राज्यों और ईस्ट कम्पनी के बीच हुई संधियों के कारण
राज्यों और ईस्ट कम्पनी के बीच हुई संधियों के कारण
- लॉर्ड मिन्टो ( 1807-1813 ई) के पश्चात् लार्ड हैस्टिंग्ज (1813-23 ई) गवर्नर जनरल बन कर आए जो राज्यों में हस्तक्षेप की नीति के समर्थक थे। दिल्ली के रेजिडेंट सी. टी. मेटकॉफ ने उन्हें अपनी एक योजना पेश की जिसमें छोटी बड़ी रियासतों को रक्षात्मक संधियों के माध्यम से ब्रिटिश सुरक्षा देना तथा रियासतों की संयुक्त सैन्यशक्ति से सिंधिया, होल्कर, अमीरखां और पिंडारियों की लूटपाट की नीति पर लगाम लगाना और ब्रिटिश इलाकों पर उन्हें अतिक्रमण करने से रोक कर अपने लिए एक सुरक्षा कवच सुनिश्चित करना था । इसलिए जब मार्च 1816 में जयपुर ने पुनः ब्रिटिश रेजिडेंट को संधि के लिए अपील की तो दिल्ली स्थित रेजिडेंट को अपनी योजना को क्रियानित करने का अवसर मिला परन्तु संधि की शर्तों को लेकर, विशेषकर रियासत द्वारा दिए जाने वाले कर (ट्रिब्यूट ) के बारे में मतभेद होने के कारण संधि नहीं हो पाई। इसके बाद मेटकॉफ ने दबाव की नीति अपनाई। उन्होने जयपुर राज्य को कर चुकाने वाले ठिकानों पर अलग से ब्रिटिश सरकार से संधि करने के लिए दबाव डाला । खेतडी व उणियारा के ठिकानों से बातचीत की और उन्हें ब्रिटिश संरक्षण देने की पेशकश की ताकि उनकी वफादारी जयपुर राज्य से हटकर ब्रिटिश सरकार की तरफ हो जाये। इन दांवपेचों से न केवल राज्य की संप्रभुता में कमी होती बल्कि उसके राजस्व के संसाधनों और सैन्य शक्ति में भी कमी होती । अतः जयपुर को संधि की शर्तों के बारे में झुकना पड़ा और अंत में अप्रेल 1818 में संधि पर हस्ताक्षर हो गए।
- अमीरखां ने भी सन् 1817 में ब्रिटिश सरकार से रक्षात्मक संधि की पेशकश की जिसे ब्रिटिश सरकार ने कुछ समय बाद अपनी शर्तो पर मान लिया। नौ नवंबर 1817 को हुई इस संधि के अनुसार (1) अमीरखां के पास होल्कर के जो इलाके थे, वे अमीरखां और उसके उत्तराधिकारियों के पास ही रहेंगे, ऐसी ब्रिटिश सरकार ने गारन्टी दी तथा उन इलाकों की सुरक्षा की जिम्मेदारी ब्रिटिश सरकार ने अपने ऊपर ले ली (2) अमीरखां अपनी सेना को भंग कर देगा तथा उतनी ही सैन्य टुकडियां रखेगा जितनी उसके अंदरूनी सुरक्षा के लिए आवश्यक हो (3) वह अब किसी इलाके पर आक्रमण नहीं करेगा, पिडारियों और लूटपाट करने वाले अन्य कबीलों से अपने संबंध तोड़ देगा और अपनी शक्ति के अनुसार उन्हें दबाने और सजा देने के लिए ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग करेगा। ब्रिटिश सरकार की रजामंदी के बिना वह किसी से भी संबंध नहीं बनायेगा (4) वह अपनी तोपें और अन्य सैन्य सामान ब्रिटिश सरकार को सौंप देगा जिसके बदले में उसे मुआवजा दे दिया जाएगा। वह केवल अपनी आंतरिक सुरक्षा के लिए व दुर्गो की रक्षा के लिए ही कुछ आवश्यक सैन्य सामान रख सकेगा (5) वह सेना जो अमीरखां अपने पास रखेगा, उसे भी अंग्रेजी सरकार द्वारा मांगने पर भेजना होगा ।
