राजस्थान में सन 1817-18 से पूर्व की परिस्थितियां | Rajsthan History in Hindi - Daily Hindi Paper | Online GK in Hindi | Civil Services Notes in Hindi

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शनिवार, 23 सितंबर 2023

राजस्थान में सन 1817-18 से पूर्व की परिस्थितियां | Rajsthan History in Hindi

 

राजस्थान में ब्रिटिश प्रभुसत्ता की स्थापना सन् 1817-18 ई. 

राजस्थान में सन 1817-18 से पूर्व की परिस्थितियां | Rajsthan History in Hindi
 

राजपूताना इतिहास परिचय 

  • राजपूताना के इतिहास में वर्ष 1817-18 ई. को एक विभाजन रेखा के रूप में देखा जाता है। इससे पूर्व के कुछ वर्षो को अंतर्राज्यीय युद्धों तथा पिंडारियों, मराठों और अमीरखा के अतिक्रमणों और आक्रमणों से उत्पन्न स्थिति से क्षेत्र में व्यापत अराजकता एवं असुरक्षा के कारण 'जंगल राज' की संज्ञा दी जा सकती है। उक्त वर्ष के बाद का काल रियासतों के लिए शान्ति एवं सुरक्षा प्रदान करने वाला माना जा सकता है, परन्तु ब्रिटिश सरकार ने संधियों की ईमानदारी से पालना करने की अपेक्षा अपनी शक्ति के बल पर उनके उल्लंघन में अधिक तत्परता तथा रूचि दिखाई और राज्यों के आंतरिक मामलों में 'ब्रिटिश प्रभुसत्ता के नए शब्दजाल के अंतर्गत उनका हस्तक्षेप बढ़ता ही गया इसे रियासतों के शासकों की अदूरदर्शिता कहें अथवा अंग्रेजी सरकार की चतुराई और उनकी साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति, जिससे रियासतें संधियों के भंवरजाल में फंसकर न केवल अपनी स्वायत्तता से हाथ वो बैठीं बल्कि 'ब्रिटिश प्रभुसत्ता' के मकड़जाल में फंसकर उसके बाहर तो नहीं निकल सकी परन्तु उस प्रयास में अपना अस्तित्व सदैव के लिए जरूर खो दिया। 

 

राजस्थान में सन 1817-18 से पूर्व की परिस्थितियां

  • अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में मुगल सत्ता के निरन्तर कमजोर होने से मराठों का उत्कर्ष होता गया और वे न केवल उत्तरी भारत में प्रमुख घटनाओं में निर्णायक भूमिका निभाने लगे बल्कि धीरे-धीरे मुगल सम्राट शाह आलम 2, जिसके दरबार में महादाजी सिंधिया ने सन् 1784 में वकील-ए-मुतलक ( रीजेंट के रूप में अपनी पुख्ता पैठ जमा ली थी, के भाग्य का फैसला करने की स्थिति में थे। सिंधिया तथा उसके फ्रांसिसी सेनानायकों की मुगल दरबार में स्थिति मजबूत होने से ब्रिटिश सरकार को भारत में उनसे खतरा पैदा होने का अंदेशा निर्मूल नहीं था, विशेषकर तब जबकि यूरोप में नेपोलियन का वर्चस्व लगातार बढ़ रहा था। लॉर्ड बेलेजली जो 1798 ई. में भारत का गवर्नर जनरल बनकर आया, को शीघ्र ही यह आभास हो गया कि सिंधिया तथा फ्रांसिसी सेनानायकों का मुगल दरबार में बढ़ता हुआ प्रभुत्व ब्रिटिश सरकार के लिए अहितकर हो सकता है। दूसरे एंग्लो-मराठा युद्ध (1803-05 ई) में अंग्रेजों का प्रमुख उद्देश्य मुगल बादशाह को मराठों के प्रभाव से मुक्त कराकर दिल्ली दरबार में अपना प्रभुत्व स्थापित करना था।

 

  • मराठों का उत्तर की ओर राजपूताना की कुछ रियासतों पर लगातार अतिक्रमण, जो अंग्रेजों की दृष्टि में सामरिक रूप से महत्वपूर्ण थीं, को ब्रिटिश सरकार ने अपनी रक्षात्मक संधियों के घेरे में लाने का प्रयत्न किया। इस नीति के अनुसरण में ब्रिटिश कमाण्डर-इन-चीफ जनरल लेक को राजपूताना विभिन्न रियासतों से संधि करने के लिए अधिकृत किया गया और भरतपुर, अलदर (माचेड़ी), जयपुर, जोधपुर, प्रतापगढ़ आदि राज्यों से संधियों की गई। एंग्लो-मराठा युद्ध में मराठों की पराजय से मुगल दरबार में फ्रांसिसी सेनानायकों का प्रभाव समाप्त हो गया तथा सितम्बर 1803 में दिल्ली में ब्रिटिश रेजिडेंसी स्थापित कर दी गई जिसमें नियुक्त ब्रिटिश रेजिडेंट मुगल दरबार में कम्पनी सरकार का प्रतिनिधित्व करने लगा। कालांतर में यह रेजिडेंट राजपूताना में स्थित राज्यों के मामलों में भी प्रतिनिधित्व करने लगा।

 

