आचार्य चाणक्य के अनुसार भाषाओं का ज्ञान
आचार्य चाणक्य के अनुसार भाषाओं का ज्ञान
गीर्वाणवाणीषु विशिष्टबुद्धि-स्तथापि भाषान्तरलोलुपोऽहम् ।
यथा सुराणाममृते स्थितेऽपि स्वर्गाङ्गनानामधरासवे रुचिः॥
शब्दार्थ-
नीतिशास्त्र के धुरन्धर विद्वान् चाणक्यजी कहते हैं - यद्यपि मैं सुर-देवभाषा (संस्कृत भाषा) में विशिष्ट बुद्धि रखता हूँ फिर भी मैं दूसरी भाषाओं का भी लोभी हूँ। जैसे अमृत के विद्यमान होने पर भी देवताओं की इच्छा स्वर्ग की स्त्रियों, अप्सराओं के अधर- आसव का पान करने में रहती है ।
भावार्थ- चाणक्यजी कहते हैं-यद्यपि मैं संस्कृत भाषा में विशेष बुद्धि रखता हूँ तथापि मैं दूसरी भाषाओं का भी लोभी हैं-जैसे अमृत का पान करने के पश्चात् भी देवताओं की इच्छा स्वर्ग की स्त्रियों (अप्सराओं) के अधर आसव का पान करने में रहती है।
विमर्श - आचार्य चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति को अधिक से अधिक भाषाओं ज्ञानार्थ प्रयत्न करना चाहिए।