यत्रोदकं तत्र वसन्ति हंसा: अर्थ (शब्दार्थ भावार्थ)
यत्रोदकं तत्र वसन्ति हंसा: अर्थ (शब्दार्थ भावार्थ)
यत्रोदकं तत्र वसन्ति हंसा: तथैव शुष्कं परिवर्जयन्ति । हंसतुल्येन नरेण भाव्यं पुनस्त्यजन्ते पुनराश्रयन्ते ॥ ॥ अध्याय 7 श्लोक 13॥
शब्दार्थ -
जहाँ जल होता है हंस वहीं रहते हैं और जल सूख जाने पर उस स्थान को छोड़ देते हैं परन्तु मनुष्य को हंस के समान नहीं बनना चाहिए कि जो बार-बार छोड़ देते हैं और बार-बार आश्रय लेते हैं; अर्थात् मनुष्य को स्वार्थी नहीं होना चाहिए ।
भावार्थ-
जहाँ जल होता है, हंस वहीं बसते हैं, जब जल सूख जाता है, तब वे उस स्थान को त्याग देते हैं परन्तु मनुष्य को हंस के समान बार-बार आने-जाने वाला, स्वार्थी नहीं होना चाहिए।
विमर्श -
आचार्य चाणक्य उक्त श्लोक के माध्यम से बताते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे केवल स्वार्थ में न लगकर समाज के अन्य लोगों को भी देखना चाहिए। उसे दूसरों का उपकार करना चाहिए तभी वह पशु-पक्षी से अलग मनुष्य कर्म पूरा करता है।