राजपूतों की उत्पत्ति के मत, राजपूतों की उत्पत्ति कैसे हुई
पूर्व मध्यकालीन राजस्थान
- इस काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना युद्धप्रिय राजपूत जाति का उदय एवं राजस्थान में राजपूत राज्यों की स्थापना है। गुप्तों के पतन के बाद केन्द्रीय शक्ति का अभाव उत्तरी भारत में एक प्रकार से अव्यवस्था का कारण बना।
- राजस्थान की गणतन्त्र जातियों ने उत्तर गुप्तों की कमजोरियों का लाभ उठाकर स्वयं को स्वतन्त्र कर लिया। यह वह समय था, जब भारत पर हूण आक्रमण हो रहे थे।
- हूण नेता मिहिरकुल ने अपने भयंकर आक्रमण से राजस्थान को बड़ी क्षति पहुँचायी और बिखरी हुई गणतन्त्रीय व्यवस्था को जर्जरित कर दिया। परन्तु मालवा यशोवर्मन ने हूणों को लगभग 532 ई. में परास्त करने में सफलता प्राप्त की।
- इधर राजस्थान में यशोवर्मन के अधिकारी जो राजस्थानी कहलाते थे, अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र होने की चेष्टा कर रहे थे। किसी भी केन्द्रीय शक्ति का न होना इनकी प्रवृत्ति के लिए सहायक बन गया।
- लगभग इसी समय उत्तरी भारत में हर्षवर्धन का उदय हुआ। उसके तत्त्वावधान में राजस्थान में व्यवस्था एवं शांति की लहर आयी, परंतु जो बिखरी हुई अवस्था यहाँ पैदा हो गयी थी, वह सुधर नहीं सकी।
- इन राजनीतिक उथल-पुथल के सन्दर्भ में यहाँ के समाज में एक परिवर्तन दिखाई देता है। राजस्थान में दूसरी सदी ईसा पूर्व से छठी सदी तक विदेशी जातियाँ आती रहीं और यहाँ के स्थानीय समूह उनका मुकाबला करते रहे। परन्तु कालान्तर में इन विदेशी आक्रमणकारियों की पराजय हुई, इनमें कई मारे गये और कई यहाँ बस गये।
- जो शक या हूण यहाँ बचे रहे उनका यहाँ की शस्त्रोपजीवी जातियों के साथ निकट सम्पर्क स्थापित होता गया और अन्ततोगत्वा छठी शताब्दी तक स्थानीय और विदेशी योद्धाओं का भेद जाता रहा।

राजपूतों की उत्पत्ति कैसे हुई
- राजपूताना के इतिहास के सन्दर्भ में राजपूतों की उत्पत्ति
के विभिन्न सिद्धान्तों का अध्ययन बड़ा महत्त्व का है। राजपूतों का विशुद्ध जाति
से उत्पन्न होने के मत को बल देने के लिए उनको अग्निवंशीय बताया गया है।
- इस मत का प्रथम सूत्रपात चन्दबरदाई के प्रसिद्ध ग्रंथ पृथ्वीराजरासो' से होता है। उसके
अनुसार राजपूतों के चार वंश प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहान
ऋषि वशिष्ठ के यज्ञ कुण्ड से राक्षसों के संहार के लिए उत्पन्न किये गये।
- इस कथानक
का प्रचार 16वीं से 18वीं सदी तक भाटों द्वारा खूब होता रहा। मुँहणोत नैणसी और
सूर्यमल्ल मिसण ने इस आधार को लेकर उसको और बढ़ावे के साथ लिखा।
- परन्तु वास्तव में
अग्निवंशीय सिद्धान्त' पर विश्वास करना उचित नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण
कथानक बनावटी व अव्यावहारिक है।
- ऐसा प्रतीत होता है कि चन्दबरदाई ऋषि वशिष्ठ
द्वारा अग्नि से इन वंशों की उत्पत्ति से यह अभिव्यक्त करता है कि जब विदेशी सत्ता
से संघर्ष करने की आवश्यकता हुई तो इन चार वंशों के राजपूतों ने शत्रुओं से
