पृथ्वीराज व मुहम्मद गोरी का संघर्ष कारण परिणाम एवं मूल्यांकन
1. पृथ्वीराज व गोरी की महत्वकांक्षा
- पृथ्वीराज अपने ताऊ वीग्रहराज चतुर्थ की भाति भारत को तुर्की के आतंक से मुक्त कर हिन्दू धर्म संस्कृति गऊ व ब्राह्मणों की रक्षा करने हेतु कटिबद्ध था तो गोरी भी इस्लाम धर्म की भारत में स्थापना करने व मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना करने के निश्चय पर दृढ़ था.
2. पृथ्वीराज व गोरी का सीमाओं पर टकराव
- 1188 ई. में गोरी द्वारा पंजाब पर अधिकार करने के साथ ही चौहानों व तुर्की के मध्य सीमाओं पर टकराव आरम्भ हो गया ।
3. उत्तर भारत के राज्यों में फूट
- गोरी ने अपने गुप्तचरों से उत्तर भारत की स्थिति का पर्याप्त अध्ययन कर लिया था। गुजरात अभियान के समय चौहानों की चालुक्यों के प्रति उदासीनता तथा जम्मू के चंद्रदेव द्वारा पहले खुसरो मलिक व बाद में पृथ्वीराज के विरुद्ध गोरी की सहायता से गोरी का मनोबल बढ़ गया। अजमेर के चौहानों की कन्नौज के गहड़वालों व बुन्देल खंड के चंदेलों तथा गुजरात के चालुक्यों से शत्रुता ने गोरी को उत्साहित किया।
4 राजपूतों व तुर्की में परम्परागत शत्रुता
- तुर्क आक्रमणकारियों व राजपूतों में प्रारम्भ से ही शत्रुता रही, क्योकि धर्म व संस्मृति की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध राजपूत तुर्क आक्रमणकारियों को इस्लाम के नाम पर भारत पर अधिकार करने रोकने के लिए प्रतिबद्ध थे। चौहान प्रारम्भ से ही अफगानिस्तान, मुल्तान व लाहौर से होने वाले तुर्क आक्रमणों को रोकते रहे थे । पृथ्वीराज प्रथम अजयराज, अर्णाराज व विग्रहराज चतुर्थ इस अभियान में सफल भी रहे । पृथ्वीराज तृतीय के काल में यह परम्परागत शत्रुता चरम सीमा पर पहुँच गई ।
पृथ्वीराज व मुहम्मद गोरी का संघर्ष
- जब 1187 ई. में चौहानों व गोरी की सीमाएं टकराने लगी तो परस्पर सैनिक संघर्ष भी आरम्भ हो गए। बार-बार मुस्लिम आक्रमणकारी आते थे व चौहान वीर उन्हें भारी नुकसान पहुँचाते थे व भागने को बाध्य कर देते थे। भारतीय लेखक इन सीमा संघर्षो को बढ़ा चढ़ा कर विवेचित करते थे, तो पराजित तुर्क इन पराजयों की पूर्ण उपेक्षा करते थे। इस समय पृथ्वीराज की शक्ति भी विभाजित थी। चालुक्यों चंदेलों व गहड़वालों से शत्रुता के रहते वह अपने पूर्ण सैन्य बाल का तुर्की के विरुद्ध प्रयोग करने की स्थिति में नहीं था ।
- साहित्यिक रचनाओं में पृथ्वीराज व गोरी के युद्धों की संख्या बढ़ा चढ़ा कर दी गई है। रासो के अनुसार दोनों में इक्कीस बार युद्ध हुए। हम्मीर महाकाव्य के अनुसार पृथ्वीराज ने गोरी को सात बार परास्त किया तथा सुर्जन चरित के अनुसार चौहानों ने गोरी को इक्कीस बार परास्त किया ।
- डॉ जी. एन. शर्मा के अनुसार पंजाब, सिन्ध व राजस्थान की सीमाओं पर दोनों पक्षों में टकराव चलता ही रहा, इन्हें सीमान्त संघर्षो की संज्ञा दी जा सकती है। दोनों ओर के इतिहासकारों ने तराइन के प्रथम (1191 ई) व तराइन के द्वितीय युद्ध (1192 ई) का विस्तृत विवरण दिया है जो निर्णायक सिद्ध हुए.
