राजस्थान में 1857 ई. का विप्लव: कारण एवं परिणाम |Uprising of 1857 in Rajasthan: Causes and consequences - Daily Hindi Paper | Online GK in Hindi | Civil Services Notes in Hindi

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सोमवार, 2 अक्तूबर 2023

राजस्थान में 1857 ई. का विप्लव: कारण एवं परिणाम |Uprising of 1857 in Rajasthan: Causes and consequences

राजस्थान में 1857 ई. का विप्लव: कारण एवं परिणाम

राजस्थान में 1857 ई. का विप्लव: कारण एवं परिणाम |Uprising of 1857 in Rajasthan: Causes and consequences

 

राजस्थान में 1857 ई. का विप्लव: कारण एवं परिणाम प्रस्तावना 

  • 1857 ई. में ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह आधुनिक भारतीय इतिहास की एक अभूतपूर्व तथा युगान्तकारी घटना है। भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना छल, धोखे और विश्वसघात से हुई थी । भारत में जिस तरह ब्रिटिश सजा कायम हुई उस तरह इतिहास में और कोई सत्ता कायम नहीं हुई थी ।

 

  • इस इकाई में हम यह जान पायेंगे कि 1857 ई. का विप्लव अकस्मात घटना नहीं थी । अपितु इसकी पृष्ठभूमि में वह असंतोष निहित था जो 19 वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही भारतवासियों में फैला हुआ था । भारत में अंग्रेजी शासन की स्थापना 1757 ई. के प्लासी के युद्ध से हुई थी और 1857 ई. तक यहाँ एक विशाल ब्रिटिश साम्राज्य स्थापित हो गया था इन सौ वर्षो में भारतीय जाता ईस्ट इण्डिया कम्पनी की शासन सम्बन्धी, लगान सम्बन्धी, धार्मिक और राजनीतिक नीति से असन्तुष्ट थी ।

 

  • यहां हम 1857 के विप्लव की उत्पति के विविध कारणों से परिचित होंगे। विशेष तौर पर हम यह जान पायेंगे कि प्रारम्भ में कंपनी नवाबों या बादशाह के नाम पर काम चलाती रही, इसलिए लम्बे समय तक तो भारतवासी यह नहीं समझ सके कि शासन का अधिकार किसी विदेशी के हाथ में चला गया है और वे अपने ही देश में गुलाम बन गये हैं लेकिन जब लोगों को वास्तविकता का पता चला तो विद्रोह का वातावरण बनने लगा । जनता के निरन्तर बढते हुए असंतोष के परिणामस्वरूप एक जापक और भयंकर विद्रोह हुआ जिसे भारत का स्वतंत्रता संग्राम कहा जा सकता है. 

 

  • इस आर्टिकल में एक यह जान पायेंगे कि 1857 ई के संघर्ष का मुख्य रंगस्थल उतरी भारत था जहां क्रांतिकारियों ने अपनी सरकारें स्थापित कर ली थी। विद्रोह के प्रमुख कर्णधार झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, कुंवर सिंह, नाना साहब, अमर सिंह, तात्या टोपे, मौलवी अहमदशाह, राव तुलाराम, इत्यादि थे । एक वर्ष से ज्यादा समय तक विद्रोहियों ने भारी कठिनाइयों के बावजूद अपना संघर्ष वीरतापूर्वक जारी रखा। हजारों लोगों ने अपने प्रिय आदर्श के लिए लडते हुए इज्जत से जान दी । यद्यपि क्रांति निर्दयतापूर्वक दबा दी गई। लेकिन इसका भारतीयों तथा अग्रेज शासकों के पारस्परिक सम्बन्धों पर गहरा प्रभाव पड़ा ।

 

  • 1857 की घटनाओं से यह सिद्ध होता है। कि उस समय भारत में हिन्दू और मुसलमानों में बहुत एकता थी । इसी कारण 1857 के संघर्ष ने राष्ट्रीय और जातीय रूप धारण किया, साम्प्रदायिक नहीं उसी भाईचारे और एकता की महती आवश्यकता आज भी है ।

 

  • हम यह भी पढ़ेंगे की 1657 का विद्रोह सिर्फ एक ऐतिहासिक दुर्घटना नहीं थी । अपितु अपनी विफलता में भी इसने एक महान् उद्देश्य की पूर्ति की। यह उस राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम का प्रेरणा स्रोत बन गया, जिसने बह हासिल कर दिखाया, जो विद्रोह हासिल नहीं कर सका ।

 

