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गुरुवार, 6 अक्तूबर 2022

मालवा की प्राचीन मुद्राएँ |Ancient currency of Malwa

 मालवा की प्राचीन मुद्राएँ Ancient currency of Malwa

मालवा की प्राचीन मुद्राएँ |Ancient currency of Malwa


मालवा की प्राचीन मुद्राएँ

साभार - विजय परिहार

           

प्राचीन भारतीय इतिहास वर्तमान की वैज्ञानिक रीति के अनुसार लिपिबद्ध नहीं है। यत्र-तत्र बिखरी हुई विभिन्न सामग्रियों को एकत्रित कर भारतीय इतिहास के प्राचीन वृत्तांतों का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। पुरातात्विक सामग्री ने इतिहास को सुगम रूप से लिखने में सदैव सहायता की है। इन सामग्रियों में उत्कीर्ण लेखों के उपरान्त मुद्रा का अपना प्रमुख स्थान है। भारतीय इतिहास में कितने ही काल ऐसे हैं, जिनका सम्पूर्ण ज्ञान तत्कालीन मुद्राओं से होता है। मुद्राओं के अध्ययन से अनेक नवीन तथ्य प्रकाश में आये हैं। मालवा क्षेत्र के प्राचीन इतिहास के पुनर्निर्माण में मुद्राएँ अत्यधिक सहायक सिद्ध हुयी हैं। 


मालवा के पश्चिमी भाग (प्राचीन अवन्ती क्षेत्र) से बहुत बड़ी संख्या में जनपदीय मुद्राएँ उपलब्ध हुयी हैं। इनमें से अधिकांश उज्जैन नगर तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्र से मिली हैं। अनूप (माहिष्मती व कसरावद क्षेत्र) जनपद से भी विभिन्न प्रकार की मुद्राएँ मिली है। पूर्वी मालवा के भू-भाग में प्रमुख नगर विदिशा तथा वहां से लगभग 72 किलोमीटर उत्तर-पूर्व एरण (प्राचीन ऐरिकिण) नगर से भी विविध मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं। कुरराय, भगिलाय व मदविक नामांकित मुद्राएँ भी उपलब्ध हुई हैं। उक्त नगरों से प्राप्त अधिकांश मुद्राएँ लेख विहीन हैं। क्वचित् मुद्राओं पर ही ब्राह्मी लिपि में नाम अंकित मिलते हैं। इन स्थलों मे मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं जिन पर उनके प्राचीन नगर नाम अंकित हैं। इसके अतिरिक्त इन स्थलों से स्थानीय स्वतंत्र शासकों द्वारा प्रचलित की गई मुद्राएँ भी उपलब्ध हैं। मालवा क्षेत्र से उपलब्ध मुद्राओं के आधार पर उनकी राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक व कला सम्बन्धी तथा अन्य प्रकार की अमूल्य जानकारी ज्ञात होती है। ताम्राश्म युगीन संस्कृति के पश्चात् लोह युगीन संस्कृति का विकसित स्वरूप ज्ञात होता है, जिससे छोटे-छोटे जनपद किसी बड़े जनपद में अंतर्भूत दृष्टिगोचर होते हैं। यह स्थिति मालवा के सम्बन्ध में भी स्पष्टतः प्रकट है। 

छठी शताब्दी ईसा पूर्व से आरम्भ होने वाले काल में महाजनपदों का उदय हुआ। इनमें षोडष महाजनपद प्रमुख थे। अंगुत्तर-निकाय में अवन्ती का नाम तथा महावस्तु में षोडष जनपदों की सूची में शिवि ओर दशार्ण नाम परिमाणित हुए है। यह संभावित है कि इन दोनों स्वतंत्र जनपदों में अवश्य ही मुद्राओं का प्रादुर्भाव हुआ होगा व मुद्रा निर्माण हेतु टकसाल घर भी रहे होंगे। परमेश्वरीलाल गुप्त व माईकल मिशिनर ने आहत रजत ताम्र मुद्राओं की रचना और प्रकार तथा चिह्नों के आधार पर यह मत प्रतिपादित किया है कि कौन सी मुद्राएँ महाजन पद युग की है। उनके मतानुसार मौर्य युग से पूर्ववर्ती महाजन पद युग की आहत मुद्राएँ आकार में बड़ी और मोटाई में बहुत पतली हैं। इन मुद्राओं पर वृषभ, हस्ति, शस, मत्स्य, कूर्म, सूर्य तथा चक्र आदि विभिन्न प्रकार के चिन्ह अंकित हैं। छठीं शताब्दी ईसा पूर्व में अवन्ती का शासक चण्ड प्रद्योत था। इस क्षेत्र की प्राचीन मुद्राओं की विशेषता उज्जयिनी चिन्ह है।

