मध्यकालीन राजस्थान: मूर्तिकला एवं अन्य
मध्यकालीन राजस्थान: मूर्तिकला एवं अन्य
➽ मध्यकाल की मूर्तिकला में यद्यपि पहले की भव्यता नहीं दिखती किन्तु मंदिरो में मूर्तियाँ ही स्वतंत्र मूर्तियों का अभाव ही रहा । इस युग में धातु मूर्तियों का निर्माण बहुत बडी संख्या में हुआ और वह भी जैन तीर्थकरों की मूर्तियां व चौबीसी - जिसमें चौबीस तीर्थकर साथ बनाए जाते हैं, इनमें से अधिकांश तिथियुक्त है, इसलिए इनके क्रमिक विकास के अध्ययन में भी सुविधा है । पत्थर की मूर्तियों में इस अवधि में काले पत्थर का बहुत प्रयोग हुआ और वैद्याव धर्म के प्रभाव से कृष्ण की लगभग सभी मूर्तियां काले पत्थर की ही है जिनमें उनके गोवर्धनधारी अथवा वांसुरी वादक स्वरूप बनाया है संगीत विषयक साहित्य के लिए यह स्वर्ण युग रहा। यहां के राजाओं के आश्रय में कई उल्लेखनीय ग्रन्थों की रचना हुआ ।
➽ लोक शैलियों में पश्चिमी राजस्थान के लगा, मांगणियारों के गीत मध्यकाल में भी गाए जाते थे और लोकवाद्यों से उनका संगत होता था। मांड, नक्काल, नट बहु रूपिये, बाजीगर आदि राजा - प्रजा सभी का मनोरंजन करते थे। कठपुतली नचाने का काम माट लोग करते थे इसे राजघरानों में भी पसन्द किया जाता हैं जयपुर के जयगडू में तो कठपुतली के कार्यक्रम के लिए प्रेक्षागह ही बना हुआ है
➽ वस्त्रकला के क्षेत्र में रंग छपे वस्त्रों के लिए राजस्थान प्रसिद्ध रहा बाराँ, जयपुर, जोधपुर की बंधेज तथा अजमेर के छपे वस्त्रों का निर्यात मध्यकाल में हो रहा था जिसके उल्लेख ईस्ट इंडिया कंपनी के पत्र व्यवहार में मिलता है
➽ काष्ठ कला के भी कई केन्द्र विकसित हुए । चित्तौड के पास बस्सी में काष्ठ कला का बहुत बड़ा केन्द्र है । जहां लकड़ी की मूर्तियां, खिलौने, एवं ईसर गणगौर, काले गोरे भैरव बनते हैं । यहां के सुथार कांवड बनाते थे जिसे मध्यकालीन चित्रकथा कहा जा सकता है । 10-12 चित्रों वाली कथा जिसमे लकड़ी के पटरों पर रामकथा के प्रमुख दृश्य चित्रित होते थे और उन्हें इस तरह जोड़ा जाता था कि डबे के रूप में बन्द दरवाजों को खोलने से एक के बाद एक दृश्य सामने आते थे और कांवड गायक गा-गाकर कथा सुनाता था ।