राजस्थान में 1857 ई. का विप्लव के लिए उत्तरदायी कारण 

  • गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग के शासनकाल की एक महत्वपूर्ण घटना 1857 का विद्रोह थी । इसने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी और कई बार ऐसा प्रतीत होने लगा था कि भारत में अंग्रेजी राज्य का अन्त हो जायेगा । यद्यपि यह सैनिक विद्रोह के रूप में शुरू हुआ किन्तु जन ही इसने उदर भारत के विस्तृत क्षेत्र की जनता और कृषक वर्ग को भी शामिल कर लिया। इस व्यापक विद्रोह के अनेक कारण थे, किन्तु मोटे तौर पर इसका मुख्य कारण अंग्रेजों द्वारा भारतीय जनता का अत्यधिक शोषण था । 1757 के प्लासी युद्ध के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने ऐसी नीतियाँ अपनाई, जिससे भारतीय जनता में तीव्र असंतोष उत्पन्न हुआ । चूंकि यह विद्रोह सिपाहियों द्वारा शुरू किया गया था और इसका तात्कालिक कारण सिपाहियों की बगावत थी। अतः विदेशी इतिहासकार केवल सैनिक असन्तोष को ही इसका वास्तविक कारण मानते हैं। परन्तु आधुनिक विद्वानों की धारणा है कि यह ब्रिटिश शासन के दौरान विकीसत हो रहे विविध स्तरीय असन्तोष का परिणाम था। यहां हम 1857 ई. के विप्लव के महत्वपूर्ण कारणों का विश्लेषण करेंगे ।

 

राजस्थान में 1857 ई. का विप्लव:राजनीतिक कारण

 

अंग्रेज भारत में व्यापारी के रूप में आये थे, परन्तु धीरे-धीरे उन्होंने राज्य स्थापना तथा उसके विस्तार का कार्य आरम्भ किया। धीरे-धीरे भारतीयों की राजनीतिक स्वतंत्रता का अपहरण होता गया और वे अपने राजनीतिक तथा उनसे उत्पन्न अधिकारों से वंचित होते गये। जिसके फलस्वरूप उनमें डा असंतोष फेला, जिसका विस्फोट 1857 ई. के विप्लव के रूप में हुआ। इस क्रांति के राजनीतिक निम्नलिखित थे-

 

(1) र्ड डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति: 

  • 1857 की क्रांति के लिए डलहौजी की साम्राज्यशदी नीति काफी हद तक उत्तरदायी थी। उसने विजय तथा पुत्र गोद लेने कई निषेध द्वारा देशी राज्यों के अपहरण का एक कुचक चलाया जिसने समपूर्ण भारत के देशी नरेशों को आतंकित कर दिया और उनके हृदय में अस्थिरता तथा आशंका का बीजारोपण कर दिया। लार्ड डलहौजी ने व्यपगत सिद्धाना या हडप-नीति को कठोरतापूर्वक अपनाकर देशी रियासतों के निःसन्तान राजाओं को उत्तराधिकार के लिये दत्तक पुत्र की आज्ञा नहीं दी और सतारा (1848), नागपुर (1853), झांसी (1854), बरार (1854), संभलपुर, जैतपुर, बघाट, अदपुर आदि रियासतों को कथनी के ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। उसने 1856ई. में अंग्रेजों के प्रति वफादार अदद रियासत को कुशासन के आधार पर ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया.

 

(2) मुगल सम्राट के साथ दुर्व्यवहार:- 

  • अंग्रेजों ने भारतीय शासको के साथ दुर्व्यवहार भी किया । उन्होंने मुगल सम्राट को नजर देना व समान प्रदर्शित करना बन्द कर दिया इतना ही नहीं लार्ड डलहौजी मुगल सम्राट की उपाधि को समाज करने का निश्चय किया उसने बहादुरशाह के सबसे बड़े पुत्र मिर्जा जवाबख्त को युवराज स्वीकार करने इंकार कर दिया और बहादुरशाह से अपने पैतृक निवास स्थान लाल किले को खाली कर कुतुब में रहने के लिए कहा। यद्यपि दिल्ली का सम्राट अब शक्तिहीन शोभा की वस्तु मात्र रह गया था परन्तु देशी राजाओं तथा जनता में अब भी उसकी प्रतिष्ठा बची हुई थी। साथ ही भारतीय मुसलमान उस समय तक तैमूर-वंश के अंतिम शासक बहादुरशाह के समान और समृद्धि को अपना समान व समृद्धि समझते थे । इस कारण बहादुरशाह के प्रति अंग्रेजों के दुर्व्यवहारों से भारतीय मुसलमानों विशेषकर दिल्ली में बहुत असन्तोष फैला परिणामस्वरूप विद्रोहियों ने मुगल सम्राट को अपना नेता मान लिया और उसका दरबार क्रांति का प्रमुख केन्द्र बन गया ।

 

