गुहिल सिसोदिया वंश (मेवाड़)। गुहिल - सिसोदिया वंश के शासक । Guhil Vansh Ke Shasahk - Daily Hindi Paper | Online GK in Hindi | Civil Services Notes in Hindi

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गुरुवार, 6 जनवरी 2022

गुहिल सिसोदिया वंश (मेवाड़)। गुहिल - सिसोदिया वंश के शासक । Guhil Vansh Ke Shasahk

 गुहिल - सिसोदिया वंश के शासक 

गुहिल सिसोदिया वंश (मेवाड़)। गुहिल - सिसोदिया वंश के शासक । Guhil Vansh Ke Shasahk


मध्यकालीन राजस्थान के इतिहास में गुहिल - सिसोदिया (मेवाड़)कछवाहा (आमेर-जयपुर)चौहान (अजमेरदिल्लीजालौरसिरोहीहाड़ौती इत्यादि के चौहान)राठौड़ (जोधपुर और बीकानेर के राठौड़ ) इत्यादि राजवंश नक्षत्र भांति चमकते हुये दिखाई देते हैं। 


गुहिल - सिसोदिया वंश

गुहिल शासक रत्नसिंह

  • मेवाड़ के इतिहास में तेरहवीं शताब्दी के आरंभ से एक नया मोड़ आता हैजिसमें चौहानों की केन्द्रीय शक्ति का ह्रास होना और गुहिल जैत्रसिंह जैसे व्यक्ति का शासक होना बड़े महत्त्व की घटनाएं हैं। 
  • मेवाड़ के गुहिल शासक रत्नसिंह ( 1302-03) के समय चित्तौड़ पर दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने आक्रमण किया था। अलाउद्दीन के इस आक्रमण के राजनीतिकआर्थिक और सैनिक कारणों के साथ रत्नसिंह की सुन्दर पत्नी पद्मिनी को प्राप्त करने लालसा भी बताया जाता है। 
  • पद्मिनी की कथा का उल्लेख मलिक मुहम्मद जायसी के 'पद्मावतनामक ग्रंथ में मिलता है। अलाउद्दीन के आक्रमण के दौरान रत्नसिंह और गोरा-बादल वीर गति प्राप्त हुये तथा पद्मिनी ने 1600 स्त्रियों के साथ जौहर कर आत्मोत्सर्ग किया। इसी समय अलाउद्दीन ने 30,000 हिन्दुओं का चित्तौड़गढ़ में कत्ल करवा दिया था। 
  • अलाउद्दीन ने चित्तौड़ जीतकर उसका नाम खिजाबाद कर दिया था। राजपूतों का यह बलिदान चित्तौड़ के प्रथम साके के नाम से प्रसिद्ध हैजिसमें गोरा- बादल की वीरता एक अमर कहानी बन गयी। आज भी चित्तौड़ के खण्डहरों में गोरा-बादल के महल उनके साहस और सूझ-बूझ की कहानी सुना रहे हैं। 
  • पद्मिनी का त्याग और जौहर व्रत महिलाओं को एक नयी प्रेरणा देता है। गोरा-बादल का बलिदान हमें यह सिखाता है कि जब देश पर आपत्ति आये तो प्रत्येक व्यक्ति को अपना सर्वस्व न्योछावर कर देश - रक्षा में लग जाना चाहिए। 

  • रत्नसिंह के पश्चात् सिसोदिया के सरदार हम्मीर मेवाड़ को दयनीय स्थिति से उभारा। वह राणा शाखा का राजपूत था। 
  • राणा लाखा (1382-1421) के समय उदयपुर की पिछोला झील का बांध बनवाया गया था। लाखा के निर्माण कार्य मेवाड़ की आर्थिक स्थिति तथा सम्पन्नता को बढ़ाने में उपयोगी सिद्ध हुए। 
  • लाखा के पुत्र मोकल ने मेवाड़ को बौद्धिक तथा कलात्मक प्रवृत्तियों का केन्द्र बनाया उसने चित्तौड़ के समिधेश्वर (त्रिभुवननारायण मंदिर ) मंदिर के जीर्णोद्धार द्वारा पूर्व मध्यकालीन तक्षण कला के नमूने को जीवित रखा। उसने एकलिंगजी के मंदिर के चारों ओर परकोटा बनवाकरउस मंदिर की सुरक्षा की समुचित व्यवस्था की।

मोकल के पुत्र राणा कुंभा (1433 - 1468)

