राजस्थान कला एवं संस्कृति (Rajsthan Art Culture in Hindi)
राजस्थान कला एवं संस्कृति
- राजस्थान को सांस्कृतिक दृष्टि से भारत के समृद्ध प्रदेशों
में गिना जाता है। संस्कृति एक विशाल सागर है जिसे सम्पूर्ण रूप से लिखना संभव
नहीं है। संस्कृति तो गाँव-गाँव, ढांणी-ढाणी, चौपाल, चबूतरे, महल - प्रासादों मे ही नहीं, वह तो घर- घर, जन-जन में समाई हुई है।
- राजस्थान की संस्कृति
का स्वरूप रजवाडों और सामन्ती व्यवस्था में देखा जा सकता है, फिर भी इसके
वास्तविक रूप को बचाए रखने का श्रेय ग्रामीण अंचल को ही जाता है, जहाँ आज भी यह
संस्कृति जीवित है।
- संस्कृति में साहित्य और संगीत के अतिरिक्त कला-कौशल, शिल्प, महल - मंदिर, किले-झोंपडियों
का भी अध्ययन किया जात है,
जो हमारी
संस्कृति के दर्पण है। हमारी पोशाक, त्यौहार, रहन-सहन, खान-पान, तहजीब-तमीज सभी संस्कृति के अन्तर्गत आते है। थोड़े से
शब्दों में कहा जाए तो जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है, वह संस्कृति है।
- ऐतिहासिक काल में राजस्थान में कई राजपूत वंशों का शासन रहा
है। यहाँ सभी शासकों ने अपने राज्य की राजनैतिक एकता के साथ-साथ साहित्यिक और
सांस्कृतिक उन्नति में योगदान दिया है। ग्याहरवीं शताब्दी में उत्तर-पश्चिम से आने
वाली आक्रमणकारी जातियों ने इसे नष्ट करने का प्रयास किया, परन्तु निरन्तर
संघर्ष के वातावरण मे भी यहाँ साहित्य, कला की प्रगति अनवरत रही।
- मध्य काल में राजपूत शासकों के
मुगलों के साथ वैवाहिक और मैत्री संबन्धों से दोनों जातियों में सांस्कृतिक समन्वय
और मेल-मिलाप रहा जिससे कला, साहित्य में विविधता एंव नवीनता का संचार हुआ और सांझी
संस्कृति का निर्माण हुआ।
सांझी संस्कृति राजस्थान
- राजस्थान के भू-भाग पर आक्रमणों एवं युद्धों का दौर लम्बे समय तक चलता रहा। राजस्थानी जनजीवन में समन्वय
एवं उदारता के गुणों ने सांझी संस्कृति को पनपने का अवसर प्रदान किया। धार्मिक
सहिष्णुता के परिणामस्वरूप अजमेर में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में
हिन्दू मुस्लिम एकता के दर्शन होते हैं, जहाँ सभी धर्म के अनुयायी एकत्र होकर इबादत (प्रार्थना )
करते हैं और मन्नत मांगते है। लोक देवता गोगाजी, रामदेवजी के समाधि स्थल पर सभी धर्मानुयायी
अपनी आस्था रखकर साम्प्रदायिक सद्भावना का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
- राजस्थान के सामाजिक जीवन यथा खान-पान, रहन-सहन, आमोद-प्रमोद और
रस्मों-रिवाजों में सर्वत्र हिन्दू मुस्लिम संस्कृति का समन्वय हुआ है। भोजन में
अकबरी जलेबी, खुरासानी खिचड़ी, बाबर बड़ी, पकौड़ी और
मूंगोड़ी का प्रचलन मुगली प्रभाव से खूब पनपा है। परिधानों में मलमल, मखमल, नोरंगशाही, बहादुरशाही
कपड़ों का प्रयोग हुआ है। आमोद-प्रमोद में पतंगबाजी, कबूतर बाजी मुगल काल से प्रचलित हुई है।
- स्थापत्य कला हिन्दू-मुस्लिम शैलियों का सम्मिश्रण सांझी
संस्कृति का उदाहरण हैं। यहाँ के राजा-महाराजाओं ने मुगली प्रभाव से स्थापत्य