(3) ब्रिटिश पदाधिकारियों के वक्तव्य:- 

  • डलहौजी की साम्राज्यदी नीति के साथ-साथ कुछ अंग्रेज अधिकारियों ने ऐसे वक्तव्य दिये जिससे देशी नरेश बहुत आतंकित हो गये और अपने भावी अस्तित्व के सम्बन्ध मे पूर्ण रूप से निराश हो उठे। उदाहरणस्वरूप सर चार्ल्स नेपियर ने वक्तव्य दिया था कि यदि मैं बारह वर्ष तक भारत का सम्राट होता तो किसी भी भारतीय नरेश का अस्तित्व न रह जाता । निजाम का नामो-निशान न रह जायेगा और नेपाल हमारा हो जायेगा।

 

(4) नाना साहब और रानी लक्ष्मी बाई का असन्तोष:- 

  • झांसी की रानी लक्ष्मी बाई तथा पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब अंग्रेजों के घबहार से बहुत नाराज थे। अंग्रेजों ने झांसी के राजा गंगाधर राव के दत्तक पुत्र दामोदर राव को उत्तराधिकार से दृचित करके झांसी राज्य को कथनी के राज्य में शामिल कर लिया था। इस अत्याचार को रानी लक्ष्मीबाई सहन न कर सकी और क्रान्ति के समय उसने विद्रोहियों का साथ दिया। इसी तरह अंग्रेजों ने पेशवा बाजीराव के दत्तक पुत्र धोसु पन्त अथवा नाना साहब के साथ भी अचाय किया और उन्हें नोटिस दिया गया कि बिठुर की जागीर भी तुमसे जिस समय चाहे छीन ली जायेगी। उनकी पेंशन भी जब्त कर ली गई । फलतः विप्लव के समय उसने क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया ।

 

6 अवध का विलय और नवाब के साथ अत्याचार:- 

  • अंग्रेजों ने बलपूर्वक लखनऊ पर अधिकार करके नबाव वाजिद अली शाह को निर्वासित कर दिया था और निर्लज्जतापूर्वक महलों को लूटा था बेगमों के साथ बहुत अपमानजनक व्यवहार किया गया था। इससे अवध के सभी वर्ग के लोगों में बडा असन्तोष फैला और अवध क्रांतिकारियों का केन्द्र बन गया ।

 

(6) प्राचीन राजनीतिक व्यवस्था का विध्वंस:- 

  • अंग्रेजों की विजय के फलस्वरूप प्राचीन राजनीतिक व्यवस्था पूर्ण रूप से ध्वस्त हो गई थी। ब्रिटिश शासन से पहले भारतवासी राज्य की नीति को पूरी तरह प्राभावित करते थे परन्तु अब वे इससे वंचित हो गये अब केवल अंग्रेज ही भारतीयों के भाग्य के निर्माता हो गये। 

 

(7) अंग्रेजों के प्रति विदेशी भावना:- 

  • भारतीय जनता अंग्रेजों से इसलिए भी असन्तुष्ट थी क्योंकि समझते थे कि उनके शासक उनसे हजारों मील दूर रहते है। तुर्क, अफगान और मुगल भी भारत में विदेशी थे लेकिन वे भारत में ही बस गये थे और इस देश को उन्होंने अपना देश बना लिया था जबकि अंग्रेजों ने ऐसा कोई काम नहीं किया था। अतएव भारतीयों के हृदय और मस्तिष्क से अंग्रेजों के प्रति विदेशी की भावना नहीं निकल सकी थी।

 

(8) उच्च वर्ग में असंतोष:- 

  • देशी राज्यों के नष्ट हो जाने से न केवल उनके नरेशों का विनाश हुआ वरन् उच्च वर्ग के लोगों की स्थिति पर भी बड़ा घातक प्रहार हुआ। उच्च वर्ग के लोगों को इन राज्यों में अनेक विशेषाधिकार व सुविधाएं प्राप्त थी । देशी राज्यों को कथनी के राज्य में मिला लिये जाने पर उनकी नई व्यवस्था की गई और उच्च वर्ग को जो विशेषाधिकार तथा सुविधाएं प्राप्त थी उनको समाप्त कर दिया गया। इससे उच्च वर्ग के लोगों में बड़ा असंतोष था ।

 

राजस्थान में 1857 ई. का विप्लव प्रशासनिक कारण 

अंग्रेजो की प्रशासनिक नीतियों से भारतीय संतुष्ट नहीं थे। उनकी नीतियों के कारण भारत में प्रचलित संस्थाएं एवं परम्पराएँ समाप्त होती जा रही थी तथा प्रशासन जनसाधारण से दूर हो गया था। अंग्रेजी प्रशासन की वे नीतियाँ, जिनसे भारतीयों में असंतोष फैला, निम्नलिखित है-

 

(1) नवीन शासन पद्धति को समझने में कठिनाई होना:- 

भारतीय जिस शासन को सदियों से देखते आ रहे थे, वह समाप्त कर दिया गया था। नई शासन पद्धति को समझने में उन्हें कठिनाई आ रही थी तथा, उसे वे शंका की दृष्टि से देखते थे ।