- राजपूताना की अन्य अग्रांकित रियासतों के साथ भी संधियां इसी समय हुई करौली (9 नवम्बर 1817), कोटा (26 दिसम्बर 1817), जोधपुर (6 जनवरी 1818), उदयपुर (13 जनवरी 1818), बूंदी (10 फरवरी 1818), बीकानेर (9 मार्च 1818), किशनगढ़ (26 मार्च 1818), जयपुर (2 अप्रैल 1818), बांसवाडा (25 दिसम्बर 1818), प्रतापगढ़ (5 अक्टूबर 1818) डूंगरपुर ( 11 दिसम्बर 1818), जैसलमेर (12 दिसम्बर 1818) तथा सिरोही (11 सितम्बर 1823 ) शाहपुरा को उस समय रियासत का दर्जा प्राप्त नहीं था । इसको कचोला का हिस्सा मेवाड द्वारा जागीर में दिया गया था तथा शाहपुरा ( फूलिया क्षेत्र) ब्रिटिश सरकार ने अजमेर इलाके से दिया था। सन् 1848 में ब्रिटिश सरकार ने एक सनद जारी करके शाहपुरा द्वारा देय कर (ट्रिब्यूट) 10,000 रु. वार्षिक तय कर दिया। साथ ही राजा को फूलिया परगना में दीवानी एवं फौजदारी मामलों को स्वतंत्र रूप से निपटाने तथा सजा देने के अधिकार दे दिए परन्तु उन सभी गंभीर अपराधों को, जिनमें मृत्युदण्ड अथश आजन्म कारावास का प्रावधान था, गवर्नर जनरल के एजेन्ट को सूचीत करने तथा उसकी सलाह से निपटाने का प्रावधान था ।
राज्यों और ईस्ट कम्पनी के बीच हुई की मुख्य धाराएँ
सामान्य शर्त :-
- सन् 1817-18 से पूर्व की गई संधियां सहयोगी सुरक्षा व्यवस्था पर आधारित थी परन्तु 1817-18 की संधियों में राज्यों द्वारा ब्रिटिश सरकार की प्रभुता स्वीकार की गई थी और राज्यों के शासकों को अधीनस्थ दर्जा दिया गया था। परन्तु जो बात पूर्व की संधियों और बाद की संधियों में समान थी, वह भी लॉर्ड वेलेजली (1798-1805) द्वारा प्रतिपादित नीति जो प्रायद्वीप में एकमात्र अंग्रेजी सरकार की सर्वभौमिकता बनाए रखने की समर्थक थी और देशी राज्यों की राजनीतिक स्वतंत्रता छीनकर उन्हें केवल नाममात्र की सत्ता के चिन्ह धारण करने की अनुमति देना था ।
- प्रत्येक राज्य के साथ संधि में उस राज्य की परिस्थितियों तथा ब्रिटिश सरकार की अपनी आवश्यकताओं के संदर्भ में शर्ते रखी गई थीं । कुछेक शर्त सभी राज्यों के लिए समान थी। सबसे महत्वपूर्ण शर्त वह थी, जिसका उद्देश्य सभी राज्यों को एक दूसरे से अलग-थलग करना था ताकि उनमें एकता न हो जाये यह धारा सीधे सादे शब्दों में न कहकर घुमा फिराकर संधि में जोड़ी गई, जैसे, शासक एवं उनके वंशज उत्तराधिकारी दूसरी रियासत के शासक अथवा रियासत से किसी प्रकार का संबंध नहीं रखेगें । वे बिना ब्रिटिश सरकार की जानकारी में लाए एवं बिना उनकी अनुमति के किसी अन्य रियासत अथवा उसके शासक के साथ किसी तरह की शर्ता या समझौता नहीं करेगें। वे तथा उनके वंशज व वारिस किसी राज्य पर आक्रमण नहीं करेंगे ।
