मध्यकालीन राजस्थान में धार्मिक आंदोलन और धर्म–संस्कृतियाँ । Rajsthan Dharmik Aandolan Dharm Sanskriti - Daily Hindi Paper | Online GK in Hindi | Civil Services Notes in Hindi

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सोमवार, 10 जनवरी 2022

मध्यकालीन राजस्थान में धार्मिक आंदोलन और धर्म–संस्कृतियाँ । Rajsthan Dharmik Aandolan Dharm Sanskriti

 मध्यकालीन राजस्थान में धार्मिक आंदोलन और धर्मसंस्कृतियाँ 

मध्यकालीन राजस्थान में धार्मिक आंदोलन और धर्म–संस्कृतियाँ । Rajsthan Dharmik Aandolan Dharm Sanskriti


राजस्थान में धार्मिक आंदोलन और धर्म–संस्कृतियाँ

  • राजस्थान में धार्मिक परम्परा और लोक विश्वास की धारा प्राचीन काल से ही लगातार जारी है। वैदिक धर्म और उससे संबंधी विश्वासों के प्रतीक राजस्थान में आज भी देखे जाते हैं। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के घौसुण्डी शिलालेख में अवश्मेध यज्ञ का उल्लेख है।
  • तीसरी सदी में नान्दसा यूप स्तम्भ तथा कोटाजयपुर कुछ यूप स्तंभों से यज्ञों के प्रचलन का बोध होता है। सवाई जयसिंह ने अश्वमेध तथा अन्य यज्ञों के सम्पादन द्वारा अपने समय तक यज्ञों की वैदिक परम्परा को जीवित रखा। राजस्थान में 12वीं शताब्दी तक मुख्य देव के रूप में ब्रह्मा एवं सूर्य का अर्चन प्रचलित था।

 

  • अनेक स्त्रोतों से विदित होता है कि राजस्थान में शैव धर्म का अनेक राजवंशों पर प्रभाव थाजिनमें मेवाड़ और मारवाड़ रियासत प्रमुख हैं। 
  • लकुलीश और नाथ सम्प्रदाय के आचार्यों ने अपने चमत्कार के प्रभाव से मेवाड़ और मारवाड़ राजपरिवार पर क्रमशः प्रभाव स्थपित करने में सफलता प्राप्त कीजिसके परिणामस्वरूप मेवाड़ के महाराणा श्रीएकलिंगजी को ही अपने राज्य का स्वामी और स्वयं को उनका दीवान मानते थे। वहीं मारवाड़ के मानसिंह के समय नाथों का शासन कार्य में बड़ा हाथ रहा। 
  • मानसिंह ने जोधपुर में नाथों की प्रसिद्ध पीठ 'महामंदिर का निर्माण करवाया था।मध्यकालीन राजस्थान में अनेक रूपों में शक्ति की उपासना प्रचलित थीजिसके प्रमाण ओसियाँ का सच्चिया माता मंदिरचित्तौड़ का कालिका मंदिर के रूप में देखे जा सकते हैं। 
  • राजस्थान के अनेक राजवंशों ने तो शक्ति पर विश्वास कर उसे कुलदेवी के रूप में स्वीकार कर लिया था। बीकानेर राजपरिवार करणीमाताजोधपुर नागणेची मातासिसोदिया नरेश बाणमाताकछवाहा राजवंश अन्नपूर्णा माता के आज भी परम भक्त हैं।

 राजस्थान में वैष्णव धर्म 

  • राजस्थान में वैष्णव धर्म का सर्वप्रथम उल्लेख द्वितीय शताब्दी ई. पू. के घौसुण्डी के लेख में मिलता है। राजस्थान में वैष्णव धर्म के प्रमाण के रूप में महाराणा कुंभा के समय में खड़िया गाँव में कृष्ण मन्दिरचित्तौड़ तथा कुंभलगढ़ में कुंभश्याम मन्दिरउदयपुर में जगदीश मन्दिरनाथद्वारा का श्रीनाथजी मन्दिरजोधपुर का घनश्यामजी मंदिर उल्लेखनीय है । नारी संत के रूप में मीरां अपने समय की कृष्ण भक्ति की अनुपम उदाहरण है। बीकानेर के पृथ्वीराज तथा जोधपुर के विजयसिंह और किशनगढ़ के नागरीदास अपने समय के कृष्ण भक्तों में प्रमुख स्थान रखते हैं। कृष्णभक्ति के साथ राम भक्ति भी राजस्थान में सम्मानित पद प्राप्त किये हुये थी। कछवाहा शासक स्वयं को 'रघुवंशतिलककहते थे ।