 

(2) भारतीयों को प्रशासनिक सेवाओं से अलग रखने की नीतिः 

अंग्रेजों ने शुरू से ही भारतीयों को प्रशासनिक सेवाओं में शामिल न कर भेद-भाव पूर्ण नीति अपनाई । लार्ड कार्नवालिस का भारतीयों की कार्यकुशलता और ईमानदारी पर विश्वास नहीं था। अतः उसने उच्च पदों पर भारतीयों के स्थान पर अंग्रेजों को नियुक्त कर दिया। परिणामतः भारतीयों के लिए उच्च पदों के द्वार बन्द हो गये यद्यपि 1833 ई. के कम्पनी के चार्टर एक्ट में यह आवश्वासन दिया गया था कि धर्म, वंश, जन्म, रंग या अन्य किसी आधार पर सार्वजनिक सेवाओं में भर्ती के लिए कोई भेदभाव नहीं बरता जाएगा, परन्तु अंग्रेजों ने इस सिद्धान्त का पालन नहीं किया। सैनिक और असैनिक सभी सार्वजनिक सेवाओं में उच्च पद यूरोपियन व्यक्तियों के लिए ही सुरक्षित रखे गये थे। सेना में एक भारतीय का सबसे बड़ा पद सूबेदार का होता था जिसे 60 या 70 रूपये प्रति माह वेतन मिलता था । असैनिक सेवाओं में एक भारतीय को मिल सकने वाला सबसे बड़ा पद सदर अमीन का था जिसे 500/- रूपये प्रति माह वेतन मिलता था। उच्च पद देना अंग्रेज अपना एकाधिकार समझते थे ।

 

(3) ब्रिटिश न्याय व्यवस्था से भारतीयों में असंतोष:- 

ब्रिटिश न्याय प्रशासन एक भिन्न प्रशासनिक व्यवस्था का प्रतीक था विधि प्रणाली और सम्पत्ति अधिकार पूरी तरह से नये थे न्याय प्रणाली में अत्यधिक धन तथा समय नष्ट होता था और फिर भी निर्णय अनिश्चित था। भारतीय इस न्याय व्यवस्था को पसन्द नहीं करते थे। अगर एक छोटा सा किसान भी किसी जमींदार की शिकायत करता था तो जमीदार को न्यायालय में जाना पडता था। इस प्रकार सम्मानित व्यक्ति अंग्रेजी न्यायालयों असंतुष्ट थे ।

 

(4) दोषपूर्ण भूराजस्व प्रणाली:- 

भूराजस्व प्रणाली को नियमित करने के नाम पर अंग्रेजों ने अनेक जमींदारों के पट्टों की छानबीन की। जिन लोगों के पास जमीन के पट्टे नहीं मिले, उनकी जमीनें छीन ली गई । बम्बई के प्रसिद्ध इमाम आयोग ने लगभग बीस हजार जागीरें जल कर ली थी। लार्ड बैन्टिक तो माफी की भूमि भी छीन ली। इस प्रकार कुलीन वर्ग को अपनी सम्पत्ति व आय से हाथ धोना पड़ा। भूमि अपहरण की नीति के कारण तालुकेदारों में बड़ा असंतोष फैला और क्रांति में इन लोगों ने सक्रिय भाग लिया। किसानों के कल्याण एवं लाभ के नाम पर स्थाई बन्दोबस्त, रैयतवाडी व महलवाडी प्रणाली लागू की गई थी और हर बार किसानों से पहले की अपेक्षा अधिक लगान वसूल किया गया, जिसके कारण किसान लगातार निर्धन होकर साधारण मजदूर बनता गया । अंग्रेजों की लगान-नीति के विरुद्ध इतना प्रबल विरोध था कि अनेक स्थानों पर बिना सेना की सहायता से लगान जमा नहीं किया जा सकता था। 

 

(5) शक्तिशाली ब्रिटिश अधिकारी वर्ग का विकास:- 

भारत में कम्पनी शासन की सर्वोच्चता स्थापित होने के साथ ही प्रशासन में एक शक्तिशाली ब्रिटिश अधिकारी वर्ग का उदय हुआ। यह वर्ग भारतीयों से मिलना पसन्द नहीं करता था और हर प्रकार से उन्हें अपमानित करता था । अंग्रेजों के इस प्रजाति भेदभाव की नीति से भारतीय क्रुद्ध हो उठे और उनका यह क्रोध 1857 ई. के विप्लव के रूप में व्यक्त हुआ। 

 

(6) शिक्षित भारतीयों में ब्रिटिश शासन से असंतोष:- 

  • शिक्षित भारतीयों को यह आशा थी कि शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ उन्हें राजनीतिक प्रशासनिक अधिकार प्राप्त हो जायेंगे। लेकिन अंग्रेजों की ऐसी कोई इच्छा नहीं थी । शिक्षित भारतीयों को प्रशासन में कहीं शामिल नहीं किया गया था जिससे उन्हें अंग्रेजी शासन की सद्भावनाओं पर कोई विश्वास नहीं रहा था ।

