मध्यकालीन राजस्थान चित्रकला
मध्यकालीन राजस्थान चित्रकला
➽ भित्ति चित्रण की परम्परा तो राजस्थान में प्राचीनकाल से चली आ रही थी किन्तु मध्यकाल (13वीं शती) में कागज के आगमन से चित्रण कला में विशेष प्रगति हुई नए-नए विषयों पर चित्र बने, ग्रन्थ चित्रित हुए । राजस्थानी शैली का रूप निश्चित हुआ और कई केन्द्रों में इसकी उपशैलियों में चित्रण हुआ ।
➽ राजस्थानी चित्रों को प्रकाश में लाने का श्रेय कला इतिहासकार आनन्द कुमार स्वामी को हैं । सर्वप्रथम उन्होंने ही अपने लेखों व पुस्तकों-राजपूत पेंटिंग के माध्यम से इनका परिचय कला जगत को कराया उसके बाद रायकृष्ण दास, डॉ. मोतीचन्द्र डस्तु जी. आर्चर, कार्ल खण्डालवाला एवं एम. एस. रंधावा आदि ने इन्हें प्रकाशित कर विद्वत जगत को इनकी जानकारी दी ।
➽ राजस्थानी शैली का उदभव एवं विकास मध्यकाल में ही हुआ अतः आरम्भ में इसकी उत्पत्ति के विषय में बताते हुए आरम्भिक स्वरूप और उपशैलियों का परिचय यहाँ दिया जाएगा । ईसा की प्रथम सहस्राब्दी के अन्त तक चित्रकला की जो शैली निश्चित हो गई थी उसका पश्चिम भारतीय स्वरूप था - 'परली आँख से युक्त चेहरे जिनके नाक-नक्श तीखे थे और वस्त्रों के अंकन में कीलापन था । आकृतियों की कद काठी छरहरी थी। शुरुआत होती है तालपत्रों व भुर्ज पत्रों पर चित्रण से, पहले कुछ आलंकारिक अभिप्राय फिर देवी-देवताओ के अंकन मूलतः विषय धार्मिक थे, जैन धार्मिक कथाएं । इसीलिए इसे जैन शैली की संज्ञा दी गई, बाद में वसन्त विलास जैसे शृंगारिक विषयों का अंकन भी इसी शैली में मिला तो इसे जैन के स्थान पर पश्चमी भारतीय शैली कहा जाने लगा । जब जौनपुर (पूर्वी उत्तरप्रदेश) में बनी कल्पसूत्र की एक प्रति मिली तो पश्चिमी भारतीय नाम भी उचित नहीं लगा, इस पर रायकृष्ण दास जी ने इसे अजन्ता का अपभ्रंश मानते हुए 'अपभ्रंश शैली' कहा जो आगे चलता रहा.
➽ पूर्वी भारत के कुछ भाग को छोड़कर लगभग समस्त उत्तर भारत व गुजरात तक परली आँख वाली शैली में ही चित्र बनते रहे, कागज आने के बाद मध्यम अवश्य बदला किन्तु पोथियों का आकार वही रहा 3-4 चौडी और 10-12" लंबे पत्र जिसे दो भागों में बांट कर जमगज लिखा जाता था, बीच में ग्रन्थ बांधने के लिए एक छेद हेता था और बीच-बीच में मुख्य घटनाएं चित्रित कर दी जाती थी । रंग सीमित होते थे लाल, हरा, पीला आदि मुख्य रंग । यह क्रम 15वीं शती तक चला और धीरे-धीरे परती आँख गायब हो गई, चेहरे एक चश्मी हो गए, रेखाओं का नुकीलापन कम हो गया और रंगों में भी विविधता आई । 1516 आगरा के अरण्यपर्व, पालम में बने आदिनाथ और 1545 में गोपाचल दुर्ग (ग्वालियर) में बने ग्रन्थों में जो चित्र बने ये ही राजस्थानी शैली के पूर्व रूप हैं, जिनका पूर्ण विकास 17वीं शती मेवाड, बूंदी व बीकानेर के चित्रों में मिलता है ।
मेवाड :
➽ 1605 ई. चावण्ड मेवाड में बनी रागमाला, राजस्थान की भौगोलिक सीमा बनी, अब तक प्राप्त प्राचीनतम तिथियुक्त चित्र है। इसमें चेहरे भारी है, आकृतियां छोटी हैं और इनका आकार भी पोथी चित्रों की तरह नहीं होकर चौकोर है। चित्रों का विषय और उनके संयोजन में भी परिवर्तन दिखाई देता हैं, चित्रकार निसारदीन है। यह चित्रावली लोकशैली के बहुत निकट है। किन्तु कुछ वर्षों में ही मेवाडी शैली में उसका निजत्व दिखाई देने लगता है, रंग मीने जैसे चमकदार हो गए, चित्र संयोजनों में कलाकारों का सधा हुआ हाथ दिखने लगता हैं और रेखाएं स्पष्ट एवं सशक्त हो गई । मेवाड की शैली शृंगारिक ही रही हों, लता गुल्मों और पशु-पक्षियों के अंकन में थोड़ी वास्तविकता तो है परन्तु इतनी ही कि पहचान हो जाए । व्यक्ति चित्रण में यर्थाथता अवश्य दिखती है और लगता है कि मेवाडी चित्रकार यथार्थ चित्रण कर तो सकता था किन्तु वह अपनी शृंगारिकता वाली पहचान बनाए रखना चाहता था। 1627 में बनी साहबदीन की रागमाला इसका अच्छा उदाहरण है.