तराइन का प्रथम युद्ध (1191 ई)
- इस युद्ध विवरण पृथ्वीराज रासो, पृथ्वीराज प्रबन्ध व प्रबन्ध चिन्तामणि जैसे भारतीय ग्रन्थो में मिलता है, तो दूसरी ओर हसन निजामी रचित ताजुलमासि, मिनहास उस सिराज रचित तबकात-ए-नासिकी, फरिश्ता रचित तारीखे फरिश्ता व मुहम्मद ऊफी के ग्रन्थ जीमउल हिकायत नामक तुर्क ग्रन्थों में मिलता है।
- मिन्हास के अनुसार अनिर्णायक संघर्षा को देखते हुए गजनी के सुल्तान ने पूर्ण सैनिक तैयारी के साथ अजमेर के चौहानों के विरुद्ध प्रयाण किया। वह गजनी से लाहौर आया व पूर्णतया तैयारी कर वह आगे बढ़ा व उसने तबरहिन्द के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इस दुर्ग को बाद के इतिहासकारों ने सरहिन्द लिखा है।
- फरिश्ता इसे याटिन्हा लिखता है। यहाँ उसने काजी जियाउद्दीन तुलक को 1200 तलुक घुड़सवारों के साथ इस आदेश के साथ नियुक्त किया कि वे अगले आठ महिनों तक दुर्ग की हर की मत पर रक्षा करे जब तक वह पुनः वापस न आ जाएं इसके पश्चात गोरी वापस लौटने लगा तो उसे समाचार मिला कि राय कोला पिथोरा (पृथ्वीराज तृतीय) विशाल सेना लेकर बढ़ा चला आ रहा था।
- गोरी भी आगे बढ़ा। हरयाणा के कर्नाल जिले में स्थित तराइन के मैदान में दोनों पक्षों का आमना सामना हो गया। 1191 ई. की सर्दियों के आरम्भ में हुए इस युद्ध में पहल चौहान ने की। चौहानों के तीव्र प्रहार से तुर्कों के दाएं बाएं व हरावल पक्षों में भगदड़ मच गई। केन्द्र में स्थित गोरी के खिलजी रक्षक भी भाग निकले। गोरी उन्हें रोकने का प्रयास करने लगा व स्वयं डटा रहा तभी दिल्ली के सामन्त गोविन्द राज पर भाला फेंका जिससे गोविन्द राज के सामने के दांत टूट गए। इससे मची रेल पेल में गोरी लगभग क्षेत्र में गिर ही किन्तु एक युवा खिलजी सैनिक उसे अपने घोड़े पर डालकर युद्ध क्षेत्र से निकाल कर भागने में सफल हो गया।
- युद्ध क्षेत्र से परास्त होकर भागे तुर्क सुलान को ने पाकर चिन्तित थे, उसी समय टूटे शस्त्रों के साथ आहत सुलान पालकी में पहुँचा। सुलान की सेना एकत्र होकर सुलतान सहित गजनी चली गई।
- पुरातन आदर्शों के पालनार्थ पृथीराज ने भागते शत्रु का पीछा नहीं किया, जो भंयकर मूल सिद्ध हुई। डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार यह भारतीय स्वतंत्रता के कफन में कील सिद्ध हुई। पृथ्वीराज की यह अन्तिम सफलता थी ।
तराइन के दूसरे युद्ध से पूर्व की स्थिति
- तुर्की पर हुई इस विजय से पृथ्वीराज स्वयं को अजेय समझ बैठा । यदि रासो पर विश्वास करें तो वह जयचन्द की पुत्री संयोगिता का अपहरण कर लाया कन्नौज व अजमेर के मध्य गहड़वाल सेना को रोकने में उसकी सैन्य शक्ति कमजोर हो गई। उधर शत्रु दरवाजे पर था 'पृथ्वीराज को गोरी ताक रहा था, बह (पृथ्वीराज) गोरी सुख में रत था। चौहान वर्ष मार में काजी जियाउद्दीन से बड़ी कठिनाई से तबर हिन्द खाली करा सके व जियाउद्दीन को ससम्मान मुक्त कर दिया गया.
