चंद्रशेखर वेंकट रमन (सी. वी. रमण) जीवन परिचय | CV Raman Biography in Hindi - Daily Hindi Paper | Online GK in Hindi | Civil Services Notes in Hindi

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शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023

चंद्रशेखर वेंकट रमन (सी. वी. रमण) जीवन परिचय | CV Raman Biography in Hindi

CV Raman Biography in Hindi

चंद्रशेखर वेंकट रमन (सी. वी. रमण) जीवन परिचय | CV Raman Biography in Hindi



चंद्रशेखर वेंकट रमन (सी. वी. रमण) जीवन परिचय

प्रतिभाएँ किसी जगह की मोहताज नहीं हुआ करती हैं। अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी साम्राज्यवादी देशों के अतिशय लूट का गवाह बनीं। इसके पीछे एक बड़ी वजह है कि शिक्षा व तकनीकी का विकास उन देशों में अपेक्षाकृत पहले व तेज़ी से हुआ। भारत जैसे उपनिवेश ने वहाँ से सीख कर यह सब ग्रहण किया। लेकिन प्रतिभाएँ यहाँ भी जन्म लेती रहीं बस ज़रूरत थी तो उन्हें पोषित करने की, उन्हें पल्लवित करने की।

 

चंद्रशेखर वेंकट रमण भारत के ऐसी ही प्रतिभा का नाम है जिसने अपना लोहा पूरी दुनिया के सामने मनवाया। जिस समय यूरोपीय व अमेरिकी वैज्ञानिक ही लगातार नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हो रहे थे, ऐसे में भारतीय रमण ने यह गौरव देश को दिया।

 

प्रारंभिक जीवन

प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री सी. वी. रमण का जन्म 7 नवंबर, 1888 को तमिलनाडु के त्रिचिरापल्ली के एक सामान्य परिवार में हुआ। इनके पिता भौतिक विज्ञान और गणित के अध्यापक थे। इस बात की बहुत सम्भावना है कि इनके मन में विज्ञान के प्रति जो प्रेम जागृत हुआ उसके पीछे की एक बड़ी वजह परिवार में पहले से भौतिक विज्ञान का आधार होना रहा होगा। इनकी विशेष प्रतिभा के दर्शन बचपन में ही हो गए। इन्होंने मात्र 11 वर्ष की उम्र में हाई स्कूल और मात्र 13 वर्ष की उम्र में अपनी उच्च माध्यमिक शिक्षा पूर्ण कर ली।

 

विज्ञान में इनकी रुचि व इस विषय के महत्व को देखते हुए इनके पिता व अध्यापक जो इनकी प्रतिभा से परिचित थे, इन्हें उच्च शिक्षा पूर्ण करने के लिये विदेश भेजना चाहते थे लेकिन स्वास्थ्य कारणों से वे बाहर जाकर शिक्षा ग्रहण न कर सके। 14 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने अपने स्नातक की डिग्री के लिये मद्रास विश्वविद्यालय के प्रेसीडेंसी कॉलेज में पढ़ाई आरम्भ कर दी। 1905 ई में स्नातक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर स्वर्ण पदक भी हासिल किया। 1907 में इसी प्रेसीडेंसी कॉलेज से उन्होंने स्नातकोत्तर की उपाधि ग्रहण की एवं इस कक्षा में ऐतिहासिक अंक प्राप्त किए।

 

प्रोफेसर आर. एल. जॉन्स ने इनके मार्ग को और भी अधिक परिष्कृत किया। स्नातकोत्तर के दौरान इनकी प्रतिभा के कारण प्रोफेसर इन्हें कक्षाओं से छूट भी देते थे ताकि प्रयोगशाला में अपना पूरा समय व्यतीत कर सकें। उन्हीं दौरान प्रकाश किरणों पर इनका अध्ययन विस्तृत हो चुका था। उसी दौरान इन्हें सलाह दी गयी कि जो शोध कार्य जारी है, उसे नियमित रूप से लिखकर उसे शोधपत्र का रूप दे दिया जाए। ब्रिटेन के लंदन से प्रकाशित होने वाले फिलॉसोफिकल पत्रिका उन दिनों की चर्चित पत्रिका मानी जाती थी। उसमें इनका पहला शोध पत्र नवंबर अंक में 1906 ई में प्रकाशित हुआ। यह वह समय है जिसके बाद से एक वैज्ञानिक के रूप में इन्होंने अपनी आधारशिला रखी।