- दूसरी महत्वपूर्ण शर्त वह थी जिसके द्वारा शासकों ने ब्रिटिश सरकार के अधीनस्थ सहयोगी के रूप में कार्य करना स्वीकार किया और ब्रिटिश सरकार की सर्वाच्चसत्ता को स्वीकारा। यदि दो राज्यों में कोई विवाद हो जाये तो उक्त विवाद ब्रिटिश सरकार को मध्यस्थता एवं निर्णय के लिए सौंपा जावेगा इन् संधियों में पीढ़ी दर पीढ़ी दोस्ती, मित्रता तथा आपसी हितों की समानता दर्शाते हुए कहा गया कि एक पक्ष का शत्रु अथवा मित्र दूसरे पक्ष का भी शत्रु अथवा मित्र माना जावेगा। राज्यों की सुरक्षा का दायित्व ब्रिटिश सरकार पर होगा तथा राज्यों के शासक ब्रिटिश सरकारके मांगने पर अपने राज्य के सैन्यदल उपलब्ध करायेंगे। कुछेक राज्यों से की गई संधियों में उन्होंने ब्रिटिश सरकार को नियमित रूप से कर (ट्रिब्यूट देना स्वीकार किया। कुछेक राज्यों के साथ संधि में ब्रिटिश सरकार ने यह स्वीकार किया कि वह उन राज्यों में अपना कोई अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसिड़शन) नहीं स्थापित करेगी ।
राज्यों और ईस्ट कम्पनी के बीच हुई संधियों की विशेष शर्त :-
- कुछेक राज्यों के साथ हुई संधियों में विशेष शर्त थीं जिनसे ब्रिटिश सरकार का हित किसी भी तरह प्रभावित होता था। उदाहरणार्थ, खोरासन एवं काबुल व सिरसा के बीच ब्रिटिश व्यापार बीकानेर राज्य के मध्य से गुजरने बाले मार्ग से होता था । ब्रिटिश हित में यह था कि यह व्यापार व वाणिज्य के लिए सुरक्षित हो तथा माल पर कस्टम चुंगी नहीं बढ़ाई जावे। अतः बीकानेर राज्य से हुई संधि में ये शर्त धारा 10 में रखकर 155 राज्य के शासक को इनकी पालना के लिए पाबन्द कर दिया । इसी तरह धारा 7 में प्रावधान किया गया कि शासक के विरुद्ध कार्य करने वाले उपद्रवी ठाकुरों अथश राज्य के अन्य लोगों द्वारा विद्रोह करने अथश शासक की सत्ता उलटने की कोशिश करने बालों को काबू में करने की जिम्मेदारी ब्रिटिश सरकार की होगी परन्तु इसके लिए सेना पर होने वाले व्यव के भुगतान की जिम्मेदारी शासक की होगी। यदि शासक इसमें असमर्थ हुआ तो राज्य का कुछ इलाका वह ब्रिटिश सरकार को सुपुर्द कर देगा जो भुगतान के पश्चात् राज्य को वापस लौटा दिया जायेगा ।
- इसी प्रकार जोधपुर रियासत से की गई संधि में धारा 8 के द्वारा यह सुनिश्चित किया गया कि ब्रिटिश सरकार के कभी भी चाहने पर रियासत 1500 घुड़सवार की सैन्य टुकड़ी उनकी सेवा में उपलब्ध करायेगी और आवश्यक हुआ तो रियासत की पूरी सेना भी ब्रिटिश सेना की सेवा में आयेगी सिवाय इतने सैनिक छोड़कर जो रियासत के आंतरिक प्रशासन चलाने के लिए आवश्यक हों ।
- उदयपुर, डूंगरपुर, प्रतापगढ़ और बांसवाडा राज्यों से हुई संधियों में कुछ धाराएं ऐसी थी जिनकी कथनी और करनी में विरधोभास था। उदयपुर से हुई संधि की धारा 9 के अनुसार महाराणा अपनी रियासत के खुद मुख्तार (एबसोल्यूट) शासक होगें और उनके राज्य में अंग्रेजी हुक्मूत का दखल नहीं होगा। इस धारा के विपरीत कैफेन जेम्स टॉड जो ब्रिटिश सरकार का मेवाड में स्वय पॉलिटिकल एजेण्ट नियुक्त द्वा था ने सारी रियासत के प्रशासन को अपने कजे में लेकर पूर्णरूप से राजकाज को चलाया और मई 1818 में महाराणा और उसके सामंती के बीच एक कौलनामा कराया जिसमें उन सभी को उसमें लिखित शती की पालना के लिए पाबन्द किया ।