  • मोकल के पुत्र राणा कुंभा (1433 - 1468) का काल मेवाड़ में राजनीतिकसाहित्यिक और सांस्कृतिक उन्नति के लिए जाना जाता । 
  • कुंभा को अभिनवभरताचार्यहिन्दू सुरताणचापगुरुदानगुरु आदि विरुदों से संबोधित किया जाता था। 
  • राणा कुंभा ने 1437 में सारंगपुर के युद्ध मालवा (मांडू) के सुल्तान महमूद खिलजी को पराजित किया था। इस विजय के उपलक्ष्य में कुंभा ने अपने आराध्यदेव विष्णु के निमित्त चित्तौड़गढ़ में नौ मंजिला प्रसिद्ध कीर्तिस्तंभ (विजयस्तंभ) का निर्माण करवाया।
  • कुंभा ने मेवाड़ की सुरक्षा के उद्देश्य से 32 किलों का निर्माण करवाया थाजिनमें बसन्ती दुर्गमचान दुर्गअचलगढ़कुंभलगढ़ दुर्ग प्रमुख हैं। 
  • कुंभलगढ़ दुर्ग का सबसे ऊँचा भाग कटारगढ़ कहलाता है। कुंभाकालीन स्थापत्य में मंदिरों का बड़ा महत्त्व है। ऐसे मन्दिरों में कुंभस्वामी तथा शृंगारचौरी का मंदिर (चित्तौड़)मीरां मंदिर (एकलिंगजी)रणकपुर का मंदिर अनूठे हैं। 
  • कुंभा वीरयुद्धकुशलकलाप्रेमी के साथ-साथ विद्वान एवं विद्यानुरागी भी था । एकलिंगमहात्म्य से ज्ञात होता है कि कुंभा वेदस्मृतिमीमांसाउपनिषद्व्याकरणसाहित्यराजनीति में बड़ा निपुण था। संगीतराजसंगीत मीमांसा एवं सूड़ प्रबन्ध कुंभा द्वारा रचित संगीत ग्रंथ थे। 
  • कुंभा ने चण्डीशतक की व्याख्यागीतगोविन्द की रसिकप्रिया टीका और संगीत रत्नाकर की टीका लिखी थी। कुंभा का दरबार विद्वानों की शरणस्थली था। उसके दरबार में मण्डन ( प्रख्यात शिल्पी)कवि अत्रि और महेशकान्ह व्यास इत्यादि थे। अत्रि और महेश ने कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति की रचना की तथा कान्ह व्यास ने एकलिंगमहात्य नामक ग्रंथ की रचना की। इस प्रकार कुंभा के काल में मेवाड़ सर्वतोन्मुखी उन्नति पर पहुँच गया था ।

राणा सांगा (1509-1528 ) 

  • मेवाड़ के वीरों में राणा सांगा (1509-1528 ) का अद्वितीय स्थान है। सांगा ने गागरोन के के महमूद खिलजी द्वितीय और खातौली के युद्ध युद्ध में मालवा में दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी को पराजित कर अपनी सैनिक योग्यता का परिचय दिया। 
  • सांगा भारतीय इतिहास में हिन्दूपत के नाम से विख्यात है। राणा सांगा खानवा के मैदान में राजपूतों का एक संघ बनाकर बाबर के विरुद्ध लड़ने आया था परन्तु पराजित हुआ। बाबर के श्रेष्ठ नेतृत्व एवं तोपखाने के कारण सांगा की पराजय हुई। 
  • खानवा का युद्ध (17 मार्च1527) परिणामों की दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण रहा। इससे राजसत्ता राजपूतों के हाथों से निकलकरमुगलों के हाथों में आ गई। यहीं से उत्तरी भारत का राजनीतिक संबंध मध्य एशियाई देशों से पुनः स्थापित हो गया। 
  • राणा सांगा अन्तिम हिन्दू राजा थाजिसके सेनापतित्व में सब राजपूत जातियाँ विदेशियों को भारत से निकालने के लिए सम्मिलित हुई। सांगा ने अपने देश के गौरव रक्षा में एक आँखएक हाथ और टांग गँवा दी थी। इसके अतिरिक्त उसके शरीर के भिन्न-भिन्न भागों पर 80 तलवार के घाव लगे हुये थे। 
  • सांगा ने अपने चरित्र और आत्मबल से उस जमाने में इस बात की पुष्टि कर दी थी कि उच्च पद और चतुराई की अपेक्षा स्वदेश रक्षा और मानव धर्म का पालन करने की क्षमता का अधिक महत्त्व है ।

राणा सांगा पुत्र विक्रमादित्य (1531 - 1536)