➽ मेवाड़ की अगली तिथियुक्त चित्रावली का विषय रामायण है जो 1648 में बनी । मनोहर नामक चित्रकार की बनाई इस चित्रावली को देखकर ऐसा लगता है मानों कथा देख रहे हों। 17वीं शती के अन्त में महाराणा राज जयसिंह के समय के बने चित्रों की संख्या देखकर कहना पड़ता है कि मेवाडी चित्रकारों ने संभवतः कोई क्षेत्र नहीं छोड़ा, सभी विषयों पर उनकी तूलिका चली संस्कृत के ग्रन्थ स्कंदपुराण का काशी खण्ड, एकलिंग माहात्मय कादमरी पंचतंत्र, भगवद्गीता, भागवत, रसिक प्रिया, रागमाला, मालती माधव और मुल्ला दो प्याज़ा आदि पर हजारों की संख्या में चित्र बने ।
➽ 17वीं शती के अन्त तक आते मेवाडी चित्रों की विषय वस्तु में बदलाव आता हैं, चित्रकार व स्वयं महाराणा, राजदरबार में होने वाले त्योहारों, उत्सवों, शिकार यात्राओं में अधिक रूचि लेने लगे । अब रस चित्रों का स्थान राजसी वैभव के प्रदर्शन ने ले लिया। परिणामस्वरूप बड़े बड़े चित्र बने जिनमें महाराणा अपने दरबारियों के साथ होली खेल रहे हैं, दशहरे पर खेजडी पूजन कर रहे हैं अथवा महलों में संगीत सुन रहे हैं। 18वीं शती के इन चित्रों में प्रलेखन को बहुत महत्व दिया गया जिन घटनाओं का चित्रण होता था उनका पूरा विवरण चित्र के पीछे लिखा जाता था। धीरे-धीरे मेवाडी शैली पर 19वीं शती में बाहरी प्रभाव भी आया और 19वीं शती के मध्य में फोटोग्राफी के आने पर चित्रों की उपयोगिता सीमित हो गई ।
बूंदी
➽ 16वीं शती के अन्त में चुनार दुर्ग (उत्तरप्रदेश) में बनी एक रागमाला ( 1592 इ) बूंदी शैली की शुरुआत मानी जाती है क्योंकि उस समय चुनार के अधिपति बूंदी के राव भोज (1585-1607) थे, यद्यपि इन चित्रों पर आश्रयदाता का नाम नहीं है। यही नहीं बाद में बने बूंदी के तिथियुक्त चित्रों की शैली भी इन चित्रों के निकट हैं ।
➽ 17वी शती के चित्रों में रनिवासों के बहुत से फुटकर चित्र भारतीय और विदेशी संग्रहालय में हैं जिनमें स्त्रियों को तिलार खेलते और दाना चुगते कबूतरों को देखते हुए बनाया गया हैं । चित्रायलियों में केशवदास की रसिक प्रिया, भागवत, कृष्ण रुक्मिणीरी वेली एवं रागमाला पर आधारित चित्रों को रख सकते हैं । महाराजा जयपुर के निजी संग्रह में एक लम्बे खरडे पर बने काशी के घाटों का अंकन (रेखाचित्र) अपने ढंग का अनोखा काम है। हाडौती क्षेत्र अपनी नदियों, बन क्षेत्रों वहाँ रहने वाली जीव जन्तु और हरीतिमा के लिए प्रसिद्ध है, ये सभी चित्रों में मिलते हैं। कलाकारों ने आम और केले के पेड, उनसे लिपटी लताओं और पुष्प गुच्छों का बड़ा सजीव अंकन किया है। इन चित्रों में बूंदी के स्थापत्य को बड़े विस्तार से दिखाया गया है कि यदि चेहरे नहीं भी देखें तो स्थापत्य देखकर बूंदी कलम की पहचान की जा सकती है। चित्रकार की पैनी दृष्टि कबूतरों की विभिन्न जातियों के अंकन में दिखाई देती है । बूंदी के चित्रों में स्त्री आकृतियां लंबोतरी, आखे कमलदल की भांति, भौहे घनी व मुखाकृति गोल होती है । पुरुषाकृतियों की पगडी थोडी नीचे की ओर झुकी हुई होती है । चित्रकारों में अहमद, रामलाल, सुरजन, श्री किशन, मीरबगस, डालू आदि प्रमुख हैं ।