- डूंगरपुर के साथ हुई संधि (धारा 4) में महारावल को राज्य का खुदमुख्तार (एबसोल्युट) शासक माना गया और कहा गया कि उनके राज्य में ब्रिटिश सरकार की दीशनी और फौजदारी हुकूमत दाखिल नहीं होगी परन्तु धारा 5 में लिखा गया कि राज्य के मामले अंग्रेज सरकार की सलाह के अनुसार तय होगें और इस काम में महाराश्ल की मर्जी का यथासाध्य पूरा ध्यान रखा जावेगा ।
- प्रतापगढ़ राज्य से हुई संधि की धारा 5 में कहा गया कि राजा अपने राज्य के स्वामी रहेंगे और लुटेरी जातियों का दमन करने एवं पुनः शांति व सुशासन स्थापित करने के अतिरिक्त उनके प्रबन्ध में अंग्रेजी सरकार कभी हस्तक्षेप नहीं करेगी राजा इकरार करते हैं कि वे अंग्रेजी सरकार की राय पर चलेंगे और अपने राज्य मे टकसाल या सौदागरों तथा व्यापार की वस्तुओं पर कोई अनुचित कर नहीं लगायेंगे। स्पष्ट है कि संधि में विसंगति के कारण राजा में निहित शक्तियां कबूल करके भी नकार दी गई।
- सिरोही रियासत के महाराव के रीजेंट के साथ हुई संधि की शर्त ऐसी थी जिसकी वजह से रियासत को ब्रिटिश सरकार पर आश्रित एक कॉलोनी के रूप में काम करने को बाध्य कर दिया। संधि की शर्त 4 के अनुसार अंग्रेजी हुकूमत सिरोही रियासत में दाखिल नहीं होगी लेकिन यहां के राजा हमेशा अंग्रेजी सरकार के अफसरों की सलाह के अनुसार रियासती इंतजाम करेगें और उनकी राय पर अमल करेंगे। शर्त 5 के अनुसार रीजेंट ने जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने संधि में जीवनपर्यन्त के लिए रीजेंट मान लिया था, खुले रूप से वादा किया कि वे ब्रिटिश सरकार के हाकिमों की सलाह के अनुसार जिस बात से राज्य को समृद्ध बनाने में ठीक समझा जावेगा, उसपर अमल करेंगे। ब्रिटिश हितों की रक्षार्थ शर्त संख्या 9 व 10 समाहित की गई। शर्त 9 में कहा गया कि ब्रिटिश अधिकारी सिरोही रियासत के इलाके राहदारी व चुंगी आदि की दरें समय-समय पर निर्धारित करने में सक्षम होगें ताकि व्यापार और प्रजा को प्रोत्साहन मिले । शर्त 10 के मुताबिक जब कोई अंग्रेजी फौज की टुकड़ी सिरोही राज्य में अथवा आसपास के इलाकों में नियुक्त हो तो उसके लिए रसद व जरूरी सामान का प्रबन्ध बिना उस पर कोई महसूल लगाए, रियासत करेगी यदि ब्रिटिश सरकार की राय होगी कि कुछ अंग्रेजी फौज सिरोही में रखी जावे तो राजा को इस बात से असंतोष या नाराजगी नहीं होगी। अगर यह जरूरी हो कि रियासत की जरूरत के वास्ते फौज की भर्ती हो और उसमें अंग्रेज अफसर रहें और वे फौज को नियंत्रित करें तो राजा इस मामले में अंग्रेजी हिदायतों की पालना करेंगे और राजा की यह फौज हमेशा अंग्रेजी सरकार के अफसरों के अधीन काम करने के लिए तैयार रहेगी ।
राज्यों और ईस्ट कम्पनी के बीच हुई संधियों के प्रभाव
