स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती 2022 : जानिए स्वामी दयानंद सरस्वती के बारे में
स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती 2022
भारत में 19वीं सदी का
समय सामाजिक-धार्मिक पुनर्जागरण का समय माना जाता है। इस दौर में कई महान समाज
सुधारक हुए जिन्होंने तत्कालीन समाज को एक नई दिशा दी और जिनकी प्रासंगिकता आज भी
बनी हुई है। इनमें स्वामी दयानंद सरस्वती का नाम काफी प्रमुखता से लिया जाता है। उन्होंने
न केवल तात्कालिक सामाजिक-धार्मिक आंदोलन को आगे बढ़ाया, बल्कि भारतीय
राष्ट्रवाद को जगाने में भी इन्होंने अहम भूमिका निभाई।
स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय
स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को टंकारा गुजरात में हुआ था। इनके पिता का नाम अंबा शंकर तिवारी और माता का नाम यशोदाबाई था। स्वामी दयानंद सरस्वती जी के गुरु विरजानंद स्वामी थे। मात्र 21 साल की उम्र में ही स्वामी दयानंद सरस्वती ने सन्यास का मार्ग चुन लिया और उसके बाद देश और समाज की सेवा शुरू कर दी।
19वीं सदी में भारत में पाखंड और मूर्तिपूजा का काफी बोलबाला था। साथ ही उस वक्त समाज में कई सारी दूसरी सामाजिक कुरीतियां भी मौजूद थीं। गुरु विरजानंद से दीक्षा लेने के बाद स्वामी दयानंद सरस्वती ने वैदिक शास्त्रों का प्रचार प्रसार शुरू किया। इस दौरान उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण करते हुए तात्कालिक समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद करना शुरू किया। उन्होंने बाल विवाह और सती प्रथा का न केवल मुखर विरोध किया, बल्कि विधवा पुनर्विवाह और नारी शिक्षा के लिए लोगों को जागृत भी किया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहित किया और संप्रदाय तथा वर्ण के आधार पर सामाजिक विभाजन को नकारते हुए सभी धर्मों के लोगों को एक साथ लाने की कोशिश की। उन्होंने समाज में समानता का काफी समर्थन किया।
स्वामीजी ने सभी धर्मो के मूल ग्रन्थों का अध्ययन किया और उनमें मौजूद बुराइयों का खुलकर विरोध किया। इन्हें जो भी चीज गलत लगी उसका इन्होंने विरोध किया; वह चाहे ईसाई धर्म में हो, मुस्लिम धर्म में हो या फिर खुद सनातन धर्म में ही क्यों ना हो। मूर्ति पूजा के विरोधी स्वामी दयानंद सरस्वती एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। उनका कहना था कि अगर गंगा नहाने, सिर मुंडाने और भभूत मलने से स्वर्ग मिलता, तो मछली, भेड़ और गधा स्वर्ग के पहले अधिकारी होते।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदों में निहित ज्ञान को ही सबसे ऊपर, प्रामाणिक और अकाट्य माना। वेदों के इसी महत्ता को ध्यान में रखते हुए उन्होंने ‘वेदों की ओर लौटो, का नारा दिया। इसके साथ ही उन्होंने सुधारवादी और प्रगतिशील समाज की स्थापना के क्रम में 1875 में आर्य समाज का गठन किया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने विचारों का प्रचार करने के लिए ऋग्वेदादि भाष्य-भूमिका, ग्रंथ वेदभाष्य और सत्यार्थ प्रकाश ग्रंथों की रचना की। इसमें सत्यार्थ प्रकाश काफी लोकप्रिय हुआ।
भारतीय राष्ट्रवाद के प्रचार में भी स्वामी दयानंद सरस्वती ने अग्रणी भूमिका निभाते हुए इस बात की पुरजोर वकालत की कि “विदेशी शासन किसी भी रूप में स्वीकार करने योग्य नहीं होता।” गौरतलब है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सबसे महत्वपूर्ण शब्द ‘स्वराज्य’ की अलख जगाने का श्रेय स्वामी दयानंद सरस्वती को ही जाता है। जिसे बाद में बाल गंगाधर तिलक ने आगे बढ़ाते हुए “स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है” का नारा दिया।
ऐसा माना जाता है कि
स्वामी दयानंद सरस्वती के विचार 1857 के विद्रोह में प्रेरणा स्रोत के रूप में काम
किया। इसी के चलते अंग्रेजी सरकार इनसे नाराज हो गई और इसके परिणामस्वरूप एक साजिश
रचा गया जिसमें जहर देकर इनकी हत्या कर दी गई। इस प्रकार भारतीय पुनर्जागरण एवं
राष्ट्रवाद के अग्रज स्वामी दयानंद सरस्वती इस संसार से हमेशा-हमेशा के लिए विदा
हो गए, लेकिन उनके विचारों को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं
द्वारा आगे बढ़ाया गया और आज भी वह भारतीय समाज का मार्गदर्शन कर रहा है।