 

स्नातकोत्तर के अध्ययन के दौरान ये तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा आयोजित प्रतियोगी परीक्षा में बैठे व वित्त विभाग के लिये आयोजित परीक्षा पास कर ली। इसके पश्चात वे वित्त विभाग में अधिकारी बन सहायक महालेखापल के रूप में कलकत्ता चले गए। ऐसी प्रतिभाओं के लिये नौकरी महज़ रोज़गार का साधन बन सकती है लेकिन उनका मन उस क्षेत्र में रमता नहीं है। सी. वी. रमण अधिकारी तो हुए लेकिन विज्ञान का जुनून बरकरार रहा।

 

चूँकि कलकत्ता उन दिनों देश का सबसे मुख्य शहर था इसलिये नई गतिविधियों का अड्डा भी वही था। भारत में शोध व विज्ञान के विकास के लिये 1876 ई में वहाँ पर इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टिवेशन ऑफ साइंसकी स्थापना हो चुकी थी। वहाँ रहते हुए उन्हें इस संस्था के बारे में पता चला। उन्होंने उस संस्थान को अपने शोध कार्य के लिये इस्तेमाल करना आरम्भ किया।

 

उनके लगन का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कार्यालयी क़िस्म की नौकरी जो अधिकारी प्रात: 10 से सायं 5 के मध्य करते हैं, सी. वी. रमण नौकरी से पूर्व प्रयोगशाला जाते थे व नौकरी के समय के समापन के बाद भी प्रयोगशाला जाया करते थे। परंतु यहाँ वे पूर्ण रूप से प्रयोगशाला के लिये नहीं आए थे, यहाँ उनका प्राथमिक कार्य वित्त विभाग की नौकरी के रूप में था। अतः उनका स्थानांतरण रंगून, फिर नागपुर हुआ जिससे लय में चल रहे शोध कार्यों में बाधा पहुँचती रही जबकि शोध का कार्य तन्मयता का कार्य होता है।

 

लेकिन 1911 ई में इनका स्थानांतरण एक बार पुनः कलकत्ता हुआ जहाँ वे पहले से भी ऊँचे पद पर नियुक्त हुए। आगे रमण ने वहाँ अपना शोधकार्य पुनः आरम्भ किया। 1917 ई में कलकत्ता विश्वविद्यालय में वे भौतिक शास्त्र के प्राध्यापक पद पर गए। एक अधिकारी का पद छोड़कर उससे कम वेतन पर नौकरी स्वीकार कर लेना भौतिक विज्ञान में उनकी रुचि का ही परिणाम था। कलकत्ता में दोबारा आना उनके जीवन को पूरी तरह से वैज्ञानिक रूप में तब्दील कर देने वाला साबित हुआ।

 

नई पौध तैयार करने वाले वैज्ञानिक नेता के रूप में

सी. वी. रमण का व्यक्तित्व अपने कार्य को लेकर गंभीर व जुनूनी किस्म का था। जब उन्होंने अध्यापकीय जीवन में प्रवेश किया तो एक अध्यापक के दायित्व का पूर्ण निर्वहन किया। कोई भी बेहतर अध्यापक नयी पीढ़ी को और बेहतर के लिये प्रेरित करता है। इस हेतु वे अपने प्रयोगशालाओं में विद्यालयी छात्र-छात्राओं को आमंत्रित किया करते थे। वे भाषण देते थे व बच्चों को नए-नए यंत्रों से परिचित कराते थे ताकि उनके मन में इन विषयों के प्रति जिज्ञासा पैदा हो। वे छोटे-बड़े विद्यालयों के आग्रह पर वहाँ नई पीढ़ी से मिलने जाते थे। विज्ञान केवल किताबी ज्ञान न बन जाए इसलिये वे सभी को अपने आस-पास की घटनाओं में विज्ञान खोजने या देखने की बात किया करते थे जिससे लोग विज्ञान से और अधिक जुड़ाव महसूस कर सकें। अपने प्रयोगशाला में कार्य करते हुए उन्होंने कुछ अच्छे नए शोध सहायकों को रखा। यह इनकी प्रेरणा का ही परिणाम था। इस प्रकार कुछ वर्षों में नए व उभरते हुए वैज्ञानिकों का एक समूह इन्होंने स्वयं के श्रम व प्रेरणादायी व्यक्तित्व के फलस्वरूप तैयार कर लिया जिसने देश में वैज्ञानिकों के नए पौध के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।