  • राणा सांगा के पुत्र विक्रमादित्य (1531 - 1536) के राजत्व काल में गुजरात के बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर दो आक्रमण कियेजिसमें मेवाड़ को जन और धन की हानि उठानी पड़ी। इस आक्रमण के दौरान विक्रमादित्य की माँ और सांगा की पत्नी हाड़ी कर्मावती ने हुमायूँ के पास राखी भेजकर सहायता मांगी परन्तु समय पर सहायता न मिलने पर कर्मावती (कर्णावती) ने जौहर व्रत का पालन किया। 
  • कुँवर पृथ्वीराज के अनौरस पुत्र वणवीर ने अवसर पाकर विक्रमादित्य की हत्या कर दी। वह विक्रमादित्य के दूसरे भाई उदयसिंह को भी मारकर निश्चिन्त होकर राज्य भोगना चाहता था परन्तु पन्नाधाय ने अपने पुत्र चन्दन को मृत्यु शैया पर लिटाकर उदयसिंह को बचा लिया और चित्तौड़गढ़ से निकालकर कुंभलगढ़ पहुँचा दिया। इस प्रकार पन्नाधाय ने देश प्रेम हेतु त्याग का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया जिसका गान भारतीय इतिहास में सदियों तक होता रहेगा।

 

महाराणा उदयसिंह (1537 – 1572)

  • महाराणा उदयसिंह (1537 – 1572) ने 1559 में उदयपुर की स्थापना की थी। उसके समय 1567-68 में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था परन्तु कहा जाता है कि अपने मन्त्रियों की सलाह पर उदयसिंह चित्तौड़ की रक्षा का भार जयमल मेड़तिया और फत्ता सिसोदिया को सौंपकर गिरवा की पहाड़ियाँ में चला गया था। 
  • इतिहास लेखकों ने इसे उदयसिंह की कायरता बताया है। कर्नल टॉड ने तो यहाँ तक लिखा है कि यदि सांगा और प्रताप के बीच में उदयसिंह न होता तो मेवाड़ के इतिहास के पन्ने अधिक उज्ज्वल होते। 
  • परन्तु डॉ. गोपीनाथ शर्मा की राय में उदयसिंह को कायर या देशद्रोही कभी नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसने बणवीरमालदेवहाजी खाँ पठान आदि के विरुद्ध युद्ध लड़कर अपने अदम्य साहस और शौर्य का परिचय दिया था। अकबर से लड़ते हुये जयमल और फत्ता वीर गति को प्राप्त हुये। 
  • अकबर ने चित्तौड़ में तीन दिनों के कठिन संघर्ष के बाद 25 फरवरी1568 को किला फतह कर लिया। अकबर द्वारा यहाँ कराये गये नरसंहार से आज भी उसका नाम कलंकित है। अकबर जयमल और फत्ता की वीरता से इतना मुग्ध हुआ कि उसने आगरा किले के द्वार पर उन दोनों वीरों की पाषाण मूर्तियाँ बनवाकर लगवा दी।

