मध्यकालीन राजस्थान स्थापत्य कला :सुरक्षात्मक दुर्ग
मध्यकालीन राजस्थान स्थापत्य कला :सुरक्षात्मक दुर्ग
मध्यकालीन राजस्थान स्थापत्य कला सुरक्षा संबंधी स्थापत्य में चौकियाँ और छोटे-छोटे दुर्ग (किले) आते है। चौकियों में 'कुछ सैनिक रहते थे जो जो बदलते रहते थे, इनका स्थापत्य सामान्य होता था किन्तु दुर्ग वस्तुतः साधन सम्पन्न स्थान थे जहां से शासक सैन्य संचालन करता था ।
➽ शास्त्रों में किलों के प्रकार आदि की विस्तृत चर्चा हुई है और इनकी विशेषताएं भी बताई गई हैं, किन्तु दुर्गम होना सबसे मुख्य विशेषता थी ताकि शत्रु आसानी से नहीं पहुंच सके और यदि आक्रमण हो जाए तो छिप कर लड़ा जा सके, गुप्त सुरंगों से सेनाएं, हथियार व खाद्य सामग्री मंगाई जा सके । पहाड़ों पर बने किलों में यही सुविधा थी, अन्दर बैठी सेना ऊपर से शत्रु को देख कर सकती थी किन्तु बाहर वाले नीचे से अधिक नुकसान नहीं पहुंचा सकते थे । वायु मार्ग से हमले उन दिनों होते नहीं थे, इसीलिए मनु ने भी सभी दुर्गा में गिरि दुर्गा को ही श्रेष्ठ माना है ।
➽ स्थिति और बनाबट की दृष्टि से राजस्थान के गिरि दुर्ग में चित्तौड सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, कहावत प्रसिद्ध है- गढ़ तो चित्तौड़गढ़ और सब गढैया चित्रांग मौर्य ने इसका निर्माण 7 वीं शती में कराया था, बाद में गुहिल बप्पा रावल ने मान मौर्य से इस किले को लेकर अपनी राजधानी बनाई । 7वीं शती से लेकर आज तक इस किले का महत्व उतना ही बना हुआ है यहीं चौदह सौ वर्षा के इतिहास का अध्ययन किया जा सकता है राजनीतिक व सामाजिक उतार-चढाव को देखा जा सकता हैं- किला धीरे-धीरे नगर बना, राजा, उसके परिवार और सैनिकों के साथ प्रजा भी सुरक्षा की दृष्टि से अन्दर ही रहती थी, वहाँ पानी का समुचित प्रबन्ध था, खेती होती थी, राजा प्रजा सब सुरक्षित थे । सीधी चढ़ाई के बाद घुमाव दार सात दरवाजों को पार करने के बाद ही किले में पहुंचा जा सकता था। यह भी जानने योग्य है कि किस प्रकार तत्कालीन हथियारों से 1303 में अलाउद्दीन खिलजी, 1533 में गुजरात के बहादुरशाह और 1579 में मुगल सम्राट अकबर ने इस पर विजय प्राप्त कीया जिसमें तोपों को बैल गाडियों से बढ़ाया गया था । 'अकबरनामा के चित्र इसके साक्षी हैं.