 

महत्वपूर्ण शोध कार्य

1917 में भारत ब्रिटेन का उपनिवेश था। उस समय लंदन में ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के विश्वविद्यालयों के कांग्रेस में भारत का प्रतिनिधित्व सी. वी. रमण ने ही किया। इसके बाद 1921 में ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड में विश्वविद्यालय कांग्रेस के लिये इन्हें पुनः आमंत्रित किया गया। यह यात्रा उनके जीवन में एक नया मोड़ लाने वाली यात्रा साबित हुई।

 

जलीय मार्ग की उबाऊ यात्रा एक वैज्ञानिक को चिंतन का नया अवकाश देने वाली यात्रा साबित हुई। वे सागर के नीले रंग व आकाश के नीले रंग को लेकर सोचने लगे कि इनका रंग नीला ही क्यों है? इससे पूर्व वैज्ञानिकों का यह मानना था कि सागर का नीला रंग इसलिये है क्योंकि वह आकाश का प्रतिबिम्ब है। सी. वी. रमण को इस मान्यता से असंतोष था, उन्हें लगता था उसका नीलापन आकाश के प्रतिबिम्ब की वजह से नहीं था। यह उनके शोध के लिये एक नया विषय बन गया था। ब्रिटेन से लौटने के पश्चात वे इसी विषय पर शोध में जुटे।

 

अध्ययन में उन्हें ज्ञात हुआ कि जब प्रकाश किसी वस्तु पर पड़ता है तो प्रकाश के स्पेक्ट्रम में कई तरह के परिवर्तन दिखाई देते हैं। जब समुद्र के जल पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है तो प्रकाश के नीले रंग के स्पेक्ट्रम में प्रसरण दिखाई देता है। यह उसके नीलेपन का प्रमुख कारण है। प्रकाश के प्रकीर्णन के समय नीले रंग को छोड़कर सभी रंग अवशोषित होकर ऊर्जा में परिवर्तित हो जाते हैं परंतु नीला रंग परावर्तित हो जाता है जिस वजह से समुद्र का रंग नीला दिखाई देता है। उनकी इस खोज और उसके तार्किक उत्तर ने पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों में एक हलचल मचा दी। प्रकाशिकी के क्षेत्र में विस्तृत अध्ययन के लिये 1924 ई में रमण को लंदन के अति प्रतिष्ठित रॉयल सोसाइटीका सदस्य बनाया गया। यह किसी भी भारतीय के लिये गौरव का विषय बना।

 