इन संधियों का तत्काल प्रणव यह हुआ कि मराठों पिंडारियों और अन्य लूटपाट करने वाले कबीलों से राजपूताने की रियासतों को छुटकारा मिल गया, उन के द्वारा किया जा रहा शोषण समाप्त हुआ और राजाओं ने चैन की सास ली। संधियों के बाद उन्होने बाहरी एवं आंतरिक खतरों से राहत महसूस की क्योंकि आगे से राज्यों की सुरक्षा की जिम्मेदारी ब्रिटिश सरकार ने ले ली थी। आगे से अंतर्राज्यीय युद्धों की संभावना भी नहीं के बराबर हो गई क्योंकि आगे से अंतर्राज्यीय झगड़ों को ब्रिटिश सरकार की मध्यस्थता द्वारा हल करने का प्रावधान रखा गया था। दूसरा प्रभाव यह हुआ कि अब सैनिक सहायता के लिए राजा अपने सामंतों की बजाय अंग्रेजी सरकार पर निर्भर हो गए। परन्तु इन संधियों के दूरगामी प्रभाव राज्यों के हित में नहीं थे, विशेषकर बित्तीय, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में ।
(1) राज्य वित्तीय रूप से पंगु हो गए
कई रियासतों के साथ की गई सन्धियों में एक शर्त यह भी जोड़ दी गई थी कि वे ब्रिटिश सरकार को नियमित रूप से खिराज (ट्रीब्यूट ) देगें । इसके भुगतान की शर्त भी भिन्न-भिन्न थी। जयपुर के साथ हुई सधइ (शर्त 6 ) के अनुसार रियासत प्रथम वर्ष में कुछ भी भुगतान नहीं करेगी, परन्तु दूसरे वर्ष 4 लाख रूपए, तीसरे वर्ष 5 लाख, चौथे वर्ष 6 लाख, पांचवे वर्ष 7 लाख और छठे वर्ष 8 लाख रुपये भुगतान करेगी। आगे के वर्षों में भी आठ लाख रूपये वार्षिक तब तक देती रहेगी जब तक कि राज्य का राजस्व 40 लाख रूपये वार्षिक से ऊपर नहीं होता । राजस्व 40 लाख से ऊपर होने पर 8 लाख के अलावा चालीस लाख से ऊपर की राशि का 5/16 भाग अतिरिक्त देय होगा । बाद की घटनाओं से स्पष्ट वा कि राज इतनी बड़ी रकम देने की स्थिति में नहीं था । अतः राज्य पर कर्जा बढ़ता गया और खिराज का बकाया भी बढ़ता गया। सन् 1833 में यह बकाया 16 लाख रूपए हो गया तथा राजपूताना स्थित गवर्नर जनरल के एजेन्ट ने सरकार को सुझाव दिया कि छह माह का बकाया हो जाने पर उस पर 12 प्रतिशत की दर से आज वसूला जाये ताकि दरबार को देरी का बहाना न मिले। अन्य राज्यों के लिए भी बाज की यह दर लाग करने की नीति बना ली । जयपुर राज्य से ब्रिटिश सरकार ने सन् 1819 से 1835 तक खिराज (ट्रिब्यूट) के रूप में 1.18 करोड़ रुपयों की मांग की जिनमें से 96.75 लाख रुपए चुकाए जा चुके थे तथा वर्ष 1835 के अंत में 23.50 लाख रूपए (12 प्रतिशत बाज सहित) बकाया थे। रकम नहीं चुकाने का परिणाम यह हुआ कि राज्य के आंतरिक कामकाज में ब्रिटिश हस्तक्षेप बढ़ता गया और अंत में जोधपुर जयपुर की शामलात सांभर झील को ब्रिटिश सरकार ने ले लिया ताकि खिराज की बकाया राशि नमक की आय से वसूली जा सके। आखिरकार ब्रिटिश सरकार को अहसास हुआ कि उन द्वारा शुरू में तय किया गया खिराज राज्य की वास्तविक आय के अनुपात से अधिक था। इसलिए उन्होने सन् 1842 में 46 लाख रूपए माफ कर दिए और उस वर्ष के बाद खिराज की राशि घटाकर 4 लाख रु. वार्षिक तय कर दी ।