 

राजस्थान में जैन धर्म

  • राजस्थान में जैन धर्म वैश्यों में अधिक प्रचलित रहा है। हालांकि यहाँ के शासक जैन अनुयायी नहीं रहेंपरन्तु उन्होंने इस धर्म को सहिष्णुता दृष्टि से देखा। जैसलमेरनाडौलआमेरधुलेवरणकपुरआबूसिरोही आदि स्थानों पर जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ एवं जैन धर्म की प्रभावना से सम्बन्धित अनेक शिलालेख उपलब्ध हैंजो जैन धर्म की राजस्थान में होने वाली प्रगति पर प्रकाश डालते हैं। राजस्थान को जैन धर्म की सबसे बड़ी देन यह है कि इस धर्म के अनेक विद्वानों ने सहस्त्रों की संख्या में हस्तलिखित ग्रंथों को लिखाजिनमें निहित ज्ञान हमारे लिए आज भी एक बड़ी निधि है।

राजस्थान में इस्लाम धर्म

  • इस्लाम धर्म राजस्थान में बारहवीं शताब्दी में अधिक प्रगतिशील बना। प्रसिद्ध सूफी सन्त ख्वाजा मुइनुद्दीन हसन चिश्तीमुहम्मद गौरी के आक्रमणों के दौरान पृथ्वीराज चौहान तृतीय के शासनकाल में भारत आये थे। इन्होंने अजमेर को अपना केन्द्र बनाया थाजहाँ से इसका जालौरनागौरमाण्डलचित्तौड़ आदि स्थानों पर प्रसार हुआ। नागौर में प्रसिद्ध सूफी संत हमीदुद्दीन नागौरी की दरगाह हैजो अजमेर के बाद राजस्थान में इस्लाम के प्रमुख केन्द्र के रूप में विख्यात है। सूफी संतों ने अपने चारित्रिक बल से मध्ययुगीन धार्मिक आक्रोश को कम करने में सफलता पायी। इतना ही नहीं राजस्थान के अनेक शासकों द्वारा मस्जिदों को अनुदान दिये जाने के उल्लेख मिलते हैं। अजमेर की दरगाह शरीफ को अजीतसिंह और जगतसिंह द्वारा गाँवों को भेंट के रूप में दिये जाने के वर्णन मिलते हैंजिसके परिणामस्वरूप राजस्थान में 18वीं शताब्दी तक हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य का विशेष रूप नजर नहीं आया।


राजस्थान के लोकदेवता

  • राजस्थान के लोकमानस में लोक देवों के रूप में एक नयी प्रवृत्ति दिखाई देती है। यहाँ जिन लोगों ने त्याग और आत्म बलिदान से अपने देश की सेवा की अथवा नैतिक जीवन बितायाउनको देवत्व (लोकदेवता) का स्थान देकर पूजा जाने लगा। ऐसे लोकप्रिय देवों में गोगाजीपाबूजीतेजाजीदेवजीमल्लिनाथजी प्रमुख स्थान रखते हैं। इन्होंने अपने आत्मोत्सर्ग के द्वारा तथा सादा और सदाचारी जीवन बिताने के कारण अमरत्व प्राप्त किया। लाखों की संख्या में ग्रामीण आज भी तेजाजी का चिह्न गले में पहनते हैं। इन विविध लोक देवों की उपासना प्रायः अति- विश्वास पर आधारित रही है और बुद्धिजीवियों की इन पर कोई विशेष श्रृद्धा नहीं रहीफिर भी इनके प्रति दृढ़-निष्ठा ने लोक मानस को सद्मार्ग पर चलने के लिए निश्चय ही प्रेरित किया है।

 