निर्माण में संगमरमर का प्रयोग किया । गेलेरियों, फव्वारों, छोटे बागों को महत्व दिया दिवारों पर बेल बूंटे के काम को
बढ़ावा दिया। चित्रकला की विभिन्न शैलियों में मुगल शैली का प्रभाव सर्वत्र देखा
जा सकता है। अतः कहा जा सकता है कि राजस्थानी कला एवं संस्कृति में सांझी संस्कृति
के सभी तत्त्व मौजूद है जो अपने मूलभूत स्वरूप को बनाए रखते हुए भी नवीनता, ग्रहणशीलता, सहिष्णुता और
समन्वय को स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हैं।
राजस्थान की मध्यकालीन साहित्यिक उपलब्धियाँ
- राजस्थान में साहित्य प्रारम्भ में संस्कृत व प्राकृतभाषा
में रचा गया। मध्ययुग के प्रारम्भकाल से अपभ्रंश और उससे जनित मरूभाषा और स्थानीय
बोलियां जैसे मारवाड़ी, मेवाड़ी, मेवाती, ढूँढाड़ी और
बागड़ी में साहित्य की रचना होती रही, परन्तु इस काल में संस्कृत साहित्य अपनी प्रगति करता रहा।
राजस्थान का संस्कृत साहित्य
- राजपूताना के विद्यानुरागी शासकों, राज्याश्रय प्राप्त
विद्वानों ने संस्कृति का सृजन किया है। शिला लेखों, प्रशस्तियों और वंशावलियों के लेखन में इस भाषा
का प्रयोग किया जाता था। महाराणा कुम्भा स्वयं विद्वान संगीत प्रेमी एवं विद्वानों
के आश्रयदाता शासक थे। इन्होंने संगीतराज, सूढ़ प्रबन्ध, संगीत मीमांसा, रसिक प्रिया, (गीत गोविन्द की टीका ) संगीत रत्नाकर आदि ग्रन्थों की रचना
की थी। इनके आश्रित विद्वान मण्डन ने शिल्पशास्त्र से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थों की
रचना की। जिनमें देवमूर्तिप्रकरण, राजवल्लभ, रूपमण्डन, प्रसाद मण्डन महत्त्वपूर्ण कुंभाकालीन (चित्तौड़गढ़) और कुंभलगढ़
प्रशस्ति (कुंभलगढ़) की रचना की। राणा जगतसिंह एवं राजसिंह के दरबार में बाबू भट्ट
तथा छोड़ भट्ट नामक विद्वान थे, जिन्होंने क्रमशः जगन्नाथराम प्रशस्ति और राजसिंह प्रशस्ति
की रचनाएँ की। ये दोनों प्रशस्तियाँ मेवाड़ के इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण है।
- आमेर-जयपुर के महाराजा मानसिंह, सवाईजयसिंह, मारवाड़ के
महाराजा जसवन्तसिंह, अजमेर के चौहान
शासक विग्रहराज चतुर्थ तथा पृथ्वीराज तृतीय बीकानेर के रायसिंह और अनूपसिंह
संस्कृत के विद्वान एवं विद्वानों के आश्रयदाता शासक थे। अनूपसिंह ने बीकानेर में 'अनूप संस्कृत पुस्तकालय
का निर्माण करवाकर अपनी साहित्यिक प्रतिभा का परिचय दिया। विग्रहराज चतुर्थ ने 'हरिकेलि' नाटक लिखा, पृथ्वीराज के कवि
जयानक 'पृथ्वीराजविजय' नामक काव्य के
रचयिता थे।
- प्रतापगढ़ के दरबारी पंडित जयदेव का 'हरिविजय' नाटक तथा गंगारामभट्ट का 'हरिभूषण' इस काल की प्रसिद्ध रचनाएँ है। मारवाड़ के जसवन्तसिंह ने
संस्कृत में भाषा - भूषण और आनन्द विलास नामक श्रेष्ठ ग्रंथ लिखें। जोधपुर के
मानसिंह ने नाथ-चरित्र, नामक ग्रंथ लिखा
। मानसिंह को पुस्तकों से इतना प्रेम था कि उन्होंने काशी, नेपाल आदि से
संस्कृत के अनेक ग्रंथ मंगवाकर अपने पुस्तकालय में सुरक्षित रखें। आज यह पुस्तकालय
मानसिंह पुस्तक प्रकाश शोध केन्द्र के रूप में विख्यात है।