उदयसिंह पुत्र महाराणा प्रताप 

  • उदयसिंह के पुत्र महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई1540 को कटारगढ़ (कुंभलगढ़) में हुआ था। 
  • प्रताप ने मेवाड़ के सिंहासन पर केवल पच्चीस वर्षो तक शासन किया लेकिन इतने समय में ही उन्होंने ऐसी कीर्ति अर्जित की जो देश-काल की सीमा को पार कर अमर हो गई । वह और उनका मेवाड़ राज्य वीरताबलिदान और देशाभिमान के पर्याय बन गए।
  • प्रताप को पहाड़ी भाग में 'कीकाकहा जाता थाजो स्थानीय भाषा में छोटे बच्चे का सूचक है। अकबर ने प्रताप को अधीनता में लाने के अनेक प्रयास किये परन्तु निष्फल रहे। जहाँ भारत के तथा राजस्थान के अधिकांश नरेशों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थीप्रताप ने वैभव के प्रलोभन को ठुकरा कर राजनीतिक मंच पर अपनी कर्त्तव्य परायणता के उत्तरदायित्व को बड़े साहस से निभाया। उसने अपनी निष्ठा और दृढ़ता से अपने सैनिकों को कर्त्तव्यबोधप्रजा को आशावादी और शत्रु को भयभीत रखा। 
  • अकबर मेवाड़ की स्वतन्त्र समाप्त करने पर तुला हुआ था और प्रताप उसकी रक्षा के लिए। दोनों की मनोवृत्ति और भावनाओं का मेल न होना ही हल्दीघाटी के युद्ध (18 जून1576) का कारण बन गया। 
  • अकबर के प्रतिनिधि मानसिंह और महाराणा प्रताप के मध्य ऐतिहासिक हल्दीघाटी (जिला राजसमंद) का युद्ध लड़ा गया। परन्तु इसमें मानसिंह प्रताप को मारने अथवा बन्दी बनाने में असफल रहावहीं प्रताप ने अपने प्रिय घोड़े चेतक की पीठ पर बैठकर मुगलों को ऐसा छकाया कि वे अपना पिण्ड छुड़ाकर मेवाड़ से भाग निकले।
  • यदि हम इस युद्ध के परिणामों को गहराई से देखते हैं तो पाते हैं कि पार्थिव विजय तो मुगलों को मिलीपरन्तु वह विजय पराजय से कोई कम नहीं थी । 
  • इतिहासकार डॉ. के. एस. गुप्ता की इस सन्दर्भ में टिप्पणी है कि "परिस्थितियों एवं परिणामों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि हल्दीघाटी युद्ध में अकबर विजयश्री प्राप्त न कर सका।" 
  • महाराणा प्रताप को विपत्ति काल में उसके मन्त्री भामाशाह ने सुरक्षित सम्पत्ति लाकर समर्पित कर दी थी। इस कारण भामाशाह को दानवीर तथा मेवाड़ का उद्धारक कहकर पुकारा जाता है। 
  • राणा प्रताप ने 1582 में दिवेर के युद्ध में अकबर के सुल्तान खाँ को मारकर वीरता का प्रदर्शन किया । प्रतिनिधि प्रताप ने अपने जीवनकाल में चित्तौड़ और मांडलगढ़ के अतिरिक्त मेवाड़ के अधिकांश हिस्सों पर पुनः अधिकार कर लिया था। 
  • प्रताप ने विभिन्न समय में कुंभलगढ़ और चावण्ड को अपनी राजधानियाँ बनायी थीं।
  • प्रताप के सम्बन्ध में कर्नल जेम्स टॉड का कथन है कि "अकबर की उच्च महत्त्वाकांक्षाशासन निपुणता और असीम साधन ये सब बातें दृढ़ - चित्त महाराणा प्रताप की अदम्य वीरताकीर्ति को उज्ज्वल रखने वाले दृढ़ साहस और कर्मठता को दबाने में पर्याप्त न थी। अरावली में कोई भी ऐसी घाटी नहींजो प्रताप के किसी न किसी वीर कार्यउज्ज्वल विजय या उससे अधिक कीर्तियुक्त पराजय से पवित्र न हुई हो। हल्दीघाटी मेवाड़ की थर्मोपल्ली और दिवेर मेवाड़ का मेराथन है।" 
  • अतएव स्वतन्त्रता का महान् स्तंभसद्कार्यों का समर्थक और नैतिक आचरण का पुजारी होने के कारण आज भी प्रताप का नाम भारतीयों के लिए आशा का बादल है और ज्योति का स्तंभ है। 
  • स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान महाराणा प्रताप असंख्य भारतीय देशभक्तों के लिए स्वतन्त्रता के पुंज बने रहे। प्रताप की मृत्यु ( 19 जनवरी1597) के पश्चात् उसके पुत्र अमर सिंह ने मेवाड़ की बिगड़ी हुई व्यवस्था को सुधारने के लिए मुगलों से संधि करना श्रेयस्कर माना। 
  • अमरसिंह ने 1615 को जहाँगीर के प्रतिनिधि पुत्र खुर्रम के पास संधि का प्रस्ताव भेजाजिसे जहाँगीर ने स्वीकार कर लिया। अमरसिंह मुगलों से संधि करने वाला मेवाड़ का प्रथम शासक था। संधि में कहा गया था कि राणा अमरसिंह को अन्य राजाओं की भांति मुगल दरबार की सेवा श्रेणी में प्रवेश करना होगापरन्तु राणा को दरबार में जाकर उपस्थित होना आवश्यक न होगा।

महाराणा राजसिंह (1652-1680) 

  • महाराणा राजसिंह (1652-1680) ने मेवाड़ की जनता को दुष्काल से सहायता पहुँचाने के लिए तथा कलात्मक प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने के लिए राजसमंद झील का निर्माण करवाया । 
  • राजसिंह ने युद्ध नीति और राज्य हित के लिए संस्कृति के तत्त्वों के पोषण की नीति को प्राथमिकता दी। वह रणकुशलसाहसीवीर तथा निर्भीक शासक था। उसमें कला के प्रति रुचि और साहित्य के प्रति निष्ठा थी । 
  • मेवाड़ के इतिहास में निर्माण कार्य एवं साहित्य को इसके समय में जितना प्रश्रय मिलाकुंभा को छोड़कर किसी अन्य शासक के समय में न मिला। औरगंजेब जैसे शक्तिशाली मुगल शासक से मैत्री सम्बन्ध बनाये रखना तथा आवश्यकता पड़ने पर शत्रुता बढ़ा लेना राजसिंह की समयोचित नीति का परिणाम था।