  • राजस्थान के जाट परिवार में जन्में धन्ना के विचारों में रहस्यवाद और रूढ़िवाद का समन्वय देखा जा सकता हैं। ये बनारस में जाकर रामानन्द के शिष्य बन गये। इनका मानना था कि प्रेम और मनन से ईश्वर की प्राप्ति सुलभ है। पीपासर में जन्मे जाम्भोजी पँवारवंशीय राजपूत थे। ये साम्प्रदायिक संकीर्णताकुप्रथाओं एवं कुरीतियों के विरोधी थे। इन्होंने समाज सुधारक की भाँति विधवा विवाह पर बल दिया। इनके सभी सिद्धान्त '29 शिक्षाके नाम से जाने जाते हैं और इनका पालन करने वाले 'विश्नोई' (29 ) नाम से सम्बोधित किये जाते हैं। इनमें अधिकांश जाट हैं। विश्नोई सम्प्रदाय के कई अनुयायियों ने जीव कल्याण और पर्यावरण रक्षार्थ अपने प्राण न्योछावर किये। बनारस में पैदा हुये रैदास चित्तौड़ आये थे तथा इनकी एक छतरी चित्तौड़गढ़ में बनी हुई है। रैदास और कबीर के सिद्धान्तों में बहुत कुछ समानता दिखाई देती है। रैदास की वाणियों को रैदास की परचीकहते हैं।

 मीरा बाई 

  • मीरां नारी सन्तों में ईश्वर प्राप्ति में लगी रहने वाली भक्तों में प्रमुख है। यह रत्नसिंह की इकलौती पुत्री थी तथा इसका जन्म कुड़की में लगभग 1498-1499 में हुआ था । मीरां का विवाह मेवाड़ के सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ था परन्तु भोजराज की शीघ्र ही मृत्यु हो जाने से मीरां पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा। मीरां के स्वतन्त्र विचार और सन्त संगति मेवाड़ राजपरिवार के लिए असह्य थे। मीरां के जीवन से कुछ कथानक जुड़े हुये है जैसेजहर पीने के लिए विवश करनासांप से कटवानाउसके चरित्र पर राजा द्वारा सन्देह करना इत्यादिपरन्तु कृष्णभक्ति में लगी मीरां के लिए शारीरिक यातनाएँवैधव्य जीवन इत्यादि कोई महत्त्व नहीं रखते थे। मीरां कहती थी मारो तो गिरिधर गोपाल दूजो न कोई। मीरां की दृष्टि में समृद्धिवैभवसंसार के सुखउच्च पद और सम्मान मिथ्या है। 
  • यदि कोई सत्य है तो उसके 'गिरिधर गोपाल ।मीरां की भक्ति की विशेषता यह थी कि उसमें ज्ञान पर जितना बल नहीं था उतना भावना एवं अनुभूति पर था। ऐसा प्रचलित है कि मीरां वृन्दावन में रहते हुए अथवा द्वारिका में रहते हुए 1540 के लगभग नृत्य करने-करते रणछोड़ जी की मूर्ति में लीन हो गयीं। नवीन शोध से यह स्थापित हुआ कि महात्मा गांधी भक्ति आन्दोलन के संत नरसिंह मेहता के साथ मीरां से काफी प्रभावित थे और वे मीरां को अन्याय के विरूद्ध संघर्ष करने वाली सत्याग्रही महिला के रूप में देखते थे। निश्चय ही मीरां आज भी लोक मानस पटल पर प्रभावी है।

 दादू पंथ

  • दादू पंथ के प्रवर्तक दादू धर्म संबंधी स्वतन्त्र विचारकों में प्रमुख सन्त हैं। उनकी मृत्यु 1605 में नारायणा (जयपुर) में हुई थी । नारायणा की गद्दी दादू पंथ की प्रधान पीठ मानी जाती है। इनके 52 शिष्य बावन स्तंभ कहलाते हैंजिनमें सुन्दरदासरज्जबजी प्रमुख हैं। दादू आमेर के कछवाहा शासक मानसिंह के समकालीन थे। 
  • कबीर की भाँति दादू रूढ़ियोंविविध पूजा पद्धतियों के विरुद्ध थे। वे कहा करते थे कि ईश्वर एक हैजिसके दरबार में हिन्दू-मुसलमानों का कोई भेदभाव नहीं है। दादू की उपासना निरंजन और निर्गुण ब्रह्म की प्राधान्यता को लेकर है। 
  • दादू की सबसे बड़ी विशेषता हैप्रचार में स्थानीय भाषा का प्रयोग। उन्होंने ढूँढाड़ी भाषा को अपनाया। उनकी भाषा में गुजरातीपश्चिमी हिन्दी तथा पंजाबी शब्दों का प्रयोग भी दिखाई देता है। इसी कारण हिन्दी सन्त साहित्य में दादू की 'वाणीका महत्त्वपूर्ण स्थान है।
  • कबीर और दादू के विचारों में सुधारवादी भावना के रूप में समानता मिलती है। इसके विपरीत कबीर के कहने में उग्रता झलकती है तो दादू में विनम्रता। दादू द्वारा प्रतिपादित पंथ में प्रेम एक ऐसा धागा हैजिसमें गरीब व अमीर बांधे जा सकते हैं तथा जिसकी एकसूत्रता विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। 