➽ गिरि दुर्गा में ऐसा ही महत्वपूर्ण है, सवाई माधोपुर के निकट स्थित रणथम्भौर का किला जिसके निर्माता के विषय में निश्चित रूप से तो कुछ नहीं कहा जा सकता पर जन मानस में यह चौहानों का किला ही प्रसिद्ध है, अलाउद्दीन के बाद समय-समय पर यह दिल्ली सुलतानों के हाथ में ही रहा और अंततः मुगलों के पास आ गया जिसे बादशाह ने 1754 में जयपुर के महाराजा सवाई माधोसिंह प्रथम को उसकी सेवाओं के बदले में दे दिया ।
➽ सामान्यतया दुर्ग पत्थरों को काट कर ही बनाए गए हैं, अन्दर के महलात चूना, सुर्खी एवं पत्थर आदि से ही बनते थे, ऊपर लोई का पलस्तर होता था। मोटे तौर पर किलों के निर्माण की तिथि 7वीं से 18वीं शती तक है और इनका उपयोग आज तक हो रहा हैं, स्वाभाविक है कि बदलती जीवन शैली का इन पर प्रभाव पड़े और आवश्यकतानुसार फेर बदल हो । उदाहरण के लिए जयगढ़ में पुराने और नए ढंग के शौचालय एक साथ देखे जा सकते हैं, इसी प्रकार घोड़ों के अस्तबल का उपयोग सिपाहियों की बैरक के रूप में होने लगा ।
➽ किले सुरक्षा से जुडे हुए थे यही कारण था कि बदलती युद्ध शैली, हथियारों को बनाने की तकनीक एवं अस्त्र-शस्त्रों में होने वाले नए आविष्कारों के साथ उनके स्थापत्य में कुछ परिवर्तन आए । युद्ध की प्रणाली बदली तो सामग्री बदली और सामग्री बदली तो भण्डारण की व्यवस्था में परिवर्तन आया पहले केवल तीर-धनुष एवं ढाल-तलवारों के रखने की व्यवस्था करनी होती थी, जब बारुद का आविष्कार हुआ तो तोपें बनी, बन्दूकें बनी इन्हें रखने के साथ बारुद के भण्डार बने, यही नहीं बारुद निर्माण में प्रयुक्त होने वाली सामग्री, शोरा आदि को भी किलों में रखा जाता था ताकि आवश्यकता पड़ने पर बही बारुद तैयार कर ली जाए ।
➽ किलों के दरवाजे यों तो लकड़ी के होते थे किन्तु उन पर लोहे की मोटी चादरें बढ़ी होती थी और उनमें बाहर की ओर नुकीली कीलें लगी होती थी । युद्धकाल में जब ये दरवाजे बन्द होते थे तो हाथियों के धक्के से इन्हें खोलने की कोशिश की जाती थी, उस समय हाथियों को हटाने के लिए किले के अन्दर से गर्म तेल डाला जाता था । समृद्ध किलों में तेल के विशाल भण्डार होते थे, तेल सीधद्धों चमडे के बने पात्रों में रखा जाता था ।
➽ स्थापत्य की दृष्टि से देखें तो बाहरी तौर पर किलों की बनावट वही रही, पर्वतों की चोटियों पर, खाई से घिरे किले अथवा नदी पर स्थित दुर्ग । स्थापत्य की इकाईयों के नाम भी वही रहे, काम बदल गए, उदाहरण के लिए किले के प्राचीर में बने मोखों से बाण (तीर) छोड़े जाते थे | योद्धा प्राचीर के पीछे होते थे, ऊपर बने मोखों से शत्रु को देखते ही निशाना साधते, 16वीं शती में जब बन्दूकें आई तो इन्हीं मोखों से बन्दूकों के वार होने लगे। जब इन मोखों से तीर चलते थे तो इन्हें तीरकश कहा जाता था किन्तु जब यहां से बन्दूकें चलने लगी तब भी इनका नाम 'तीरकश ही रहा। ऐसे अनेक उदाहरण हैं ।
➽ 13वीं शती से लें तो पिछले 6-7 सौ वर्षा में राजस्थान में सैकड़ों की संख्या में किले बने । कई राजवंश आए, उनके शासकों ने अपने राज्य की सुरक्षा के लिए सुदृढ दुर्गा का निर्माण करवाया, आगे आने वालों ने समय-समय पर उनमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी कराया किन्तु थानों की प्रासंगिकता बनी रही । जयगढ़ में खडे होकर जब हम राडार पर दृष्टि डालते हैं तो लगता है कि स्थान का चुनाव कितना उपयुक्त था, एक सहस्राब्दी के बाद भी वही रहा.
➽ प्रदेश के किलों को देखें तो इन्हें दो श्रेणियों में रखा जा सकता है एक तो वह किलेबन्द नगर और दूसरे सामरिक दृष्टि से बनाए गए छोटे दुर्ग। किलेबन्द नगर, जहां राजा और उसकी प्रजा सुरक्षित रह सकती थी, इनके चारों ओर सुदृढ़ प्राचीर होता था, रात्रि को दरवाजे बन्द हो जाते थे। ऐसे किलों में अन्दर बसावट होती थी, पानी का प्रबन्ध होता, अन्दर खेती होती, जीवन चलता रहता, शत्रु बरसों घेरा डाले तो भी असर नहीं होता था, ये दुर्भेद्य किले होते थे जहाँ आपसी फूट के माध्यम से ही पहुंचा जा सकता था । चित्तौड और रणथम्मौर इसके सर्वोत्तम उदाहरण है। रणथम्मौर पर बरसों अलाउद्दीन का घेरा पड़ा रहा, कोई प्रभाव नहीं पड़ा, बाहर खिलजीपुर जिसे अव खिलचीपुर कहते हैं, गांव भी बस गया किन्तु विजय नहीं मिली तब भेदिए के माध्यम से ही शत्रु अन्दर घुसे, हम्मीर विजय काथ में इस घटना का विस्तृत विवरण आता है। मुगलों के जमाने में राव सुरजन किले के अधिपति थे, स्वयं मुगल सम्राट अकबर ही भेदिया बनकर आंबेर के राजा मानसिंह के साथ किले में पहुंच गए तो राव सुरजन ने किले की चाभी उन्हें सौंप दी.