- उधर मुहम्मद गोरी अपनी पराजय से स्वयं को लज्जित महसूस करते हुए सेना सहित गजनी लौटा। उसने अपने सैनिकों व अधिकारियों को रण क्षेत्र छोड़कर भागने के लिए धिक्कारा सुलतान कुछ समय के लिए अपने भाई गयासुद्दीन के पास गोर (फिरोज कोह) चला गया व आत्म बल व मन मंथन कर पुन: गजनी लौटा ब तैयारियों में जुट गया। बदले की आग में जलते हुए गोरी ने 120000 चुने हुए तुर्क ताजिक व अफगान सैनिक तैयार किए जो शिरस्त्राणों व बख्तरों सयुक्त थे। वह गजनी से भारत की ओर बढ़ा। पेशावर पहुँचने पर एक वृद्ध फकीर ने उसके इरादे के बारे में पूछा तो उसने कहा हिन्दुस्तान में अपनी पराजय के बाद मैं चैन से सोया न जागा, दुखी ही रहा, अतः मैं मूर्ति पूजकों को परास्त किए बिना चैन नहीं लूंगा। उसने काह "मैने जैसा कि फरिश्ता ने लिखा है अपने वस्त्र तक नहीं बदले है, मैं दुख व क्रोध में जल रहा हूँ अपनी पत्नियों से भी अलग रहा हूँ । पेशावर से वह लाहोर आया जहाँ जम्बू काराजा विजय राज सेना सहित उससे आ मिला। अपनी स्थिति दृढ़ कर गोरी ने अपने दूत किवा-उल-मुल्क रुकनुद्दीन हमजा को लाहौर से पृथ्वीराज के दरबार में एक पत्र सहित भेजा, जिसमें पृथ्वीराज से अधीनता स्वीकार करने व इस्लाम कबूल करने की मांग की। पृथ्वीराज ने उत्तर दिया इसी में भलाई है कि वह वापस गजनी लौट जाए अन्यथा उसे नष्ट कर दिया जाएगा.
- पृथ्वीराज ने अपने सामन्तों व मित्रों से तुरन्त सेना सहित एकत्र होने का आहवान किया । फरिश्ता के अनुसार शीघ्र ही 30,000 अश्वारोही, 3,000 हाथी व पर्याप्त पैदल सेना लेकर पृथ्वीराज के झंडे के नीचे 150 राजपूत राजा व उनकी सेनाएं थी। सबने गंगाजल हाथों में लेकर अन्तिम समय तक लडने व तुर्क आक्रमणकारी के संकट को सदा के लिए समाप्त करने की सौगन्ध खाई पुनः सुल्तान को लौट जाने की चेतावनी दी। चौहानों की तलवारों की धरा का स्वाद ले चुके सुल्तान ने अब कपट मार्ग अपनाया । उसने उत्तर दिया यह भारत पर आक्रमण करने हेतु अपने बड़े भाई के आदेश से आया है, उसके आदेश का पालन करने हेतु वह वचनबद्ध है। उसके आदेश बिना वह लौट नहीं सकता। क्यों न हम उसका उत्तर आने तक युद्ध विराम बनाएं रखें। 'षडयन्त्रकारी गोरी की चाल में राजपूत फंस गए वे उसकी बात पर विश्वास करते हुए बेपरवाह हो भोजन आदि ते व्यस्त हो कर आनन्द के साथ रात्रि व्यतीत करने लगे। यही रात्रि चौहानों व भारत की स्वतंत्रता की काल रात्रिसिद्ध हुई प्रात पौ फटते ही उन्हें मौत को गले लगाने के लिए बाध्य होना पड़ा। मोहम्मद कफी के अनुसार संदेह न होने देने के लिए गोरी ने अपने डेरे पर मशालें जलाए रखी व स्वयं सेना सहित दूर जाकर चौहानों को घेरने में सफल हो गया। अपनी मुख्य सेना व सामग्री आदि दूर सुरक्षित स्थान पर छोड़ दी। दस-दस हजार के घुडसवारों के चार दस्ते पौ फटते ही चौहानों पर चारों ओर से टूट पड़े व झपट्टे मारने लगे।