मुकाबला हेतु स्वयं को सजग कर लिया। गौरीशकर हीराचन्द ओझा, सी.वी.वैद्य, दशरथ शर्मा, ईश्वरी प्रसाद
इत्यादि इतिहासकारों ने इस मत को निराधार बताया है।
- गौरीशंकर हीराचन्द ओझा राजपूतों को सूर्यवंशीय और
चन्द्रवंशीय बताते हैं। अपने मत की पुष्टि के लिए उन्होंने कई शिलालेखों और
साहित्यिक ग्रंथों के प्रमाण दिये हैं, जिनके आधार पर
उनकी मान्यता कि राजपूत प्राचीन क्षत्रियों के वंशज हैं। राजपूतों की उत्पत्ति से
सम्बन्धि बात यही मत सर्वाधिक लोकप्रिय है।
- राजपूताना के प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने
राजपूतों को शक और सीथियन बताया है। इसके प्रमाण में उनके बहुत से प्रचलित
रीति-रिवाजों का, जो शक जाति के रिवाजों से समानता रखते थे, उल्लेख किया है।
ऐसे रिवाजों में सूर्य पूजा, सती प्रथा प्रचलन, अश्वमेध यज्ञ, मद्यपान, शस्त्रों और घोड़ों की पूजा इत्यादि हैं। टॉड
की पुस्तक के सम्पादक विलियम क्रुक ने भी इसी मत का समर्थन किया है परन्तु इस
विदेशी वंशीय मत का गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने खण्डन किया है। ओझा का कहना है कि राजपूतों
तथा विदेशियों के रस्मों-रिवाजों में जो समानता कर्नल टॉड ने बतायी है, वह समानता
विदेशियों से राजपूतों ने प्राप्त नहीं की है, वरन् उनकी
सात्यता वैदिक तथा पौराणिक समाज और संस्कृति से की जा सकती है। अतएव उनका कहना है
कि शक, कुषाण या हूणों के जिन-जिन रस्मो-रिवाजों व परम्पराओं का
उल्लेख समानता बताने के लिए जेम्स टॉड ने किया है, वे भारतवर्ष में
अतीत काल से ही प्रचलित थीं। उनका सम्बन्ध इन विदेशी जातियों से जोड़ना निराधार
है।
- डॉ. डी. आर. भण्डारकर राजपूतों को गुर्जर मानकर उनका संबंध
श्वेत-हूणों के स्थापित करके विदेशी वंशीय उत्पत्ति को और बल देते हैं। इसकी
पुष्टि में वे बताते हैं कि पुराणों में गुर्जर और हूणों का वर्णन विदेशियों के
सन्दर्भ में मिलता है। इसी प्रकार उनका कहना है कि अग्निवंशीय प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहान
भी गुर्जर थे, क्योंकि राजोर अभिलेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है।
इनके अतिरिक्त भण्डारकर ने बिजौलिया शिलालेख के आधार पर कुछ राजपूत वंशों को
ब्राह्मणों से उत्पन्न माना है। वे चौहानों को वत्स गोत्रीय ब्राह्मण बताते हैं और
गुहिल राजपूतों की उत्पत्ति नागर ब्राह्मणों से मानते हैं ।
- डॉ. ओझा एवं वैद्य ने भण्डराकर की मान्यता को अस्वीकृत करते
हुए लिखा है कि प्रतिहारों को गुर्जर कहा जाना जाति विशेष की संज्ञा नहीं है वरन्
उनका प्रदेश विशेष गुजरात पर अधिकार होने के कारण है। जहाँ तक राजपूतों की
ब्राह्मणों से उत्पत्ति का प्रश्न है, वह भी निराधार है
क्योंकि इस मत के समर्थन में उनके साक्ष्य कतिपय शब्दों का प्रयोग राजपूतों के साथ
होने मात्र से है।
- इस प्रकार राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में उपर्युक्त
मतों में मतैक्य नहीं है। फिर भी डॉ. ओझा के मत को सामान्यतः मान्यता मिली हुई है।
निःसन्देह राजपूतों को भारतीय मानना उचित है।