बीकानेर
➽ 17वीं शती बीकानेर में बहुत चित्र बने जिनमें भागवत, रागमाला और दशावतार की चित्रावलियाँ उल्लेखनीय हैं। महाराजा रायसिंह (1571 - 1611 ) बहुत से मुगल चित्रकारों को आगरे से बीकानेर लाए थे जिन्होंने यहाँ चित्र बनाए । रायसिंह के उत्तराधिकारियों करनीसंह (1631 -1669) और अनूपसिंह (1669-1698) के समय में चित्रकारों को खूब प्रोत्साहित किया गया। इस समय के बने व्यक्ति चित्रों में व्यक्ति साम्य के साथ-साथ मुगल प्रभाव स्पष्ट है, अनूपसिंह के समय में बने का चित्रों में दकनी कलम का प्रभाव भी दिखता है क्योंकि उनकी नियुक्ति दकन में थी और उनके चित्रकार महाराजा के साथ रहते हुए वहां के चित्रकारों के सम्पर्क में आए होंगे। शाहजहाँ के समय अधिक मुगल चित्रकार बीकानेर आए क्योंकि बादशाह के रूचि स्थापत्य में अधिक थी और बीकानेर में करनसिह का शासन था जो चित्रकला के पारखी थे । इसका अनुमान एक चित्र से लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने वैकुण्ठ स्थित लक्ष्मीनारायण को चित्रित कराया लक्ष्मीनारायण उनके इष्ट देवता थे, स्वण में उन्हें वैकुण्ठ दर्शन हुए महाराजा ने अपने सक के विषय में चित्रकार को बताकर इस विषय को चित्रित कराया। यहां के चित्रकारों में रूकनुद्दीन, अलीरजा शाहदीन हामिद अहमद, कासिम शाह मुहम्मद और हाशिम के नाम और तिथि से युक्त चित्र मिलते हैं जो बीकानेर के जूनागढ़, भारत कला भवन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी और राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली के संग्रहों में हैं, इनमें मुगल कलम की बारीकियां और रंग योजना देखने को मिलती है । 18वीं शती बीकानेरी चित्रकला में कोई महत्त्वपूर्ण कृति नहीं बनी किन्तु नियमित ढंग से चित्र बनते रहे ।
18वीं शती राजस्थान के मेवाड, बूंदी एवं बीकानेर राज्यों में चित्र तो बहुत बने परन्तु चित्रों में बह ताजगी नहीं रही जो 17वीं शती में थी। चित्रों का संयोजन नए ढंग से हुआ किन्तु नए विषय नहीं चित्रित हुए रागमाला, बारहमासा, गीतगोविन्द आदि की ही पुनरावृत्ति होती रही । रेखांकन में स्थिरता आ गई, आकृतियों में गति नही दिखाई देती, वे कठपुतली की तरह खड़ी दिखती हैं, रंगों के चुनाव में भी कलाकर की मौलिकता और सृजनशीलता नहीं है। इसके विपरीत जयपुर, किशनगढ़, कोटा, मारवाड - जोधपुर और जैसलमेर में अत्यधिक चित्र बने, इनमें रंग तेज है और रेखाएं प्रवाह पूर्ण । नए विषयों के आने से कलाकारों को नए संयोजन करने पडे जिससे विविधता आई । 18-19वीं शती कोटा में शिकार दृश्यों का अंकन हुआ जिसमें जंगली जानवरों की गीत देखने योग्य है। जंगल के वृक्षों एवं हरियाली का अंकन तो इतना यथार्थ दिखाई देता है कि प्रसिद्ध कला इतिहासकार डब्ल्यू. जी. आर्चर इन दृश्यों को प्रसिद्ध यूरोपीय कलाकार रूसो की कृतियों के समकक्ष रखते हैं.