रमण का शोध यहीं रुका नहीं। उनका सबसे महत्वपूर्ण शोधकार्य अभी होना बाकी था। उन्होंने प्रकाश के प्रसरण अर्थात् बिखराव पर अपना शोध जारी रखा। जब प्रकाश को एक छोटे से छेद से गुजारा गया उसके बाद उसे कई पदार्थों के मध्य गुजारा गया तो दूसरी ओर बिखरा हुआ स्पेक्ट्रम देखा गया। लेकिन इसके अतिरिक्त कुछ और रेखाएँ भी वहाँ देखने को मिली जिससे निष्कर्ष यह निकाला गया कि शायद यह पदार्थ की अशुद्धता के कारण उभर रही हैं। लेकिन जब उन पदार्थों के शुद्ध रूप से प्रकाश गुजारा गया तो भी अन्य रेखाएँ देखी गयीं। इससे पूर्व में कॉम्पटन प्रभाव के कारण ऐसी घटना एक्स किरणों के प्रयोग के साथ देखी गयीं थी जिस कारण 1927 ई में ए. एच. कॉम्पटन को नोबेल पुरस्कार भी मिला। रमण ने समझा कि शायद यह वही कॉम्पटन प्रभाव है। यह उस समय नया सिद्धांत था कि प्रकाश तरंग व कण दोहरी प्रवृत्ति की तरह व्यवहार करता है। प्रकाश जब कण की भाँति व्यवहार करता है तो फोटॉन कण जिस पदार्थ में से गुजरता है उसके अणुओं पर आघात करता हुआ आगे बढ़ता है। इस वजह से पदार्थ के अणुओं में कंपन दिखाई देता है। इसमें फोटॉन की कुछ ऊर्जा गुजरने वाले पदार्थ के अणुओं की ऊर्जा के पास स्थानांतरित हो जाती है। यहाँ फोटॉन कुछ ऊर्जा छोड़ देते हैं जिसके कारण स्पेक्ट्रम पर अन्य रेखाएँ उभरती हैं। यह ही रमण प्रभाव के रूप में जाना जाता है। वर्तमान में इस तरह का प्रयोग कर पदार्थ की आंतरिक संरचना का अध्ययन किया जाता है। जो घटना रमण प्रभाव के रूप में जानी जाती है वह पहली बार 28 फरवरी 1928 ई में प्रकाश में आई। विज्ञान की प्रतिष्ठित पत्रिका नेचरने उनके इस खोज को आगे बढ़कर तुरंत प्रकाशित किया।

 

रमण संगीत के भी अच्छे ज्ञाता रहे। संगीत में गहरी रुचि होने का ही यह परिणाम था कि उन्होंने अनेक वाद्य यंत्रों का अध्ययन कर विश्व में यह साबित करने का प्रयास किया कि भारतीय वाद्य यंत्र भी पश्चिम की तरह ही अनोखे और बेजोड़ हैं। उन्होंने संगीत की शिक्षा ग्रहण की और वाद्य यंत्रों की ध्वनियों पर अनुसंधान कार्य किया। उनका एक लेख जर्मनी के विश्वकोश में प्रकाशित हुआ था ।

 

1933 से 1948 तक इन्होंने बंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंसेजके संचालन का कार्यभार संभाल। इसके पश्चात बिना किसी सरकारी सहायता के उन्होंने बंगलुरु में ही अपना स्वतंत्र संस्थान रमण रिसर्च इंस्टिट्यूटकी स्थापना की। उनकी दूरदृष्टि और परिश्रम इस संस्थान में आज भी झलकती है। रमण ने संदेश दिया कि हमेशा प्राकृतिक घटनाओं की छानबीन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही करनी चाहिये। वे अपने संस्थान में जीवन के अंतिम समय तक शोध कार्य करते रहे ।

 

पुरस्कार एवं सम्मान

जिन्होंने अपना पूरा जीवन शोध को अर्पण कर दिया हो, उनकी उपलब्धियों को जानना भी ज़रूरी है। रमण जी में नोबेल पुरस्कार जीतने का आत्मविश्वास था और उन्होंने जीता भी। उन्हें रमण इफेक्टके लिये 1930 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उस वर्ष रमण 42 वर्ष के थे। 42 वर्ष के जीवन में उन्हें कई पुरस्कार मिले लेकिन नोबेल पुरस्कार से उनके साथ-साथ देश भी गौरवान्वित हो गया। रमण पहले एशियाई एवं अश्वेत थे जिन्हें विज्ञान क्षेत्र में नोबल पुरस्कार दिया गया । इस पुरस्कार के कारण भारतीय विज्ञान विश्व की नज़रों में आया और प्रशंसा का पात्र बना ।

 

नोबेल पुरस्कार से इतर उन्हें लेनिन पुरस्कार जैसे अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया। साथ ही देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से भी नवाजा गया। उनका जीवन और प्रयोगशालाओं में किया गया परिश्रम आने वाली पीढ़ियों के लिये एक मिसाल है कि किस प्रकार काम संसाधन में भी प्रतिभाएँ स्वयं कमो तराश कर निखरती हैं।