 

राजस्थान में 1857 ई. का विप्लव आर्थिक कारण 

भारत में अंग्रेजी शासन का मूल आधार भारत का आर्थिक शोषण था। अंग्रेजों ने भारतीयों का जितना राजनीतिक शोषण किया, उससे भी बढ़कर उन्होंने आर्थिक शोषण किया। चूंकि अंग्रेज भारत में व्यापारी के रूप में आए थे। अतएव शुरू से ही उनका लक्ष्य धन कमाना था अपने इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए उन्होंने नैतिक और अनैतिक सभी प्रकार के साधनों का प्रयोग किया । 1857 ई. के विप्लव के आर्थिक कारण निम्नलिखित थे -

 

(1) धन का विदेश गमन:- 

अंग्रेजों के पूर्व जिन लोगों ने भारत पर आक्रमण किया था और यहां अपना राज्य स्थापित किया था उन्होंने भारत को ही अपना स्थायी निवास बना लिया था। अतएव भारत की सम्पत्ति भारत में ही रह जाती थी लेकिन अंग्रेजों ने कभी भी भारत को अपना स्थायी घर नहीं बनाया । इस प्रकार भारत में अनेक तरीकों से धन कमाकर के अन्त में वे अपने देश ले जाते थे। अपने देश से धन का यह गमन भारतीयों को सहन नहीं था ।

 

(2) भारतीय व्यापार एवं उद्योगों का विध्वंसः 

19वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति हो चुकी थी इसलिए इंग्लैण्ड को भारत से कच्चा माल ले जाने और अपने कारखानों में तैयार माल को बेचने के लिए भारतीय बाजार की आवश्यकता थी। इन दोनों जरूरतों को पूरा करने के लिए इंग्लैण्ड भारतीय उद्योग धन्धों को नष्ट कर दिया। एक ग्रामीण उद्योग के बाद दूसरा ग्रामीण उद्योग नष्ट होता गया और भारत ब्रिटेन का आर्थिक उपकरण बन गया। चूंकि अंग्रेजों ने भारतीय व्यापारवाणिज्य और कुटीर उद्योग पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था। अतः भारतीयों में गरीबी तेजी से लगी ।

 

(3) किसानों की दशा दयनीय होना:- 

अंग्रेजों ने किसानों की दशा सुधारने के नाम पर स्थायी बन्दोबस्त रैयतवाडी व माहलवाडी प्रणाली लाग की लेकिन इन सब में किसानों से बहुत ज्यादा भूमिकर वसूल किया गया जो किसान समय पर भूमि कर नहीं चुका पाते थे। उनकी भूमि को नीलाम कर दिया जाता था। इससे किसानों की दशा दयनीय होती गयी। शासन की दमनात्मक नीतियाँ और बार-बार पढ़ने अकालों से उनका जीवन विनाश के कगार पर पहुंच गया। यदि किसान न्याय पाने के लिए न्यायालय की शरण में जाते तो उनकी पूर्ण बरबादी अवश्यभावी थी। जब फसल अच्छी होतो थी तो खेतिहर को पुराना कर्ज चुकाना होता था और जब खराब होती तो कर्ज का बोझ दुगना हो जाता था । अधीनस्थ कर्मचारियों, न्यायालयों तथा महाजनों के बीच गठबन्धन से ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई।  जिससे किसान का असंतोष बहुत बढ़ गया और वे सत्ता को उखाड़ने के लिए किसी भी अवसर का स्वागत करने के लिए तैयार हो गये ।

 

(4) भूमि का अपहरण :- 

बैन्टिक ने कर मुक्त भूमि का अपहरण किया, जिसके कारण कुलीन वर्ग के लोगों को अपनी जीविकोपार्जन के लिए दर-दर की ठोकरें खानी पड़ी। काम ये कर नहीं सकते थे, भीख मांगने में इन्हें शर्म आती थी। उच्च वर्ग की प्रतिष्ठा और मर्यादा को जबरदस्त धक्का लगा मजबूरी में उन्होंने भी सिपाहियों के विद्रोह का समर्थन किया और उसमें शामिल हो गये ।

 