इसी प्रकार उदयपुर से हुई संधि (शर्त 6 ) के अनुसार राज्य की आय का चौथाई भाग प्रतिवर्ष पांच वर्ष तक खिराज के रूप में दिया जाना तय हुआ और उसके बाद आय का 378 भाग प्रतिवर्ष तय हुआ चूंकि राज्य यह राशि नियमित रूप से देने में असफल रहा परिणामस्वरूप सन् 1823 तक आठ लाख रूपया बकाया हो गया और महाजनों से लिया कर्ज 2 लाख रूपये हो गया । अतः राज्य का प्रबन्ध अंग्रेजी सरकार ने एक ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेन्ट को सीमा । महाराणा को प्रतिदिन खर्च के लिए एक हजार रुपये मिलते थे। राज्य के कुछ इलाकों का राजस्व केवल रिटिश सरकार को नियमित कर चुकाने के लिए आवांटित करना पड़ा । महाराणा जबान सिंह के शासन काल (1828-38 ई) में काफी खिराज बकाया हो गया और राज्य कर्ज से दब गया। उसके दत्तक पुत्र और उत्तराधिकारी सरदार सिंह के 1838 ई. में गद्दी पर बैठते समय राज्य पर लगभग 20 लाख रूपए का ऋण था जिसमें से 8 लाख खिराज की राशि थी। अंत में ब्रिटिश सरकार ने तय किया कि यदि राज्य बकाया नहीं चुकाता है तो कुछ इलाके जमानत के रूप में ले लिए जावे बाद में यह जानकर कि राज्य के लिए इतना खिराज चुकाना संभव नहीं है, सन् 1846 अरु में इसे घटाकर 2 लाख रूपए प्रतिवर्ष कर दिया।
अन्य राज्यों-जोधपुर, झालावाड़, बूंदी, कोटा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा आदि, जिनकी संधियों में खिराज देने का प्रावधान था, भी वित्तीय समस्याओं से ग्रसित हो गए। जो राज्य उदयपुर के ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेण्ट के अधीन थे, वहां चुंगी वसूलने का अधिकार ब्रिटिश सरकार ने अपने हाथों में ले लिया ताकि खिराज की राशि इस धन से वसूली जा सके। साथ ही राज्यों को आगाह कर दिया कि खिराज चुकाने का कोई संतोषप्रद प्रबन्ध नहीं किया गया तो ब्रिटिश सरकार को उनके इलाकों पर कब्जा करने का अधिकार है ।
2. आर्थिक शोषण:
संधियों में स्पष्ट रूप से कोई ऐसा प्रावधान नहीं था जिससे ब्रिटिश सरकार की इन राज्यों में आर्थिक लाभ के लिए घुसपैठ का इरादा प्रकट होता हो सिवाय इसके कि कुछेक राज्यों चुंगी की दर नियमित करने में उन्होने रुचि अवश्य दिखाई परन्तु संधियों के पश्चात् उन्होने अपने व्यापारिक हितों के लिए रियायतों की मांग की दौलतराव सिंधिया और ब्रिटिश सरकार के बीच दिनांक 25 जून 1818 को हुई संधि से अजमेर क्षेत्र अंग्रेजों के कव्वे में आ गया था जिसका वार्षिक राजस्व लगभग 5 लाख रु. था उन्होने 28 जुलाई 1818 को अपना एक सुपीरन्टेंडेण्ट वहाँ नियुक्त कर दिया। अजमेर के मेरवाडा क्षेत्र के आसपास के गांव जो मारवाड और मेवाड राज्यों के थे, उनका प्रशासन भी अंग्रेजों ने उक्त राज्यों से संधियाँ करके अपने हाथों में ले लिया था। कालांतर में यहां ब्रिटिश कोष (ट्रेजरी) स्थापित होने से राज्यों द्वारा खिराज यहीं जमा कराया जाने लगा। सेठ साहूकारों को रियायत देकर अजमेर में बसने के लिए आकर्षित किया गया। सन् 1836 में एक नया शहर (नया नगर अथवा ब्यापार) बसाया गया जहां बाहर के आपारियो को रियायत देकर आने के लिए प्रेरित किया गया। बाबर के बसने से पाली (जोधपुर राज्य) का ब्यापारिक केन्द्र के रूप में महल समाप्त हो गया और खबर एक व्यापारिक केन्द्र बन गया ।