- पृथ्वीराज गहरी नींद में सो रहा था। चौहान प्रातः कालीन नित्य कार्यों में व्यस्त थे । इस अचानक प्रहार से वे भौंचक्के रह गए। फिर सम्भल कर लड़ने लगे। चौहान सेना का अनुशासन उसकी व्यूहरचना व व्यवस्था बिखर गई। ऐसे में गोरी ने मुख्य सेना लेकर प्रहारकिया। गोरी के हाथों गोविन्दराज मारा गया । उसके टूटे दाँतों से उसके शव की पहचान हुई।
- युद्ध के उत्तरार्ध का नेतृत्व पृथ्वीराज ने किया पराजय सिर पर देखकर वह युद्ध क्षेत्र से भागा, किन्तु सरस्वती के समीप पकड़ा गया। उसे अजमेर लाया गया । जहाँ उसने परिस्थितिवश गोरी की अधीनता स्वीकार कर ली। अतः अल्कापुरी के समान सुन्दर अजमेर नगरी को तुर्कों ने लूट कर बर्बाद कर दिया। मन्दिर तोडे गए । हजारों ऊँटों पर लाद कर अजमेर की सम्पदा गोर भेज दी गई। शीघ्र ही हाँसी, सरस्वती कोहराम व समाना आदि पर भी तुर्कों का अधिकार हो गया। पृथ्वीराज द्वारा गोरी की अधीनता की पुष्टि थॉमस को मिले उसके सिक्के से होती है, जिस पर मुहम्मद बिन साम व नीचे राय पिथोरा लिखा है ।
पृथ्वीराज का अंत
- तराइन के क्षतीय युद्ध ने भारत को अगले सात सौ वर्षा तक तुर्क दासता की जंजीरें पहना दी ऊफी व निजामी के अनुसार पृथ्वीराज को कैद कर लिया गया। निजामी लिखता है पृथ्वीराज ने कुछ समय के लिए अपनी मौत को टाल दिया किन्तु मुसलमानों के प्रति उसकी घृणा प्रबल थी, अतः उसने एक षड्यन्त्र किया। इस षड्यन्त्र की जानकारी लेखक नहीं देता किन्तु इसके खुल जाने से गोरी ने उसका सिर कलम करवा दिया.
- मिन्हाज के अनुसार "युद्ध से भागते हुए पृथ्वीराज को पकड़कर उसकी हत्या कर दी गई ऐसा ही फरिश्ता का भी विचार है। रासो का विवरण जिसमें गोरी पृथ्वीराज को गजनी ले गया अविश्वसनीय है। प्रबन्ध चिन्तामणि के अनुसार गोरी पृथ्वीराज को कैद कर अजमेर लाया उसे द्वारा स्वीकार करा कर अजमेर का राज्य उसी को दे देने का इच्छुक था किन्तु पृथ्वीराज की चित्रशाला में गऊ भक्षण करने वाले मलेच्छों को सूअरों द्वारा मारते हुए दिखाया गया था। यह देख गोरी ने उसकी हत्या करा दी जो भी हो पृथ्वीराज की हत्या अजमेर में ही की गई।
पृथ्वीराज चौहान की गोरी से पराजय के कारण
- 1. विरुद्ध विधिविध्वंस पृथ्वीराज प्रबन्ध व चिन्तामणि ग्रन्थों के अनुसार पृथ्वीराज विलासिता में डूब गया कर्तक पालन से विमुख हो गया अतः पराजय स्वाभाविक थी।
- 2. डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार वह युद्ध काल में गोरी की तुलना में कुछ न्यून था । गोरी की सेना चौहानों की तुलना में उन्नत शास्त्रों, प्रशिक्षण, वेशभूषा से सज्जित व मध्य एशियायी युद्ध कला में दक्ष थी। राजपूत केवल अप्रशिक्षित योद्धा थे, जो मारना जानते थे, लडना नहीं ।"
- 3. मुहम्मद गोरी ने विजय प्राप्ति हेतु साम, दाम, दण्ड भेद की सभी नीतियों को अपनाया । कूटनीति व षड्यन्त्र में वह दक्ष था। भोले भाले राजपूत उसकी शान्ति याचना के जाल में फंस कर अपना नाश कर बैठे ।
