मध्यकालीन राजस्थान जल स्थापत्य कला
मध्यकालीन राजस्थान जल स्थापत्य कला
➽ अधिकांश भाग मरूस्थल होने के कारण राजस्थान में पानी को संजो कर रखने के लिए विभिन्न तरीके अपनाए जाते रहे हैं। वर्षा के पानी को इस तरह इकट्ठा करके रखा जाता है कि अगली वर्षा तक उससे आवश्यकताएं पूरी हो सकें मनुष्यों एवं पशुओं के पीने, नहाने धोने के लिए पानी मिले - और खेतों में सिंचाई भी हो सके। प्रदेश में पानी का इतना महत्व था कि बहुत से मध्यकालीन स्थानों के नाम ही कुंओं और तालाबों के नाम से जुड़े हुए थे जैसे किरात कूप (किराडू- बाडमेर), पलास कूपिका (फलासिया मेवाड), प्रहलाद कूप (पल्लू-बीकानेर), सरोवरों के नाम पर कोडमदेसर, राजलदेसर, तालाब के नाम पर नागदा (नाग- हद) आदि ।
➽ पानी को संजोने, इकट्ठा करने के लिए निर्माण-स्थापत्य निर्माण की आवश्यकता हुई जिसके लिए यहाँ सुन्दर कुंए कुंड, टांके और बावडिया बनीं ।
➽ कुएं का निर्माण आसान था, ग्रामीण लोग स्वयं खोदते थे, जब पानी निकल आता तो किनारे पक्के कर दिये जाते थे, बडे कुओं से लाव-चडस से पानी निकाला जाता था। जल जीवन है इसलिए समाज के सम्पन्न लोग, और कई बार सामान्य लोग भी जन हितार्थ कुंए खुदवाते थे। ऐसे कुंए बहुत गहरे और बड़े होते थे इनके चारों ओर ऊंचा चबूतरा होता था जिसके चारों कोनों पर खम्भे बने होते इन पर आराईश का सुन्दर काम होता था । यहाँ पशुओं के लिए पानी पीने की अलग व्यवस्था होती थी । शेखावटी के रेतीले क्षेत्र में इन कुओं का विशेष महत्व था । यही कारण है कि इस क्षेत्र में बड़े सुन्दर कुंए मिलते हैं ।
➽ टांके पक्के होते थे इनमें भी बरसात का पानी ही इकट्ठा किया जाता था, कहीं ढलान पर एक पक्की हौज बना दी जाती थी जिसके आस-पास नालियां और बड़ा टांका हो तो नहरे बनी होती थी जिनसे होकर पानी हौज (टांका) में इकट्ठा हो जाता था, इसे ढंक कर ही रखते थे ताकि किसी प्रकार की गन्दगी न जा पाए। इसका वास्तु सादा होता था। टांके निजी तथा सार्वजनिक दोनों प्रकार के होते थे। निजी टांके घर के एक हिस्से में जमीन के नीचे बनाए जाते थे ताकि उपर का स्थान काम में आए और पानी नीचे स्वच्छ एवं सुरक्षित रहे । टांकों का सर्वोत्तम उदाहरण जयगढ़ के टांके हैं ।
➽ बाबडिया स्थापत्य की दृष्टि से बावडियां बहुत ही आकर्षक होती हैं, उपयोगिता तो अपने स्थान पर है ही किन्तु इनके निर्माण में हास्तु सौन्दर्य का विशेष ध्यान रखा जाता था । बावड़ी कई मंजिलों की होती थी, इसमें सीढ़ियां बनी होती थीं और आखिर में एक कुंआ भी होता था क्योंकि जब बावडी में पानी कम हो जाता तो लोग कुंए से पानी निकाल सकें। बीच के आयताकार भाग में पानी होता था, दोनों ओर बरामदे जिनमें देवी देवताओं की मूर्तियाँ होती थी । लोग स्नान करने के बाद पूजा-पाठ भी यही कर लेते ।