            यह संभव है किसी भी चिन्ह के प्रकार जिस स्थल पर सर्वाधिक संख्या में उपलब्ध हो वह स्थान उस चिन्ह का उद्गम या मूल स्थान होता है। उज्जयिनी के अतिरिक्त ‘उज्जयिनी चिन्ह‘ विदिशा तथा एरण से प्राप्त मुद्राओं पर भी अंकित है। हेमचन्द्राचार्य के त्रिषष्टि-शलाका पुरुष चरित के अनुसार विदिशा प्रद्योत के अधिकार में थी। माहिष्मती (आधुनिक महेश्वर) के समीप कसरावद के बिहार के उत्खनन में प्राप्त मुद्राओं पर भी यह चिन्ह अंकित है। माहिष्मती तथा निमाड़ जो पूर्व में वीतिहोत्रों के आधिपत्य में रहे, प्रद्योत महासेन के अन्तर्गत हुए। कौशाम्बी से प्राप्त रजत-आहत मुद्राओं पर ‘उज्जयिनी चिन्ह’ विभिन्न रूपों में अंकित है। वत्सराज उदयन को बंदी बनाने के पश्चात् प्रद्योत के साम्राज्य का विस्तार कौशाम्बी तक हो गया हो, तो आश्चर्य की बात नहीं। इस कथानक को कौशाम्बी से प्राप्त दो मृण्मय ठीकरों पर चित्रित किया गया है। इसमें वत्सराज उदयन प्रद्योत के कारागृह से मुक्त होकर वासवदत्ता सहित हस्ति पर सवार होकर जा रहा है तथा प्रद्योत के सैनिकों जो उसका पीछा कर रहे है ललचाने हेतु स्वर्ण-निर्मित चौकोर मुद्राएँ जमीन पर फेंक रहा है, अत एव इन मुद्राओं से अवन्ती के शासक प्रद्योत द्वारा किये गये साम्राज्य विस्तार की सूचनाएँ मिलती हैं। 


