राजपूत राजवंशों का उदय। Rajpoot Rajvansh Ka Uday - Daily Hindi Paper | Online GK in Hindi | Civil Services Notes in Hindi

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गुरुवार, 6 जनवरी 2022

राजपूत राजवंशों का उदय। Rajpoot Rajvansh Ka Uday

 राजपूत राजवंशों का उदय 

राजपूत राजवंशों का उदय। Rajpoot Rajvansh Ka Uday



पूर्व मध्यकाल में विभिन्न राजपूत राजवंशों का उदय 

  • प्रारम्भिक राजपूत कुलों में जिन्होंने राजस्थान में अपने-अपने राज्य स्थापित किये थेउनमें मेवाड़ के गुहिलमारवाड़ के गुर्जर प्रतिहार और राठौड़सांभर के चौहानतथा आबू के परमारआम्बेर के कछवाहाजैसलमेर के भाटी आदि प्रमुख थे।

 

1. मेवाड़ के गुहिल

  • इस वंश का आदिपुरुष गुहिल था। इस कारण इस वंश के राजपूत जहाँ-जहाँ जाकर बसे उन्होंने स्वयं को गुहिलवंशीय कहा। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा गुहिलों को विशुद्ध सूर्यवंशीय मानते हैंजबकि डी. आर. भण्डारकर के अनुसार मेवाड़ के राजा ब्राह्मण थे।

 

  • गुहिल के बाद मान्य प्राप्त शासकों में बापा का नाम उल्लेखनीय हैजो मेवाड़ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। डॉ. ओझा के अनुसार बापा इसका नाम न होकर कालभोज की उपाधि थी। बापा का एक सोने का सिक्का भी मिला हैजो 115 ग्रेन का था। अल्लटजिसे ख्यातों में आलुरावल कहा गया है10वीं सदी के लगभग मेवाड़ का शासक बना। 
  • उसने हूण राजकुमारी हरियादेवी से विवाह किया था तथा उसके समय में आहड़ में वराह मन्दिर का निर्माण कराया गया था। आहड़ से पूर्व गुहिल वंश की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र नागदा था। गुहिलों ने तेरहवीं सदी के प्रारम्भिक काल तक में कई उथल-पुथल के बावजूद भी अपने कुल परम्परागत राज्य को बनाये रखा। 

 

2 मारवाड़ के गुर्जर प्रतिहार - 

  • प्रतिहारों द्वारा अपने राज्य की स्थापना सर्वप्रथम राजस्थान में की गई थीऐसा अनुमान लगाया जाता है। जोधपुर के शिलालेखों से प्रमाणित होता है कि प्रतिहारों का अधिवासन मारवाड़ में लगभग छठी शताब्दी के द्वितीय चरण में हो चुका था । 
  • चूँकि उस समय राजस्थान का यह भाग गुर्जरत्रा कहलाता थाइसलिए चीनी यात्री युवानच्वांग ने गुर्जर राज्य की राजधानी का नाम पीलो मोलो (भीनमाल) या बाड़मेर बताया है। 
  • मुँहणोत नैणसी ने प्रतिहारों की 26 शाखाओं का उल्लेख किया हैजिनमें मण्डौर के प्रतिहार प्रमुख थे । इस शाखा के प्रतिहारों का हरिश्चन्द बड़ा प्रतापी शासक थाजिसका समय छठी शताब्दी के आसपास माना जाता है। 
  • लगभग 600 वर्षों के अपने काल में मण्डौर के प्रतिहारों ने सांस्कृतिक परम्परा को निभाकर अपने उदात्त स्वातन्त्र्य प्रेम और शौर्य से उज्ज्वल कीर्ति को अर्जित किया ।
  • जालौर-उज्जैन- कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों की नामावली नागभट्ट से आरंभ होती हैजो इस वंश का प्रवर्तक था। उसे ग्वालियर प्रशस्ति में 'म्लेच्छों का नाशककहा गया । इस वंश में भोज और महेन्द्रपाल को प्रतापी शासकों में गिना जाता है।

 

3.आबू के परमार 

  • 'परमारशब्द का अर्थ - शत्रु को मारने वाला होता है। प्रारंभ में परमार आबू के आस-पास के प्रदेशों में रहते थे। परन्तु प्रतिहारों की शक्ति के हास के साथ ही परमारों का राजनीतिक प्रभाव बढ़ता चला गया। धीरे-धीरे इन्होंने मारवाड़सिन्धगुजरातवागड़मालवा आदि स्थानों में अपने राज्य स्थापित कर लिये। 
  • आबू के परमारों का कुल पुरुष धूमराज था परन्तु परमारों की वंशावली उत्पलराज से आरंभ होती है। परमार शासक धंधुक के समय गुजरात के भीमदेव ने आबू को जीतकर वहाँ विमलशाह को दण्डपति नियुक्त किया विमलशाह ने आबू में 1031 में आदिनाथ का भव्य मन्दिर बनवाया था। 
  • धारावर्ष आबू के परमारों का सबसे प्रसिद्ध शासक था। धारावर्ष का काल विद्या की उन्नति और अन्य जनोपयोगी कार्यों के लिए प्रसिद्ध है। इसका छोटा भाई प्रह्लादन देव वीर और विद्वान था। उसने 'पार्थ- पराक्रम-व्यायोगनामक नाटक लिखकर तथा अपने नाम से प्रहलादनपुर (पालनपुर) नामक नगर बसाकर परमारों के साहित्यिक और सांस्कृतिक स्तर को ऊँचा उठाया। 
  • धारावर्ष के पुत्र सोमसिंह के समय मेंजो गुजरात के सोलंकी राजा भीमदेव द्वितीय का सामन्त थावस्तुपाल के छोटे भाई तेजपाल ने आबू के देलवाड़ा गाँव में लूणवसही नामक नेमिनाथ मन्दिर का निर्माण करवाया था।
  • मालवा के भोज परमार ने चित्तौड़ में त्रिभुवन नारायण मन्दिर बनवाकर अपनी कला के प्रति रुचि को व्यक्त किया । वागड़ के परमारों ने बाँसवाड़ा के पास अथूणा नगर बसा कर और अनेक मंदिरों का निर्माण करवाकर अपनी शिल्पकला के प्रति निष्ठा का परिचय किया।

