विद्यापति का जीवन परिचय (Vdiyapati Biography in Hindi)
विद्यापति का जीवन परिचय ( Vdiyapati Biography in Hindi)
विद्यापति का जन्म 1360 ई० के आस-पास मिथिला प्रांत में बिसपी नामक ग्राम में हुआ। इनके पिता गणपति ठाकुर उच्च कोटि के विद्वान तथा राज्यमंत्री थे। इससे विद्यापति को प्राचीन साहित्य एवं भाषाओं के अध्ययन की पूर्ण सुविधा मिलती रही।
विद्यापति की रचनाएँ:
विद्यापति की प्रमुख रचनाएँ भूपरिक्रमा, पुरूष परीक्षा लिखनावली, विभागसार, वर्षकृत्य, गंगावाक्यावली, कीर्तिलता, कीर्तिपताका आदि रही हैं।
विद्यापति की भाषा
यद्यपि विद्यापति ने अनेक ग्रंथ संस्कृत तथा अवहट्ट भाषा के लिखें, पर इनकी प्रसिद्धि विशेषता 'पदावली' के कारण ही हुई। पदावली' के कारण ही विद्यापति मैथिली कोकिल के नाम से प्रसिद्ध है। विद्यापति समय-समय पर जो पद मैथिली भाषा में गाते रहे, उन्हीं का संग्रह 'विद्यापति पदावली' के नाम से प्रसिद्ध है।
'विद्यापति की पदावली' का हिन्दी साहित्य में अपना पथक महत्त्व रहा है। इसमें ऐसे पद पाए जाते हैं जिनका आदर राजाओं के प्रासादों से लेकर झोंपड़ियों तक समान रूप से है।
विद्यापति के बारे में कहा जा सकता है कि वे श्रंगारी कवि थे। विद्यापति शैव थे। इसलिए उनकी शिवस्तुति और दुर्गास्तुति में भक्ति भावना की जो गहनता मिलती है राजा - कृष्ण विषयक कविता में नहीं मिलती। कहा जाता है कि विद्यापति के पदों को सुनकर महाप्रभु चैतन्य भक्ति के आवेश में लोट-पोट हो जाते थे।
विद्यापति का व्यक्तित्व
विद्यापति का व्यक्तित्व विविधमुखी है। हिन्दी काव्यकारों में विद्यापति का स्थान बहुत ऊँचा माना जाता है। इनकी कविता इतनी लोकप्रिय हुई कि बंगाली, बिहारी और हिंदी प्रदेश के लोग इन्हें अपना-अपना कवि सिद्ध करने लगे। काल के हिसाब से विद्यापति की गणना आदिकाल के अन्तर्गत मानी जाती है। विद्यापति अनेक राजाओ के आश्रय में रहे। विद्यापति का सारा जीवन राजदरबारों में बीता। वे कीर्तिसिंह, देवसिंह, शिवसिंह, पदमसिंह, हरिसिंह आदि राजाओं के आश्रम में रहे। शिवसिंह ने मिथिला पर अनेक वर्षों तक राज किया। वास्तव में शिवसिंह का शासनकाल विद्यापति के जीवन का उत्कर्ष काल था। राजा शिवसिंह उनके आश्रयदाता ही नहीं, बाल सखा भी थे।
विद्यापति का व्यक्तित्व और कृत्तित्व अन्यतम है। इसीलिए कवि को सम्मान के रूप में अनेक उपधि याँ दी गई। उदाहरणार्थ- अभिनव जयदेव, कविरंजन, कवि शेखर राजपण्डित आदि। विद्यापति अनेक आयामी प्रतिभा के रचनाकार थे। संस्कृत, अवहट्ठ और मैथिली भाषा पर उनका विशेष अधिकार था। इसीलिए तीनों ही भाषाओं में उनकी रचनाएँ प्राप्त होती हैं। रचनाओं का विवरण इस प्रकार है
संस्कृत रचनाएँ:
(i) पुरूष परीक्षा,
(ii) भूपरिक्रमा, गंगा वाक्यावली, विभासागर, दानवाक्यावली, दुर्गाभक्तिरंगिणी, गयापत्तलक,
वर्णकृत्य, मणिमंजरी।
अवहट्ठ भाषा में रचित पुस्तकें कीर्तिलता, कीर्तिपताका ।