ब्रिटिश सरकार का ध्यान शीघ्र ही मालवा और हाडौती के क्षेत्र में पैदा होने बाले अफीम की ओर गया । मालवा का अफीम चीन के बाजारों में ब्रिटिश सरकार के बंगाल के अफीम से प्रतिस्पर्धा में ऊंचा रहता था। अतः मालवा व हाडौती के अफीम की पैदाकर और आपार को काबू में करने के लिए अंग्रेजी सरकार ने सभी प्रकार के तरीके अपनाए। उन्होने बूंदी और कोटा राज्यों पर अनुचित दबाव डालकर गुरु संधियां की परन्तु उसके बाबजूद वे न तो पैदावार और न ही व्यापार को नियंत्रित कर सके । अंत में उन्होने इस पर भारी चुंगी लगा दी और तस्करी रोकने के लिए विभिन्न उपाय किए । यह व्यापारिक मार्गो से होकर कराची जाता था जहां से यह जहाजों से चीन पहुंचता था । व्यापारिक मार्गो पर ब्रिटिश सरकार द्वारा निगरानी रखी जाने लगी और अफीम पकड़ने वालों को इनाम देने की घोषणा की गई । कुछेक राज्यों के शासकों ने ब्रिटिश सरकार के इस संबंध में दिए गए निर्देशों की अवहेलना की। राज्यों की आमदनी पर इस जापार के रोक-टोक से असर पड़ने लगा और बिरोध हो गया । अतः ब्रिटिश सरकार ने अफीम पर चुंगी बड़ा दी और नए व्यापारिक मार्ग खोले जिससे इस पर उनका नियंत्रण बना रहे ।
राजपूताना में नमक का उत्पादन जोधपुर रियासत के सांभर डीडवाना, पचपद्रा, फलोदी, पोकरण, सरगोट नाश, गुदा, तथा भरतपुर व बीकानेर के कुछ हिस्सों में होता था। सन् 1835 से 1843 तक सांभर झील (जोधपुर-जयपुर का शामलात भाग) को ब्रिटिश सरकार ने ले लिया था तथा इस काल में उनकी इस स्रोत से आय 11.55 लाख रूपये हुई। यह नमक भिकनी दिल्ली, आगरा, उत्तर-पश्चिमी प्रांत, ग्वालियर, बुन्देलखण्ड तथा सेण्ट्रल प्रोविसेज को जाता था । इतने बड़े कारोबार को लेने के लिए ब्रिटिश सरकार लालायित थी और सन् 1856 में इस संबंध में संधियां करने का मानस बनाया परन्तु 1357 के विद्रोह के कारण बात आगे नहीं बढ़ पाई। सन् 1869 में जयपुर से संधि करके सांभर शामलात का जयपुर का भाग ब्रिटिश सरकार ने 2.75 लाख रुपये वार्षिक पर लीज पर ले लिया अगले वर्ष (1870) जोधपुर ने भी अपने हिस्से की सांभर झील को ब्रिटिश सरकार को लीज पर दे दिया । उसी वर्ष दूसरी संधि के द्वारा गुढा व नाश को भी लीज पर दे दिया गया। सन् 1879 में जोधपुर से हुई संधि के द्वारा पचपद्रा, डीडवाना, फलोदी व की क्षेत्र लीज पर दे दिए गए। अन्य राज्यों, (लूकरणसर व ताल छापर क्षेत्र) जैसलमेर, सिरोही, भरतपुर आदि से भी संधियां हुई । ब्रिटिश सरकार को सांभर, डीडवाना पचपद्रा आदि झीलों से उन्नीसवीं सदी के अंत में 1.11 करोड़ रूपयों की वार्षिक आय होती थी ।