जयपुर
➽ जयपुर की चित्रकला में भागवत गीतगोविन्द एवं राधा-कृष्ण, रागमाला, देही भागवत और व्यक्ति चित्रों का वर्चस्व बना रहा। सवाई जयसिंह के समय में रागमाला, बारहमासा, ईश्वरी सिंह के समय के बने जानवरों की लड़ाई के दृश्य प्रतापसिंह के समय का भागवत, दुर्गापाठ, कृष्ण लीला और गीतगोविन्द प्रमुख हैं साहिबराम घासी, सालिगराम और रामजी प्रमुख चित्रकार हुए ।
किशनगढ़
➽ किशनगढ़ में सावंतसिंह के समय में निहालचन्द प्रमुख चित्रकार झा जिसकी कृति बणी ठणी, राजस्थानी चित्रकला का पर्याय बन गई। वहां भी चित्रकला का केन्द्र राधा-कृष्ण और गीत गोविन्द ही रहा
जोधपुर
➽ जोधपुर में 17वीं शती में राजाओं की कुछ तस्वीरें तो मुगल प्रभाव में बनी थीं, किन्तु विजयीसंह के चित्रकारों ने रामायण और हितोपदेश पर आधारित चित्रावलियां तैयार की जो वस्तुतः भव्य हैं । महाराजा मानसिंह नाथ सम्प्रदाय के अनुयायी थे, अतएव उनके समय में शिवचरित, सिद्ध सिद्धान्त पद्धति पर आधारित चित्र बने । मानसिंह जी के स्वयं के व्यक्ति चित्र और उनके गुरु आयसनाथ देवनाथ चित्र भी बहुत बड़ी संख्या में बने । जिसमें उन्हें पूजा-पाठ करते हुए चित्रित किया गया हैं। मानसिंह स्वयं अच्छे कवि एवं संगीतज्ञ थे इसलिये कई चित्रों में उन्हें नृत्य संगीत सुनते हुए भी बनाया है। इन सभी चित्रों में दरबारी वैभव तो दिखाई देता है किन्तु जोधपुर कलम की तैयारी और सफाई भी स्पष्ट है, कहीं कोई कमी नहीं है ।
पिछबई और फडचित्र:
नाथद्वारा शैली एवं पिछवई 17वीं शती में जब श्रीनाथजी कृष्ण का एक स्वरूप, मेवाड के सिहाड नामक ग्राम में स्थापित किया गया तो नित्य पूजा, उत्सवों तथा त्यौहारों के लिए चित्र • वाले कलाकारों की आवश्यकता हुई तब उदयपुर तथा आसपास के ग्रामीण क्षेत्र के चित्रकार यहां आकर बस गए । इन लोगों ने एक विशिष्ट शैली विकसित की जो नाथद्वारा शैली कहलाई । इसमें कृष्ण का स्वरूप काले पत्थर का है। विग्रह के साथ विभिन्न झांकियों और मन्दिरों के गोस्वामियों के व्यक्ति चित्र बनने लगे। चित्रों में पशु-पक्षियों तथा पत्र- गुणों का अंकन तो शृंगारिक ही है पर जलि चित्रण में स्वाभविकता है। ये चित्र कागज पर बनते थे किन्तु कृष्ण मन्दिरों में पिछवई की एक परंपरा है, निज गृह में मूर्ति के पीछे अवसर के अनुकूल एक परदा लगता है जो पिछवई कहलाता है । पिछवाई कपडे पर बनती है और वैष्णव त्योहारों और उत्सवों के अनुसार उनके विषय बनाए जाते यथा शरद् पूर्णिमा पर मूर्ति श्वेत अथवा मोतिया रंगत का परिधान पहनती तो बसन्त में पीला । वर्षा ऋतु में मोरकुटी की पिछवई बनती जिसमें नृत्य करते हुए मयूर होते तो अन्नकूट के अवसर पर लगने वाली पिछवई में बर्तनों में सजे विविध प्रकार के व्यंजन । यहां आने वाले भक्तों के लिए कृष्ण लीला के चित्र बहुत बड़ी संख्या में बनते थे और आज भी बन रहे हैं। 19वीं शती के उत्तरार्द्ध और 20वीं शती के पूर्वार्द्ध में इन्हीं चित्रों के आधार पर भारी संख्या में कैलेण्डर बने जो मध्यमवर्गीय भारतीय घरों के पूजा गृह की शोभा बने । नाथद्वारा में हाथी दांत पर चित्र बनाने की प्रथा भी थी ।
फड या पटचित्र कपड़ों पर बने वे चित्र हैं जिन्हें देखकर भोपा (गायक) कथा गायन करता है । यह पूर्णतः लोक शैली है, समाजसेवी लोग जिन्होंने सेवा में अपने जीवन की बलि दे दी, उनके प्रति सम्मान प्रकट करने का माध्यम है। फडू 10-12 मीटर लम्बे और लगभग पौन मीटर चौडे कपडे पर चित्रित होते हैं, इनका विषय नायक के जीवन की विभिन्न घटनाएं होती हैं। मेवाड के शाहपुरा में फड़ बनाने वाले जोशी चित्रकार रहते हैं जो लोक नायक पाबूजी ओर देवनारायण के फड बनाते हैं, मोटे रंगों से बने इनके चित्रों में चेहरे भारी और आकृतियां छोटी बनती हूँ। चित्रों का भाव मूलतः शृंगारिक ही होती है ।