  • मराठों के विरूद्ध किए गए युद्धों के कारण बढ़ते हुए वित्तीय भार ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कोर्ट आफ डायरेक्टर्स का धैर्य समाप्त कर दिया और वेलेजली के स्थान पर लार्ड कॉर्नवालिस को भारत में शांति स्थापित करने के उद्देश्य से गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया । उन्होने हस्तक्षेप न करने की सामान्य नीति के अन्तर्गत पूर्व की संधियों को निरस्त कर दिया परन्तु धौलपुर (1606) भरतपुर (1805) तथा अलवर (1803 1805 एवं 1811) राज्यों के साथ हुई संधियां यथावत रखीं। उसके बाद जार्ज बालों तथा मिन्टो ने भी यही नीति अपनाई । इसके फलस्वरूप मराठों और पिंडारियों का आतंक बढ़ने लगा और राजपूताने की रियासतों की स्थिति बिगडने लगी। उदयपुर की राजकुमारी कृष्णा कुमारी का अंत राज्यों की आपसी कलह और राजनीतिक कुचक्र से ही हुआ जिसमें अमीरखा की भी भूमिका थी । इन कुचक्रों के कारण हुए आपसी युद्धों में जयपुर, जोधपुर और उदयपुर के राजकीय कोष खाली हो गए । जोधपुर के महाराजा मानसिंह ने अलग-थलग पड़ने पर अंग्रेजों से सहायता मांगी परन्तु हस्तक्षेप न करने की नीति के कारण उसे निराशा ही हाथ लगी।

 

  • इसी बीच ढोकलसिंह जो जोधपुर राज्य के महाराजा के पद के लिए दावेदार बन गया था, ने जयपुर के महाराजा जगतसिंह से हाथ मिला लिए जयपुर की सेना और अमीरखा के साथियों ने जोधपुर के दुर्ग को घेर लिया और लूटपाट मचा दी | मारवाड की यह दयनीय दशा देख ढोकलसिंह के राठौड सैनिकों ने जगतसिंह का साथ छोड़ दिया। अवसरवादी अमीरखां ने भी जगतसिंह का साथ छोड़, उसके जयपुर राज्य के इलाकों में लूटपाट करने लगा। जयपुर ने माचेडी (अलवर) के राव और दिल्ली ब्रिटिश रेजिडेंट से सहायता मांगी परन्तु असफल रहा। इन परिस्थितियों में जगतसिंह ने जोधपुर दुर्ग का घेरा उठा लिया और जयपुर आकर ब्रिटिश रेजिडेंट से रक्षात्मक संधि करने की पुनः चेष्टा की परन्तु निराश होना पड़ा ।

 

  • इसी समय बापूजी सिंधिया ने जयपुर पर आक्रमण कर दिया और चालीस लाख रूपयों की मांग की जगतसिंह ने अमीरखां और होल्कर से सहायता की पेशकश की परन्तु सफलता नहीं मिली । जगतसिंह ने एक बार फिर अंग्रेजों से मध्यस्थता एवं संधि के लिए कोशिश की परन्तु कामयाब नहीं हुआ । चारों ओर से निराश होकर जगतसिंह ने अंत में सिंधिया को रकन चुका कर उससे छुटकारा पाया और मानसिंह से मतभेद भुलाकर आपस में वैवाहिक सबक स्थापित कर लिए। अमीरखां जो इस समय मेवाड के इलाके में लूटपाट कर रहा था, जोधपुर एवं जयपुर के बीच हुई सुलह से विचलित हो गया और उसने जयपुर पर आक्रमण करने की धमकी दे दी और सन् 1811 के प्रारम्भ में जयपुर राज्य में लूटपाट शुरू कर दी। सुरक्षा का कोई उपाय नहीं होने से जगतसिंह ने अमीरखां को सत्रह लाख रूपए की रकम चुका दी और उसके अधिकारी मोहम्मद शाह खां को शेखावाटी क्षेत्र से जयपुर राज्य को मिलने वाले कर (ट्रिब्यूट) के छह लाख रूपए को अपना हिस्सा मानकर वसूल करने के लिए अधिकृत कर दिया। 

 

  • इसी समय माचेडी (अलवर) के राव ने अपनी सेना भेजकर जयपुर राज्य के कुछ इलाकों पर कब्जा कर लिया ब्रिटिश रेजिडेंट सी. टी. मेटकॉफ ने माचेडी के राव को इस कृत्य के लिए चेतावनी दी तथा नहीं मानने पर अपनी सेना भेजकर जयपुर राज्य को उसके इलाके वापस दिलवाए ।

 

  • अमीरखा और सिंधिया पुनः बारी-बारी से जयपुर के इलाके में लूटपाट करने आए और महाराजा से बड़ी रकम ऐंठ कर ले गए। जयपुर के महाराजा ने पुनः दो बार अंग्रेजों से सहायता की प्रार्थना की परन्तु सफलता नहीं मिली। सिंधिया, होल्कर तथा अमीरखा के उदयपुर राज्य के इलाकों में लूटपाट करने और रकम ऐंठ कर ले जाने से उस राज्य की माली हालत इतनी बिगड गई कि महाराणा को अपने खर्च के लिए कोटा राज्य के रीजेंट जालिम सिंह पर निर्भर रहना पड़ता था । अमीरखां ने जोधपुर को भी नहीं बख्शा और लगभग दो वर्षा तक उसके खजाने का पूरा दोहन किया। महाराजा मानसिंह राजकार्य के प्रति उदासीन हो गए तथा उन्होने छतरसिह को युवराज घोषित करके एक रीजेंसी स्थापित कर दी ।

 

  • राजपूताना की अन्य रियासतों बूंदी, कोटा, करौली, बांसवाडा आदि ने भी समय-समय पर मराठों के अतिक्रमण का उत्पीडन सहा ।