(5) शिल्पकारों और दस्तकारों के दमन से उत्पन्न असंतोष:- 

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन ने भारतीय दस्तकारी और शिल्प के प्रति उपेक्षा का रवैया अपनाया। जो थोड़ी बहुत छूट दी गई बह भी इसलिए कि भारतीय दस्तकार बही बनाएं जो अंग्रेज चाहते हैं। पूरी दुनिया में अपनी कला के लिए मशहूर भारतीय दस्तकार और शिल्पकार भूखे मरने लगे। उन्होंने रोजगार की तलाश की, लेकिन रोजगार उन्हें नहीं मिला । क्योंकि जिस तेजी के साथ दस्तकारी खत हुई उस तेजी के साथ औद्योगिक विकास नहीं हुआ । बेकार कारीगरों ने कृषि पर निर्भर होने का प्रयास किया । किन्तु भूमि सीमित होने के कारण उन्हें कृषि से कोई लाभ नहीं हुआ इस प्रकार विदेशी प्रतिद्वंदी के फलस्वरूप श्रमिक बेकारी का शिकार बन गया और भूमि पर बेकार का बोझ बन गया और समाज के लिए शाश्वत आर्थिक अभिशाप बन गया ।

 

(6) बेकारी की समस्या:- 

देशी राज्यो के अंग्रेजी राज्यों में बिलय होने के फलस्वरूप हजारों सैनिक तथा असैनिक बेकार तथा जीविकाहीन हो गये थे। इन बेरोजगारों की संख्या लाखों में थी । बेरोजगारों अंग्रेजों के खिलाफ असन्तोष उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था। उन्होंने घूम-घूम कर अंग्रेजों के विरुद्ध प्रचार किया तथा जनता को विद्रोह के लिए प्रोत्साहित किया ।

 

राजस्थान में 1857 ई. का विप्लव सामाजिक कारण 

अंग्रेजी शासन ने भारतीय समाज में भी भयानक क्रान्ति उत्पन्न कर दी थी। एकाधिकारवादी ब्रिटिश शासन के प्रोत्साहन पर अंग्रेज अधिकारियों ने जिस तरह सामाजिक परम्पराओं, मान्यताओं पर कुलराघात किया उससे परम्परावादी हिन्दुओं और मुसलमानों को आघात पहुंचा। उन्होंने यह समझा कि सामाजिक परिवर्तन के नाम पर कानून बनाकर अंग्रेज उनके धर्म और संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं । भारतीयों को अंग्रेजी राज्य में मुख्यतः निम्नलिखित सामाजिक असुविधाओं का सामना करना पड़ा

 

(1) बिदेशी सभ्यता का प्रचार:- 

अंग्रेज अपने साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ अपनी सभ्यता तथा संस्कृति के सार का प्रयास कर रहे थे। इससे भारतीय जनता अत्यंत नाराज और असन्तुष्ट थी 

(2) भारतीयों के सामाजिक क्रियाकलापों में हस्तक्षेप से उत्पन्न असंतोष:- 

अंग्रेजों ने भारतीय समाज के दोषों को भी दूर करने का प्रयत्न किया । लार्ड बिलियम बैंटिक (1828-35 ई) ने एक कानून बनाकर सती प्रथा को बन्द कर दिया । कन्यावध और बालविवाह का भी निषेध किया गया लार्ड कैनिंग ने विधवा-विवाह की आज्ञा दे दी लार्ड डलहौजी ने 1856ई. में पैतृक सम्पत्ति सम्बन्धी कानून या जिसके द्वारा हिन्दू उत्तराधिकार नियम में परिवर्तन कर दिया गया। इस कानून के अनुसार यह निश्चित किया गया कि यदि कोई हिन्दू ईसाई धर्म ग्रहण कर लेगा, तो उस व्यक्ति को उसकी पैतृक सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा अर्थात् ईसाई बनने वाले हिन्दू व्यक्ति का अपनी पैतृक सम्पत्ति में भाग बना रहेगा। रूढ़िवादी भारतीयों के लिए अपने परम्परागत सामाजिक नियम में अंग्रेजों का हस्तक्षेप असहनीय था । अतः उन्होंने विद्रोह को शुरू करने में योगदान दिया

 

(3) वैज्ञानिक आविष्कारों का प्रयोग:- 

लार्ड डलहौजी ने रेल डाक, तार आदि का प्रयोग भारत में शुरू किया था । इन वैज्ञानिक प्रयोगों से भी भारतीय अत्यन्त शंकित हुए । उन्होंने यह समझा कि हमें यूरोपियन बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है।

 

(4) अंग्रेजी शिक्षा का प्रसारः- 

अंग्रेजों ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार बहुत तेजी से शुरू किया था। मैकाले व अन्य अंग्रेजों ने भारतीय भाषाओं साहित्य तथा विधाओं के विरुद्ध जो भाषण दिया था उससे भारतीय बहुत शंकित हो गये और उन्हें यह विश्वास हो गया था कि अंग्रेज उनकी सभ्यता तथा संस्कृति को नष्ट करना चाहते है तथा भारतीय नवयुवकों को अंग्रेजी की शिक्षा देकर उनका युरोपीयकरण करना चाहते है नई शिक्षा प्रणाली के अनुसार जो स्कूल खोले गये, उनमें सभी जाति तथा धर्मो के विद्यार्थीएक साथ बेठकर शिक्षा ग्रहण करते थे। यह भारतीय परम्परा के विरूद्ध था। इससे असन्तोष की भावना उत्पन्न हुई ।