➽ दूसरे प्रकार के किले बडे राज्यों की सुरक्षा के लिए सामरिक दृष्टि से बनाए जाते थे, जैसे बूंदी की सुरक्षा के लिए बनाया गया तारागढ़ और आंबेर की सुरक्षा के लिंग बनाया गया छोटा किला जयगढ़, जहाँ शस्त्र भण्डार, तोप बनाने का कारखाना और बारुद के गोदाम थे, इन सबके रख रखाव के लिए सेना की एक टुकडी भी रहती थी.
➽ ये किले सुरक्षा की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण थे ही, जन जीवन से भी जुड़े राजस्थान के साहित्य में भी इनका महत्त्वपूर्ण स्थान रहा इतिहास प्रसिद्ध लड़ाइयां तो यहां लड़ी ही गई, इन पर गीत गजल भी लिखे गए। यहां बैठकर कवियों ने साहित्यिक रचनाएं भी की, उदाहरण के लिए महाराज पृथ्वीराज गागरौ के गढ़ में बैठकर ही डिंगल की अनुपम कृति 'कृष्ण रुक्मणी री वेलि की रचना की । किलों के साथ उनके निवासियों और रक्षकों का बड़ा घनिष्ठ संबंध था, साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं से उन्हें और उनके किलेदारों को अमर कर दिया, वे मात्र पत्थर, सुर्खी / चूने से निर्मित सुरक्षा के लिए बनाए गए भवन ही नहीं थे, थे अपने रहवासियों से बात करते थे । उदाहरण के लिए जोधपुर क्षेत्र में परमार वीरनारायण द्वारा निर्मित सिवाणा का दुर्ग प्रसिद्ध है, कहा जाता है एक बार कल्ला राठौड ने वहाँ शरण ली, तो किला बडा प्रसन्न हुआ कि कल्ला राठौड़ जैसा वीर वहाँ आया, कवि कहता है ।
किलो अणखलो यूं कहे, आव कल्ला राठौड़
मो सिर उतरे मेहणो, तो सिर बांधे मीड
आओ कल्ला राठौड (स्वागत है) तुम्हारे आगमन से दो बातें बनेंगी, तुम्हें सिवाणा विजय का श्रेय मिल जाएगा और मुझे विजित करने वाला अर्थात् यह मेरे लिए भी गर्व की बात होगी कि कल्ला राठौड़ ने मुझे जीता ।
दूसरा उदाहरण चित्तौड़ के किलेदार जयमल का है जिसने प्राण तो दे दिए पर किला नहीं छोड़ा । जब अकबर का आक्रमण हुआ तो चित्तौड़ की रक्षा का भार जयमल पर था किले की रक्षा करता हुआ जयमल मारा गया तो कवि ने कहा -
जयमल की प्रशंसा करते हुए काई ने उसे दानी और कृपण दोनों ही बताया जिसने अपना सिर तो उदारतापूर्वक दे दिया किन्तु चित्तौड़ का गढ़ नहीं दिया । इसी प्रकार बीकानेर कोट के किलेदार कुशलसिह का कहना था कि, 'मो हुता नहीं जावसी, भले न उगे भाण । दोहा इस प्रकार है
कुसलो पूछे कोट सूं बिलखत क्यूं बीकाण ।
मो हुंता नहीं जावसी, भले न उगे भाण । ।
अर्थात् तुम क्यों दुःखी हो मेरे प्रिय बीकानेर (कोट), जीवित रहते मैं तुम्हें दूसरे के हाथों में नहीं जाने दूंगा भले ही सूर्य न उगे (किन्तु तुम मेरे ही रहोगे 19वीं शती तक आते-आते किलों का महत्व कम हो गया, एक तो लड़ाई के तौर तरीके बदले रहे थे दूसरे ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ हुई सन्धि के बाद राजस्थानी रियासतों में अपेक्षाकृत शांत ही बनी रही.