मैथिली की रचनाएँ: इसमें विद्यापति कृत पद आते हैं। इन पदों की संख्या लगभग एक हजार है। विद्यापति ने इन पदों की रचना विविध भाव दशाओं में की है। ये गीत विद्यापति की अमरता को कायम रखे हुए हैं।
विद्यापति की कविताओं मे उनकी भक्ति भावना का सहज सम्प्रसार देखा जा सकता हैं राधा-कृष्ण, सीता-राम, शिव-शक्ति, गंगा, भैरवी गणेश आदि देवी-देवों से सम्बन्धित अनेक पद उन्होंने लिखे हैं। अनेक विद्वानों ने उन्हें भक्त स्वीकार किया है। उनको भक्त प्रमाणित करने वाली अनेक किंवदंतियाँ भी लोक में व्याप्त हैं। इन विविध आयामों के विकास और विस्तार को देखकर यह स्वीकार करने मे संकोच नहीं रह जाता है कि विद्यापति की कविता- विद्यापति के पद, भक्ति भावना की सहज प्रकृति से पुष्ट है।
विद्यापति की कविता का दूसरा आयाम श्रंगार और सौन्दर्य है। विद्यापति का दरबार में रहना, सौंदर्य का शरीरी - मांसल वर्णन करना, वयःसन्धि का निरूपण करना, जयदेव की परम्परा में आना विद्यापति को श्रंगारी कवि की परिधि में लाता है। उन्होंने हरिकथा के समान अनन्त सौंदर्यकथा की अपूर्ण अवतारणा की है। उसके मर्म को समझाते- बुझाते हुए उन्होंने लिखा है-
सेहो पिरीत अनुराग बखाइत। तिले तिले नूतन होय ।
सखि हे पुछसि अनुभव मोय । जनम अवधि हम रूप निहारल। नयन न तिरपित भेल ।।
विद्यापति सौंदर्य के सच्चे सर्जक, साधक और आराधक थे। सौंदर्य की सान्द्रता उनका शील और वही उनकी शक्ति थी। विद्यापति सौंदर्य में खूब रमे थे और सौंदर्य की सजलता ने उनके मन तथा प्राणों को सरसित कर रखा था। इसी कारण वे ऐसे सौंदर्य की सर्जना कर सकने में समर्थ हो सके है जो द्रष्टा को भावक, विस्मित, चकित करता है। विद्यापति के पद, चाहे वे श्रंगारमूलक हों यह भक्तिमूलक हों, सौंदर्यमूलक हो या सांस्कृतिमूलक, गीतात्मक है। हिंदी जगत् के विद्वानों ने उन्हें हिंदी गीतिकाव्य परम्परा का वास्तविक प्रवर्त्तक स्वीकार किया है। अपनी गीतिशैली की मधुरता, मदिरता तथा प्रभविष्णुता के लिए विद्यापति हिन्दी साहित्य में अनूठे- अनुपम हैं। वैयक्तिकता, रागात्मकता, काल्पनिकता, भाव एकता, संक्षिप्तता, शैलीगत सुकुमारता, संगीतात्मकता, लोकतत्त्व आदि विशेषताओं से विद्यापति के गीत आनन्दित आन्दोलित है। उनके गीतों में एक गीत अवलोकनीय है-
डम डम डम्फ दिमिक द्रिमि मादल, रूनु झुनु मंजीर बोल। किंकिनि रनरनि बलआ कनकनि, निधु बने राम तुमुल उतरोल बीन खाब मुरज स्वर मंडल, सा रि ग म प ध नि सा बहुविधभाव । घटिता घटिता धुनि मदंग गरजनि, चंचल स्वर मण्डल करू राव।। स्रमभरे गलित लुलित कबरीजुत, मालति माल विथारल मोति । समय बसंत रास रस वर्णन, विद्यापति मति छोमित होति ।
भाषा और शिल्प की दष्टि से भी विद्यापति की प्रतिभा अनेकोन्मुखी है। संस्कृत, अवहट्ठ और मैथिली में उन्होंने रचनाएँ की हैं। उनके समस्त गीत, मैथिली भाषा में हैं, जो उनकी कीर्ति की ध्वजाएँ हैं। विद्यापति का देहावसानः विद्यापति की मृत्यु 1450 ई० में मानते हैं।