 

(5) अंग्रेजों की जातीय विभेद की नीति:- 

सामाजिक दृष्टि से अंग्रेज अपने को उच्च नस्त का मानकर भारतीयों को बहुत निम्न दृष्टि से देखते थे । भारतीयों के प्रति उनका व्यवहार और उनके विचार बहुत ही अपमानजनक हुआ करते थे। ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं, जिनसे इस बात की पुष्टि होती है कि अंग्रेज भारतीयों को बराबरी का दर्जा नहीं देना चाहते थे। ब्रिटिश जज भी अंग्रेजों के प्रति पक्षपात करते थे । इसलिए, अंग्रेजों के अपमानजनक दुर्व्यवहार के विरुद्ध भारतीय न्याय भी नहीं पा सकते थे । समय के साथ-साथ अंग्रेजों के व्यक्तिगत अत्याचार की घटनाएं कम होने के बजाय बढ़ती जा रही थी । ये घटनाएं भारतीयों में असन्तोष का एक मुख्य कारण थी ।

 

राजस्थान में 1857 ई. का विप्लव धार्मिक कारण 

कूटनीतिज्ञ अंग्रेजों ने अप्रत्यक्ष रूप से ईसाई धर्म के प्रचार का भागीरथ प्रसार किया। जिससे भारतीय जनता विशेषकर सैनिकों में आतंक छा गया। अंग्रेजों द्वारा भारतीय धर्म में हस्तक्षेप के निम्नलिखित प्रयास किये गए

 

(1) ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रसार की स्वीकृति देना:- 

1813 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा अंग्रेजी सरकार ने ईसाई मिशनरियो को भारत में धर्म प्रचार की स्वीकृति प्रदान कर दी थी। उसके बाद ईसाई पादरी बड़ी संख्याओं में भारत आने लगे। उनका एक मात्र लक्ष्य भारत में ईसाई धर्म का प्रसार था। शुरू में अंग्रेज शासकों ने पादरियों को धर्म प्रचार में कोई सहायता देना पसन्द नहीं किया । लेकिन बाद में शासक वर्ग द्वारा ईसाई धर्म प्रचारकों को आर्थिक सहायता, राजकीय संरक्षण तथा प्रोत्साहन दिया जाने लगा इस कारण हिंदू और मुसलमान दोनों को ही अपने-अपने धर्म के लिए खतरा महसूस हुआ ।

 

(2) मिशनरियों की उद्दण्डता:- 

ईसाई धर्मोपदेशक बडे अहंकारी तथा उद्दण्ड होते थे । वे भारतीयों के सामने खुले रूप से इस्लाम तथा हिन्दू धमों की निन्दा किया करते थे और उनके महापुरूषों, अवतारों और पैगम्बरों को गालियां दिया करते थे। ऐसी स्थिति मे हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों को शंका होने लगी और वे अंग्रेजों से घृणा करने लगे ।

 

(3) शिक्षण संस्थाओं द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार:- 

धर्म के लिए सबसे बड़ा खतरा ईसाई पादरियों द्वारा संचालित स्कूलों से हुआ। इन स्कूलों का उदेश्य भारतीयों को शिक्षा प्रदान करने के साथ-साथ, ईसाई धर्म का प्रचार करना भी था । इन स्कूलों में हिन्दू बच्चों से ईसाई धर्म के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे जाते थे । इससे उच्च वर्ग के भारतीयों की यह धारणा हो गई कि यदि उनके पुत्र नहीं तो उनके पौत्र तो निश्चय ही ईसाई बन जायेंगे। इसके विपरीत सरकारी स्कूलों में हिन्दू अपने धर्म की शिक्षा नहीं दे सकते थे क्योंकि राज्य अपने को धर्म-निरपेक्ष बतलाता था। राज्य की इस दोहरी नीति से भारतीयों में बड़ा असंतोष फैला ।

 

(4) ईसाई बनने वालों को सुविधाएं देना:- 

ईसाई धर्म की और आकर्षित करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रलोभन दिए जाते थे। जो हिन्दु अथवा मुसलमान ईसाई धर्म को स्वीकार कर लेते थे उन्हें सरकार अनेक प्रकार से सहायता देती थी और सरकारी नौकरियां देकर अन्य लोगों को भी ईसाई बनाने के लिए प्रोत्साहित करती थी। अपराधियों को अपराध से बरी कर दिया जाता था, यदि वे ईसाई धर्म को स्वीकार कर लेते थे । लार्ड कैनिंग ने तो ईसाई धर्म के प्रचार के लिए लाखों रूपये दिए। इससे लोग स्वेच्छा से ईसाई बनने लगे । फलतः लोगो में असंतोष बढ़ता गया ।