संभवतः इस प्रवेश पर शिशुनाग वंशी राजाओं का राज्य 430 ई.पू. से 364 ई.पू.) रहा तथा उसके पश्चात् नन्दशासकों वे (324 से 364 ई.पू. तक)  राज्य किया। इन मुद्राओं के आधार पर तत्व वंश के शासकों का साम्राज्य विस्तार मालवा तक होने की संभावना ज्ञात होती है। मौर्य साम्राज्य के अन्तर्गत सम्पूर्ण मालवा शासित था। चन्द्र पुस मौर्य ने अशोक को उज्जयिनी का राज्यपाल नियुक्त किया था। अशोक के समय उज्जयिनी मौर्य साम्राज्य के अन्तर्गत प्रांत की राजधानी भी। चन्द्र मेरु अंकित मुद्राओं को डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल ने चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा प्रसारित किया गया माना है। चन्द्रगुप्त ने ही नंदशासकों द्वारा प्रचलित पेरू प्रकार की मुद्राओं को उसमें चन्द्र का ओर अंकन करवाकर राजांक से विभूषित किया और मुद्रा निर्माण करने का अधिकार शासनान्तर्गत ले लिया गया। यद्यपि मौर्य कालीन मुद्राएँ विशुद्ध रजत निर्मित नहीं मिलती, परन्तु सम्मिश्रण के साथ विभिन्न तौल की मिलती है। मालवा से प्राप्त मौर्य कालीन मुद्राओं पर सूर्य, हर चक्र के अतिरिक्त चन्द्र मेरू या मेरू स्थित मयूर का अंकन मिलता है। विद्वानों ने सूर्य अंकित चिन्ह से मौर्य वंश का अर्थ निकाला है, परन्तु मयूर को मौर्य वंश का राज्य चिन्ह नहीं माना जा सकता। चन्द्र मेरू प्रकार की मुद्राएँ अत्यधिक मात्रा में मिलती है, इसलिये वही चिन्ह राजांक माना गया। इस निष्कर्ष पर विद्वान इस कारण पहुॅचे है कि सोयोरा ताम्रपत्र पर और पटना के समीप कुम्हरार नामक स्थान पर मौर्य स्तम्भ पर मेरु चिन्ह अंकित है। बुलंदीबाग की खुदाई में एक मृण्मय तश्तरी मिली है, जिस पर चन्द्र का चिन्ह विद्यमान है। तीसरे वैज्ञानिक प्रणाली से परीक्षण के आधार पर चन्द्र चिन्हांकित मुद्राएँ मौर्य कालीन मानी गई है। इन प्रमाणों के आधार पर चन्द्र मेरू चिन्ह ही मौर्य साम्राज्य का राज्यांक माना गया है। इस प्रकार इन चिन्हों से चिन्हित मुद्राओं की इस मालवा क्षेत्र में प्राप्ति से यह विचित होता है कि यह सम्पूर्ण मालवा मौर्य शासन के अन्तर्गत था। मालवा के प्रमुख प्राचीन नगरों अथवा जनपदों की नामांकित मुद्राएँ उत्खनन व सर्वेक्षण के मध्य प्राप्त हुई हैं। नगर या जनपद नामांकित मुद्राओं में उज्जयिनी, एरण, कुरराय, भगिलाय, नंदिपुर, महिष्मती एवं विदिशा के नाम उल्लेखनीय हैं। इन मुद्राओं से इन नगरों की राजनीतिक व व्यापारिक महत्ता का ज्ञान होता है। मौर्य साम्राज्य के विघटन के पश्चात् सम्पूर्ण मालवा के प्रमुख जनपदों से स्थानीय स्वतंत्र शासकों की मुद्राएँ ढली-ताम्र अथवा ठप्पांकित ताम्र प्रचलित हुई। इनमें प्रमुख रूप से पश्चिमी मालवा के उज्जायिनी से स्थानीय स्वतंत्र शासकों रथि मदन, सवितृ, राञो दतस, मित्र नामांकित मुद्राएँ जैसे भूमि मित्र, भानु मित्र व महीमित्र। प्रारंभिक शक-शासकों हमुगम, वलाक, महु, दनु, सउमश की मुद्राएँ मिली हैं। 

विष्णु श्रीधर वाकणकर ने रथिमदन नामक स्वतंत्र शासक का समय अशोककालीन ब्राह्मी लिपि के आधार पर द्वितीय शती ई.पू. निर्धारित किया है। इस शासक की मुद्रा पर वृक्ष कूट चन्द्र, मेरु तथा मत्स्य कुंड अंकित है। द्वितीय मुद्रा पर सवितस (सवितृ) नाम अंकित है व अन्य चिन्ह चन्द्र बिन्दु व खड़ी मानवाकृति है। उनका मत है कि रथिमदन की मुद्रा पर अंकित चन्द्र मेरु चिन्ह प्रायः आन्ध्र-सातवाहन शासकों की मुद्राओं पर अंकित मिलता है। इससे यह संभावना है कि यह स्थानीय शासक आन्ध्र शासकों का सामंत रहा होगा। यह शासक किस वंश से संबंधित था अज्ञात है। रथि-मदन के उपरान्त सवितृ स्वतंत्र शासक रहा होगा। ये मित्र शासक संभवतः शुंग शासक के सामंत रहे होंगे। शक राजाओं के सम्बन्ध में प्रोफेसर कृष्णदत्त बाजपेयी का कथन है कि हमुगम, वलाक, महु, दनु तथा सउमश नामक शासकों ने ईसा पूर्व द्वितीय-प्रथम शताब्दियों में पश्चिमी मालवा के कुछ क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था। मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात् पश्चिमी भारत में विदेशी शक-पहलवों को अपना अधिकार बढ़ाने का अवसर मिला। उज्जयिनी के स्थानीय स्वतंत्र शासक इन शकों से बराबर लोहा लेते रहे। इन शासकों में से सवितृ, रथि मदन तथा राञो दत्तस उल्लेखनीय है। उक्त शक-शासकों की मुद्राओं द्वारा इस बात की पुष्टि हुई है। इन शासकों ने उज्जयिनी जनपद के मुद्रा प्रकारों का ही अनुकरण किया। उन पर ब्राह्मी लिपि में उन्होंने अपने नाम अंकित करवाये।