➽ मध्यकालीन राजस्थान के जन-जीवन में बावड़ियों का बहुत महत्व था, प्यासे को पानी पिलाना पुण्यकर्म समझा जाता है, इस विचार से प्रेरित हो बहुत से साधन सम्पन्न व्यक्तियों ने बावडियां एवं कुंडों का निर्माण करवाया उनमें से कुछ प्रमुख का परिचय नीचे दिया जा रहा हैं
➽ जोधपुर के राव गंगा की पत्नी रानी उत्तमदे ने पदम सागर बनवाया था इन्हीं की तीसरी रानी ने जो सिरोही के राव जगमाल की पुत्री थी ने इस तालाब के विस्तार में सहयोग दिया । इस पुण्य कार्य में केवल रानियां ही सहयोग नहीं करती थी वरन शासकों की उप-पत्नियाँ और अन्य समर्थ लोग भी कुएं, बावड़ियों का निर्माण करवाते थे । उदाहरण के लिए महाराजा गजसिंह प्रथम की मुस्लिम पासवान अनारा बेगम ने एक बावडी बनवाई थी जो आज भी विद्याशाला में विद्यमान है। इन्हीं महाराजा गजसिंह की दूसरी मुस्लिम परदायत सुगंधा ने भी एक बावडी बनवाई थी जो जोशियों की बगीची में थी अब इसे पाट दिया गया । उप-पत्नियों द्वारा बनाए गए जलाशयों में गुलाब सागर प्रमुख है । गुलाबराय महाराजा विजयसिंह (1753-1793 ) की पासवान थी। स्वभाव से धार्मिक होने के कारण राज्य में इसका बड़ा दबदबा था इसका निर्माण सवंत 1837 (1780ई.) में शुरू हुआ और संवत 1844 (1787 ई) में पुरा हुआ। यह विशाल सागर शहर के बीच बना हुआ है और आज भी नगर के जनजीवन से जुड़ा हुआ है । देवझूलनी एकादशी, गणेश चतुर्थी आदि त्यौहारों पर यहाँ मेले लगते है। गुलाबराय अपने पुत्र तेजसिंह की मृत्यु के बाद इस बड़े सरोवर से लगा एक छोटा सरोवर भी बनवाया जो 'गुलाब सागर का बच्चा' कहलाता है ।
➽ महाराणा राजसिंह (1652- 80) की रानी रामरसदे की बनवाई त्रिमुखी बावडी उल्लेखनीय है, इसमें तीन ओर से सीढ़ियां बनी हैं और प्रत्येक दिशा में ये सीढ़ियां तीन खण्डों में विभक्त हैं । प्रत्येक खण्ड में नौ सीढ़ियाँ है और नौ सीढ़ियों के समाप्त होने पर एक चबूतरा बना है, इस चबूतरे पर स्तम्भयुक्त मण्डप है इस प्रकार तीनों सोपानों को मिलाकर कुल 81 सीढ़ियां और 9 स्तम्भ युक्त मण्डप हैं इन मण्डपों के बीच आले में देव मूर्तियां भी थी जिनमें से बहुत सी अब गायब हो गई हैं । महाराणा राजसिंह के समय की बनी इस बावड़ी की बनावट और इसके नौ सोपान, वास्तु की दृष्टि से राजसमन्द की नौचौकी के बहुत निकट हैं जो स्वाभाविक है क्योंकि एक तो समय वही था दूसरी बात यह भी हो सकती है कि महारानी ने उन्हीं कारीगरों की सेवाये ली हों त्रिमुखी बावडी का लेख महत्वपूर्ण है, इसमें बापा रावल से लेकर महाराणा राजसिंह तक की मेवाड की वंशावली महाराणा जगतसिंह के समय की प्रमुख घटनाएं, दान एवं निर्माण तथा महाराणा राजसिंह के समय की घटनाएं भी वर्णित हैं । लेख की भाषा यों तो संस्कृत है पर मेवाडी का पुट भी कहीं कहीं मिलता है । मुख्य शिल्पी नाथू गौड़ था और प्रशस्ति का रचयिता रणछोड भट्ट जिसने नौ चौकी के शिलालेख की रचना की थी ।
