शिवकुमार स्वामी के बारे में जानकारी (Shiv Kumar Swami Details in Hindi)
शिवकुमार स्वामी के बारे में जानकारी
शिवकुमार स्वामी
तुमकुर में सिद्धगंगा मठ के लिंगायत-वीरशैव आस्था के एक श्रद्धेय द्रष्टा तथा श्री
सिद्धगंगा मठ के लिंगायत धार्मिक प्रमुख थे।
उनका जन्म 1 अप्रैल, 1907 को रामनगर
(कर्नाटक) के वीरपुरा गाँव में हुआ था, वे अपनी परोपकारी गतिविधियों के लिये जाने जाते थे।
उन्होंने
बसवेश्वर के विचार को साकार करने के लिये 88 वर्षों तक कार्य किया तथा समानता, शिक्षा और लोगों
को आध्यात्मिक रूप से समृद्ध बनाने का मार्ग प्रशस्त किया।
उनके द्वारा किये
गए सामाजिक कार्यों को मान्यता देने करने हेतु उन्हें वर्ष 2015 में तीसरे
सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार,
पद्म भूषण और
वर्ष 2007 में कर्नाटक
रत्न से सम्मानित किया गया था।
उन्हें वर्ष 1965 में कर्नाटक
विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टर ऑफ लिटरेचर की मानद उपाधि से भी सम्मानित किया गया
था।
उन्होंने श्री
सिद्धगंगा एजुकेशन सोसाइटी ट्रस्ट की स्थापना की, जो कर्नाटक में प्राथमिक स्कूलों, नेत्रहीनों के
लिये स्कूल से लेकर कला, विज्ञान, वाणिज्य और
इंजीनियरिंग के लगभग 125 शैक्षणिक
संस्थानों का संचालन करता है।
वह अपने
अनुयायियों के बीच “वॉकिंग गॉड (Walking God)" के रूप में जाने
जाते थे।
वर्ष 2019 में उनका निधन
हो गया।
लिंगायत का क्या अर्थ है ?
लिंगायत शब्द एक
ऐसे व्यक्ति को दर्शाता है,
जो एक विशिष्ट
दीक्षा समारोह के दौरान प्राप्त ‘लिंग’ (भगवान शिव का एक प्रतिष्ठित रूप) को अपने शरीर पर धारण करते
हैं।
लिंगायत 12वीं सदी के समाज
सुधारक-दार्शनिक कवि बसवेश्वर के अनुयायी हैं।
बसवेश्वर जाति
व्यवस्था एवं वैदिक रीति-रिवाज़ों के खिलाफ थे।
लिंगायत सख्त
एकेश्वरवादी हैं। वे केवल एक भगवान, लिंग (शिव) की पूजा का आदेश देते हैं।
'लिंग' शब्द का अर्थ
मंदिरों में स्थापित लिंग नहीं है, बल्कि सार्वभौमिक ऊर्जा (शक्ति) द्वारा योग्य सार्वभौमिक
चेतना है।
लिंगायतों को
"वीरशैव लिंगायत" नामक एक हिंदू उपजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया था
और उन्हें शैव माना जाता है।
लिंगायत हिंदू
धर्म से अलग धर्म की मांग क्यों करते हैं?
लिंगायतों ने
हिंदू वीरशैव से स्वयं को दूर कर लिया था, क्योंकि हिंदू वीरशैव वेदों का पालन करते थे तथा जाति
व्यवस्था का समर्थन करते थे और बसवेश्वर इसके विरूद्ध थे।
वीरशैव पाँच
पीठों (धार्मिक केंद्र) के अनुयायी हैं, जिन्हें ‘पंच पीठ’ भी कहा जाता है।
इन पीठों को आदि
शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों के समान ही माना जाता है।