- 4. पृथ्वीराज की दिग्विजय नीति ने सभी पड़ोसियों को उसका शत्रु बना दिया। आपत्ति के समय कोई भी सहायता हेतु नहीं आया। हिन्दू एकता व राष्ट्रवाद का अभाव था। जम्मू का विजयराज गोरी से मिल गया व कन्नौज के गहड़वालों ने पृथ्वीराज की पराजय का समाचार सुन दीपावली मनाई।
पृथ्वीराज का मूल्यांकन
- चौहान सम्राटों की परम्परा में सोमेश्वर के वीर पुत्र पृथ्वीराज ने चौहान शक्ति व विस्तार को चरम सीमा पहुँचाते हुए एक पराक्रमी सैनिककुशल सेनानायक, योग्य प्रशासक व श्रृंगारप्रिय, रसिक, विद्वानों के संरक्षक, कलाकारों के आश्रयदाता के रूप में तत्कालीन भारतीय रंग मंच पर अपनी भूमिका का निर्वाह किया। उसके दरबार में जयनक काश्मीरी, विद्यापति गौड बागीश्वर, जनार्दन, विश्वरूप, पृथ्वी भट्ट व चन्द वरदाई साहित्य व काव्य के रत्नों विद्वानों व पंडितों के धार्मिक व दार्शनिक शास्त्रार्थो का आयोजन पद्मनाभ नामक मंत्री करता था। इसलिए डॉ. दशरथ शर्मा ने उसे प्रीतभावना व वीर तथा अपने समय का श्रेष्ठतम तीरंदाज माना है ।
- उसने दिग्विजय नीति अपनाकर विजय प्राप्ति व विस्तार के आयाम मले ही स्थापित कर लिए किन्तु अपने चारों ओर शत्रुओं का जाल स्थापित कर लिया, यह उसकी अदूरदर्शिता व अपरिपक्वता का परिचायक है । यदि वह सभी पडोसी राजाओं के साथ मैत्री व सद्भाव अपनाता तो अवश्य ही तुर्क शक्ति को परास्त करने हेतु सबका सहयोग प्राप्त कर भारत को तुर्क दासता से बचाने में सफल हो जाता । 1178 ई. में यदि वह गुजरात के चालुक्यों की सहायता करता तो तुर्क शक्ति को पूर्णतया नष्ट कर देता। इसके लिए उसकी अवयस्कता व तत्कालीन सामन्तवादी परिस्थितियां अधिक उत्तरदायी थी । किन्तु यह मूल डॉ. दशरथ शर्मा के शब्दों में भारतीय स्वतंत्रता के कफन में पहली कील सिद्ध हुई। 1191 ई. में तराइन के प्रथम युद्ध में शत्रु को परास्त कर उसका पीछा कर उसे नष्ट न करना उसकी दूसरी मूल सिद्ध हुई। 1192 ई. में वह अपनी भूलों के कारण शत्रु से लडने की पूरी तैयारी ही नहीं कर पाया, फिर गोरी की बातों का विश्वास करने की भूल कर उसने अपने पूर्ण नाश का ताना बाना स्वयं ही बुन लिया। वीर भोग्या वसुन्दरा की बात तो सही है किन्तु उसके साथ जिस चतुराई व दक्षता की आवश्यकता होती है, उसका उसमें अभाव था। ये तीन भूले उसके लिए घातक सिद्ध हुई तराइन के द्वितीय युद्ध से पूर्व उसकी परम्परागत युद्ध प्रणाली व गुप्तचर व्यवस्था की कमजोरी को क्षमा नहीं किया जा सकता। फिर भी उसकी वीरता रोमान्स व सुन्दर व्यक्तित्व ने उसे एक लोकनायक बना दिया है जिससे आज भी उसे एक लोकप्रिय योद्धा व नायक के रूप में रंगमंचों पर प्रस्तुत किया जाता है। जब तक वह जीवित रहा तुर्कों के लिए भारत अजेय रहा उसके अंत के अगले पन्द्रह वर्षो में ही सारा उत्तर भारत तुर्की की दासता स्वीकार करने हेतु बाध्य हो गया ।