➽ डूंगरपुर से थोडी दूर लगभग दो किलोमीटर पर स्थित है नौलखा बावड़ी । इस बावडी का निर्माण महारावल आसकरण (1549-1580) की ज्येष्ठ महारानी और महारावल सहस्त्रमल (1580-1606) की माता चौहान प्रीमल देवी, जिनके पीहर का नाम तारबाई था, ने सवंत 1659 (1602 ई.) में करवाया था। बावड़ी पर लगे परेवा-पत्थर पर उत्कीर्ण लेख में वंश परिचय के बाद तारबाई की तीर्थ यात्रा की चर्चा हुई हैं जिसमें कहा गया है कि वह आबू द्वारिका और एकलिंग जी के दर्शनों के लिए गई। बावडी के मुख्य शिल्पी (सिलावट) जयवंत के पुत्र लीलाधर को वस्त्र, वाहन और भूमि देने तथा वैरामीगर को भी भूमि देने का वर्णन किया गया है। प्रशस्ति में यह भी कहा गया है वैशाख शुक्ला 5,1638 वि. (1581 ई) को बावडी खोदने का मुहूर्त्त किया गया और कार्त्तिक कृष्ण 5,1643 वि. (1586 ई) को प्रतिष्ठा की गई और कार्तिक कृष्ण 5 को ही व्यास बैकुण्ठ ने यह प्रशस्ति लिखी.
➽ बूंदी स्थित रानी जी की बाव (बावडी) उपयोगिता के साथ ही कला की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, इसमें बडे सुन्दर चित्र बने हैं तथा देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं। बूंदी नगर के मध्य स्थित इस बावडी का निर्माण महाराव अनिरुद्ध सिंह की पली नाथावत लाडकंवर ने 1757 वि. (1700 ई.) में करवाया था इस बावडी के तोरण बडे आकर्षक हैं और बिन्दु के दशावतारों और भैरव की मूर्तिया भी। यहां का लेख महत्वपूर्ण है । पहली सीढ़ी के पास ही सफेद संगमरमर की पट्टिका पर खुदे 31 पंक्तियों के इस लेख की शुरुआत गणपति वंदना से होती है। पारम्परिक वंश परिचय के बाद यह कहा गया है कि लाडकंवर ने पुण्यार्थ यह बावड़ी कराई, पुरोहितों के नाम दिए हैं, बावडी के कामदार दारोगा पुहाल कान्ह जी मुशरफ रघुनाथ, उसतागार पटेल उदाराम एवं पटेल मीरू थे, जोशी श्रीपति ने इस लेख की संरचना की और अंत में महारानी की दो सेविकाओं बडारणि लाछा और बडारणि सुखा के नाम भी दिए गए हैं।
➽ कुंए, बावड़ियों ओर अन्य प्रकार के जलाशयों के निर्माण में समृद्ध वर्ग और राज परिवार की महिलाओं का योगदान अधिक रहा किन्तु अन्य लोग भी जो निर्माण करशने में समर्थ थे, पीछे नहीं रहे दौसा में 'सालू की बावड़ी' संभवत: नागर ब्राह्मण परिवार की महिला द्वारा बनवायी गयी थी, यह आज भी विद्यमान है, इसी प्रकार कूकस (आंबेर के पास) में प्रोहताणी की बावडी किसी पुरोहित परिवार की महिला द्वारा बनवायी गयी थी ।
➽ बावडियों का ही एक प्रकार था कुंड कुंड खुले होते थे, इनमें पक्की सीढ़ियां बनी होती थी किन्तु कहीं-कहीं बड़े एवं गहरे कुंडों में पानी खींचने की व्यवस्था भी होती थी जैसे आबानेरी की चांद में। कुंडों का सर्वोत्तम उदाहरण है आवेर स्थित पन्ना मियां का कुंड । इसके कोनों पर छतरियां बनी हुई हैं और पानी तक जाने के लिए सीढ़ियां इसका निर्माण सवाई जयसिंह के विश्वस्त सेवक पन्ना मिया ने करवाया था ।