लालदासी सम्प्रदाय

  • लालदासी सम्प्रदाय के संस्थापक संत लालदास का जन्म धोलीदूब गाँव अलवर) में हुआ था। इन्होंने हिन्दू-मुस्लिम दोनों धर्मो की अच्छाइयों को अपनाकर लोगों को उपदेश दिये तथा साम्प्रदायिक समन्वय का उदाहरण प्रस्तुत किया। मेव मुसलमान इनको पीर मानते हैं। ये निर्गुण ब्रह्म के उपासक तथा समाज सुधारक थे। इनका निधन नगला में हुआ।

कामड़िया पंथ

  • कामड़िया पंथ के संस्थापक रामदेवजी का जन्म उडूकासमेर (बाड़मेर) में हुआ था। इन्होंने समाज में छूआछूत और ऊँच-नीच के भेदभाव का विरोध रख हिन्दू मुस्लिम समन्वयता के लिए प्रयास किया। इनका समाधि स्थल रामदेवरा (रूणेचा) में हैजो जैसलमेर जिले में स्थित है। इनकी स्मृतियों में आयोजित रामदेवरा मेले में हजारों लोग प्रतिवर्ष आते हैं। इस मेले की मुख्य विशेषता साम्प्रदायिक सद्भावना है। इस मेले में कामड़िया पंथ के लोगों द्वारा तेरहताली नृत्य किया जाता है। रामदेवजी को हिन्दू विष्णु का अवतारऔर मुस्लिम 'रामशाह पीरऔर 'पीरों के पीरमानते हैं।


जसनाथी सम्प्रदाय

  • जसनाथी सम्प्रदाय के संस्थापक जसनाथजी का जन्म कतरियासर (बीकानेर) में हुआ था। इस सम्प्रदाय में रात्रि जागरणअग्नि नृत्य इत्यादि प्रचलित है। संत पीपा खींची राजपूत थे। इनकी छतरी गागरोन (झालावाड़) में है। श्रीकृष्ण के निष्कलंकी अवतार के रूप में प्रतिष्ठित सन्त मावजी का जन्म मावला ( डूंगरपुर) में हुआ था । इन्होंने बेणेश्वर धाम की स्थापना सोम-माही - जाखम नदियों के त्रिवेणी संगम पर की।

 

  • वर्तमान टोंक जिले के सोडा ग्राम में विजयवर्गीय वैश्य परिवार में जन्मे सन्त रामचरण ने 18वीं सदी के राजनीतिक और धार्मिक हृास के काल में जन्म लेकर इस समय की क्षतिपूर्ति की। इन्होंने अपने विचारों को मूर्त रूप देने के लिए 'अणभैवाणीकी रचना की तथा रामस्नेही सम्प्रदाय का प्रचलन कियाजिसकी प्रधान पीठ 'शाहपुरा (भीलवाड़ा) में है। उन्होंने अपने अनुयायियों को 'रामनाम का मन्त्र देकर मानवता का सन्देश दूर-दूर तक फैलाया । ये निर्गुण उपासक थे। अतः रामस्नेही मत को मानने वाले मूर्ति पूजा नहीं करते। इस पंथ में नैतिक आचरणगुरु महिमासत्यनिष्ठाधार्मिक अनुशासन पर बल दिया जाता है।

 

इस प्रकार मध्यकालीन धार्मिक आन्दोलन और लोक विश्वासों ने राजस्थानी समाज में न्यूनाधिक नवजागरण की अलख जगाई। इस काल की धार्मिक-सांस्कृतिक गतिविधियाँ ने सभी हिन्दू और दलित जाति को एक वर्ग मानकरपंथों की सीमाएँ बनायीजिससे विधर्मी होने अवसर कम हो गये और भारतीय जनता एक सूत्र में बंधी रह गई । यहाँ तक कि कई पंथों ने तो हिन्दू-मुसलमानों के भेदभाव को अस्वीकृत कर चेतना के स्वर को नव आयाम प्रदान किया। कुल मिलाकर यह युग न केवल राजस्थान की संस्कृति का उज्ज्वल युग है अपितु सांझी संस्कृति का परिचायक भी हैजो भारतीय संस्कृति की आत्मा है।