातन प्रबन्ध ग्रंथ से भी होता है जिसमें कहा गया है कि गोरी के हाथों पृथ्वीराज की पराजय व अंत होने पर गहड़वाल राजा ने आनन्दोत्सव मनाया ।

 

  • दोनों के मध्य शत्रुता का तत्कालीन कारण यदि पृथ्वीराज रासो के विवरण को मानें तो पृथ्वीराज द्वारा जययंन्द्र की पुत्री संयोगिता का अपहरण कर उससे विवाह करना था। रासो में इससे संबंधित विवरण जो बढ़ा चढ़ा कर किया गया हैऐतिहासिक कसौटी पर खरा नहीं उतरताकिन्तु इसे पूर्णतया ठुकराने का साहस भी इतिहासकार नहीं कर सकते हैं। 


  • जयचन्द ने अपने दिग्विजय अभियान को आरम्भ करने हेतु राजसूय यज्ञ व संयोगिता के स्वयंवर का आयोजन किया। किन्तु पृथ्वीराज ने यज्ञ विध्वंस करते हुए संयोगिता का अपहरण कर जयचन्द को अपमानित कर दिया। संयोगिता की कहानी केवल पृथ्वीराज रासों में ही है। सोलहवी सदी में चारणों व भाटों ने इस कहानी को लोकप्रिय बना दिया व अबुल फजल ने भी इसे विवेचित कर दिया। किन्तु रंभा मंजरी में इस घटना का उल्लेख नहीं है।

 

  • ऐसा लगता है यह घटना शायद तराइन के दोनों के मध्य घटी। रासो के अनुसार इस आयोजन में जयचन्द ने पृथ्वीराज को आमंत्रित न कर अपमानित करने हेतु उसकी स्वयंवर मंडप के द्वार पर प्रतिमा लगदा दी संयोगिता वरमाला लेकर आई व सभी उपस्थित राजाओं को उपेक्षित करते हुए वरमाला पृथ्वीराज की मूर्ति के गले में डाल दीपृथ्वीराज उसे उठाकर ले भागा। उसके सामन्तों ने कन्नौज से सपालदक्ष तक मोर्चे बांधकर गहड़वाल सेनाओं को रोका। अनेक चौहान वीर योद्धा व सैनिक इस संघर्ष में मारे गए। संयोगिता से विवाह कर पृथ्वीराज विलासी बन गया व उत्तर पश्चिमी सीमा की सुरक्षा व्यवस्था के प्रति जागरूक नहीं रह सका।


पृथ्वीराज की दिग्विजय नीति के परिणाम

 

1.दिग्विजय का अनुसरण करते हुए पृथ्वीराज तृतीय ने सभी पड़ौसियों को परास्त कर चौहान की सत्ता का वर्चस्व स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। 

2. एक सेनापति व योद्धा के रूप में पृथ्वीराज ने उत्तर भारत में अपनी धाक जमा दी।

3. पृथ्वीराज की सीमाएं अब सीधे तुर्का से टकराव की स्थिति में आ गई जो शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी के नेतृत्व में मुल्तान, उच्छ व पंजाब के अधिपति बन चुके थे व उत्तर भारत विजय हेतु प्रयत्नशील थे। 

4. इन युद्धों में जो पृथ्वीराज तृतीय की दिग्विजय नीति के परिणामस्वरूप हुए चौहानों को भी पर्याप्त जनधन की हानि उठानी पड़ी । 

5. अब उत्तर भारत में सभी पृथ्वीराज के शत्रु थे, उनका मित्र कोई भी नहीं रहा। अतः पृथ्वीराज को अकेले ही तुर्कों से लड़ना पड़ा।  

6. उस समय सभी उत्तर भारतीय नरेश देश भक्ति व राष्ट्रवाद की भावना से अनभिज्ञ रहे, दे बाह्य शत्रु के विरुद्ध भी एक होने की आवश्यकता महसूस नहीं कर सके ।