 

4. सांभर के चौहान- 

  • चौहानों के मूल स्थान के संबंध में मान्यता है कि वे सपादलक्ष एवं जांगल प्रदेश के आस-पास रहते थे। उनकी राजधानी अहिच्छत्रपुर (नागौर) थी। सपादलक्ष के चौहानों का आदि पुरुष वासुदेव थाजिसका समय 551 ई. के लगभग अनुमानित है। बिजौलिया प्रशस्ति में वासुदेव को सांभर झील का निर्माता माना गया है। इस प्रशस्ति में चौहानों को वत्सगौत्रीय ब्राह्मण बताया गया है। 
  • प्रारंभ में चौहान प्रतिहारों के सामन्त थे परन्तु गुवक प्रथमजिसने हर्षनाथ मन्दिर का निर्माण करायास्वतन्त्र शासक के रूप में उभरा। इसी वंश के चन्दराज की पत्नी रुद्राणी यौगिक क्रिया में निपुण थी। ऐसा माना जाता है कि वह पुष्कर झील में प्रतिदिन एक हजार दीपक जलाकर महादेव की उपासना करती थी।

 

  • 1113 ई. में अजयराज चौहान ने अजमेर नगर की स्थापना की। उसके पुत्र अर्णोराज (आनाजी) ने अजमेर में आनासागर झील का निर्माण करवाकर जनोपयोगी कार्यों में भूमिका अदा की। 
  • चौहान शासक विग्रहराज चतुर्थ का काल सपादलक्ष का स्वर्णयुग कहलाता है। उसे वीसलदेव और कवि बान्धव भी कहा जाता था। उसने 'हरकेलिनाटक और उसके दरबारी विद्वान सोमदेव ने 'ललित विग्रहराजनामक नाटक की रचना करके साहित्य स्तर को ऊँचा उठाया। 
  • विग्रहराज ने अजमेर में एक संस्कृत पाठशाला का निर्माण करवाया। जिस पर आगे चलकर कुतुबुद्दीन ऐबक ने 'ढाई दिन का झोंपड़ाबनवाया। विग्रहराज चतुर्थ एक विजेता था। उसने तोमरों को पराजित कर ढिल्लिका (दिल्ली) को जीता। 
  • इसी वंशक्रम में पृथ्वीराज चौहान तृतीय ने राजस्थान और उत्तरी भारत की राजनीति में अपनी विजयों से एक विशिष्ट स्थान बना लिया था 1191 ई. में उसने तराइन के प्रथम युद्ध में मुहम्मद गौरी को परास्त कर वीरता का समुचित परिचय दिया। परन्तु 1192 ई. में तराइन के दूसरे युद्ध में जब उसकी गौरी से हार हो गईतो उसने आत्म-सम्मान को ध्यान में रखते हुए आश्रित शासक बनने की अपेक्षा मृत्यु को प्राथमिकता दी ।
  • पृथ्वीराज विजय के लेखक जयानक के अनुसार पृथ्वीराज चौहान ने किया । जीवनपर्यन्त युद्धों के वातावरण में रहते हुए भी चौहान राज्य की प्रतिभा को साहित्य और सांस्कृतिक क्षेत्र में पुष्ट तराइन के द्वितीय युद्ध के पश्चात् भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ आया । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं था कि इस युद्ध के बाद चौहानों की शक्ति समाप्त हो गई। 
  • गभग आगामी एक शताब्दी तक चौहानों की शाखाएँ रणथम्भौरजालौरहाड़ौतीनाड़ौल तथा चन्द्रावती और आबू में शासन करती रहीं और राजपूत शक्ति की धुरी बनी रहीं। इन्होंने दिल्ली सुल्तानों की सत्ता का समय-समय पर मुकाबला कर शौर्य और अदम्य साहस का परिचय दिया।

 

  • पूर्व मध्यकाल में पराभवों के बावजूद राजस्थान बौद्धिक उन्नति में नहीं पिछड़ा। चौहान व गुहिल शासक विद्वानों के प्रश्रयदाता बने रहेजिससे जनता में शिक्षा एवं साहित्यिक प्रगति बिना अवरोध के होती रही। इसी तरह निरन्तर संघर्ष के वातावरण में वास्तुशिल्प पनपता रहा । इस समूचे काल की सौन्दर्य तथा आध्यात्मिक चेतना ने कलात्मक योजनाओं को जीवित रखा। चित्तौड़बाड़ौलीआबू के मन्दिर इस कथन के प्रमाण हैं।