आस्था की अभिव्यक्ति देवालय
साभार संजय कुमार
आस्था की अभिव्यक्ति देवालय
प्राचीन काल से भारत में मन्दिर सामाजिक केंद्र के महत्वपूर्ण स्थल मानें जाते रहे हैं। मंदिर ही ऐसे स्थान थे, जहाँ नृत्य, संगीत और युद्ध की कलाओं को सम्मानित किया जाता था। देश में आज भी ऐसे कई मंदिर मौजूद हैं, जो अतीत के शिल्पकारों की बेहतरीन शिल्प कला की याद दिलाते हैं। भारत मंदिरों का देश कहा जाता है। समूचे देश में विभिन्न देवी देवताओं के मन्दिर आज भी पाये जाते हैं। मंदिर भारतीय स्थापत्य कला का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। भारत में मंदिर निर्माण की परम्परा का गुप्तकाल में विकास हुआ था। मानव ने अपनी धार्मिक आस्थाओं को अभिव्यक्त करने के लिए जिन प्रतीकों का निर्माण किया उनमें मूर्ति पूजा आरंभ हुई। ईश्वर के विविध रूपों में कल्पना की गई। देवी-देवताओं के मूर्त रूपों की पूजा हेतु जो सुंदर भवन निर्मित हुए वह भवन मंदिर कहलाए। देवालय के निमित्त ‘मन्दिर‘ शब्द गुप्त काल में प्रचलित हुआ। अर्थशास्त्र, महाभारत एवं रामायण में मंदिर के लिए देवायतन, देवकुल, देवगृह तथा देवालय आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। गुप्तकालीन साहित्य एवं लेखों में मंदिर के लिए प्रसाद व देवायतन आदि शब्द मिलते हैं।
मालव सम्वत् 529 ई. की मंदसौर प्रशस्ति में (जिसमें प्रथम कुमारगुप्त का उल्लेख मिलता है) दशपुर के सूर्य मंदिर के लिए ‘दीप्तिरश्मि-प्रसाद‘ शब्द का उल्लेख हुआ है। इसके पीछे अवधारणा यह थी कि राजप्रसाद की तरह ही देवायतन का स्वरूप भी होना चाहिए। सिर्फ शास्त्रों में उत्तरी देवा लोगों के लिए प्रसाद तथा दक्षिणी देवालयों के लिए ‘विमान‘ शब्द का उल्लेख मिलता है। देवालय के लिए ‘विमान‘ शब्द का प्रचलन शास्त्रीय वर्णनों से ही स्पष्ट है। उदाहरणार्थ-समरांगणसूत्रधार के अनुसार देवता विमान (रथ) में बैठकर अंतरिक्ष में विचरण करते हैं। यही कारण है कि दक्षिण भारत में मंदिरों को अब भी ‘विमान‘ कहा जाता है। अमरकोश के अनुसार ‘रथ‘ शब्द ‘विमान‘ का पर्यायवाचक है। विचारणीय है कि महाबलिपुरम् (मामल्लपुरम्) के पल्लव-मंदिरों को ‘पल्लव-रथ‘ कहा जाता है। उत्तरी भारत के मंदिरों के लिए ‘प्रासाद‘ के स्थान पर ‘ओमंदिर‘ शब्द गुप्तकाल के उपरान्त से व्यवहृत होने लगा। उदाहरणार्थ-बाणकृत कादम्बरी एवं भट्टिकाव्य तथा कुमारसम्भव में ‘मन्दिर‘ शब्द का सन्दर्भ प्राप्य है। परन्तु यहाँ इस शब्द का प्रयोग देवालय के अर्थ में न होकर आवास अथवा राजमहल के लिए हुआ है। गुप्तकाल के उपरान्त से अद्यपर्यन्त उत्तरी भारत के मंदिरों को बहुधा ‘मंदिर‘ शब्द की संज्ञा दी जाती है। गुप्त-काल के प्रारम्भिक मंदिर सपाट छतवाले हैं। शिखर-निर्माण की परम्परा सर्वप्रथम गुप्तकाल के उत्तरार्द्ध में प्रारम्भ हुई। ‘शिखर‘ शब्द का उल्लेख पहली बार मन्दसौर- प्रशस्ति (472-73 ई.) में हुआ है। यह समय गुप्तकाल के उत्तरार्द्ध का प्रतिनिधित्व करता है। शिखरयुक्त मंदिर का प्रथम पुरातत्वीय उदाहरण देवगढ़ का मंदिर है, जो कि गुप्तकाल के उत्तर भाग में निर्मित हुआ था।
भारतीय उपमहाद्वीप तथा विश्व के अन्य भागों में स्थित मंदिर विभिन्न शैलियों में निर्मित हुये हैं। मंदिरों की नागर, द्रविड़ व कुछ अन्य शैलियाँ हैं। नागर शैली का प्रसार हिमालय से लेकर विन्ध्य पर्वत माला तक देखा जा सकता है। नागर शब्द नगर से बना है। सर्वप्रथम नगर में निर्माण होने के कारण इन्हें नागर की संज्ञा प्रदान की गयी। शिल्पशास्त्र के अनुसार नागर मंदिरों के आठ प्रमुख अंग है वास्तुशास्त्र के अनुसार नागर शैली के मंदिरों की पहचान आधार से लेकर सर्वोच्च अंश तक इसका चतुष्कोण होना है। विकसित नागर मंदिर में गर्भगृह, उसके समक्ष क्रमशः अन्तराल, मण्डप तथा अर्द्धमण्डप प्राप्त होते हैं। एक ही अक्ष पर एक दूसरे से संलग्न इन भागों का निर्माण किया जाता है। नागर शैली का क्षेत्र उत्तर भारत में नर्मदा नदी के उत्तरी क्षेत्र तक है। परंतु यह कहीं-कहीं अपनी सीमाओं से आगे भी विस्तारित हो गयी है। नागर शैली के मंदिरों में योजना तथा ऊँचाई को मापदंड रखा गया है। नागर वास्तुकला में वर्गाकार योजना के आरंभ होते ही दोनों कोनों पर कुछ उभरा हुआ भाग प्रकट हो जाता है जिसे ‘अस्त‘ कहते हैं। इसमें चाण्ड़ी समतल छत से उठती हुई शिखा की प्रधानता पायी जाती है। यह शिखा कला उत्तर भारत में सातवीं शताब्दी के पश्चात् विकसित हुई अर्थात् परमार शासकों ने वास्तुकला के क्षेत्र में नागर शैली को प्रधानता देते हुए इस क्षेत्र में नागर शैली के मंदिर बनवाये। द्रविड़ शैली दक्षिण भारतीय हिन्दू स्थापत्य कला की तीन में से एक शैली है। यह शैली दक्षिण भारत में विकसित होने के कारण द्रविड़ शैली कहलाती है। तमिलनाडु व निकटवर्ती क्षेत्रों के अधिकांश मंदिर इसी श्रेणी के होते हैं। इसमें मंदिर का आधार भाग वर्गाकार होता है तथा गर्भगृह के उपर का भाग पिरामिडनुमा सीधा होता है, जिसमें अनेक मंजिलें होती हैं।