 

(5) सम्पत्ति सम्बन्धी उत्तराधिकार के नियम में परिवर्तन:- 

1856ई. में जो पैतृक सम्पत्ति सम्बन्धी कानून बनाया गया उसके अनुसार यह निश्चित किया गया कि धर्म परिवर्तन करने पर किसी व्यक्ति को उसकी पैतृक सम्पत्ति से वंचित नही किया जायेगा। उसे भी भारतीयों ने ईसाई धर्म को प्रोत्साहित करने का साधन समझा ।

 

(6) गोद-प्रथा का निषेध:- 

डलहौजी ने हिन्दुओं को पुत्र गोद लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था लेकिन हिंदू धर्म शासन के अनुरमार परलोक में शांति प्राप्त करने के लिए निःसन्तान व्यक्ति के लिए पुत्र को गोद लेना बहुत जरूरी समझा जाता था। अतएवं डलहौजी की इस नीति से भारतीयों में बड़ा असन्तोष फैला ।

 

(7) जेलों में ईसाई धर्म का प्रसार:- 

अंग्रेजों ने स्कूलों के साथ-साथ जेलों को भी ईसाई धर्म प्रसार का साधन बनाया था। जेल में प्रतिदिन सुबह एक ईसाई अध्यापक ईसाई धर्म की शिक्षा देता था । 1845 ई. मे एक नये नियम के अन्तर्गत जेल में सभी कैदियों का भोजन एक ब्राह्मण अक्ति के द्वारा समूहिक रूप से बनाया जाना शुरू किया गया । उस समय एक प्रत्येक कैदी अपना भोजन स्वयं बनाता था। इस नये नियम से प्रत्येक कैदी को अपनी जाति खो देने का डर लगा क्योंकि अन्तर्जातीय खान-पान को हिन्दू स्वीकार नहीं करते थे। जेल से छूटे हुए व्यक्ति को हिन्दू परिवार में शामिल नहीं करते थे।

 

राजस्थान में 1857 ई. का विप्लव सैनिक कारण

 

भारतीय सैनिकों में भी बड़ा असंतोष फैला हुआ था। 1857 ई के विप्लव निम्नलखित सैनिक कारण थे.

 

(1) भारतीय सैनिको की विशाल संख्या:- 

ब्रिटिश सेना में अंग्रेजों की तुलना में भारतीयों की संख्या ज्यादा थी 1856ई में भारतीय सेना में 2,33,000 भारतीय और 45,322 अंग्रेज सैनिक थे । भारतीय सैनिकों में यह भावना आने लगी थी कि यदि वे ठीक समय से आक्रमण करें तो वे अंग्रेजों को पराजित करके देश से बाहर निकाल सकते हैं। यह विश्वास सैनिकों में विद्रोह को प्रोत्साहन देने वाला था

 

(2) सेना का असमान वितरण:- 

भारत के विभिन्न भागों में सेना का वितरण असमान था। बंगाल की सेना में 1,51, 361 सैनिक थे। लगभग 40000 सैनिक पंजाब में थे। कलकत्ता तथा पटना के निकट स्थित दीनापुर के अलावा बंगाल तथा बिहार में कोई यूरोपीय सेना नहीं थी। भारतीय सैनिक अनेक स्थानों पर कम्पनी की कमजोरियों से परिचित थे ओर उससे लाभ उठाने के लिए उत्सुक थे 

(3) वेतन, भत्तों, तरक्की आदि में भेद नीति: 

अंग्रेज सैनिकों को वेतन, भत्ता, तरक्की आदि के सम्बन्ध में भारतीय सैनिकों की अपेक्षा बहुत अधिक सुविधायें प्राप्त थी । भारतीय सैनिकों को बहुत कम वेतन मिलता था। एक सैनिक को 78 रूपये मासिक वेतन मिलता था और घुड़सवार को 27 रूपये तक मिलते थे जिसमें से उन्हें अपने भोजन, वर्दी, घोडे का चारा तथा व्यक्तिगत सामानों के लिए भी खर्च करना पड़ता था। पैदल सेना में भारतीय सूबेदार का उच्चमत वेतन नये यूरोपीय सैनिक के निम्नतम वेतन से भी कम होता था। भारतीय सैनिकों को प्रायः तरक्की नहीं मिलती थी। वे एक रिसालदार के रूप में सेना में प्रवेश करते थे और रिसालदार के रूप में ही सैनिक सेवा से अलग होते थे। जब भारतीय सैनिक अपनी योग्यता तथा प्रतिमा के कारण उच्च पदों के अधिकारी हो जाते थे तब उन्हें इनाम देकर सेना से अलग कर दिया जाता था। क्योंकि उच्च पद यूरोपीय सैनिकों के लिए सुरक्षित रहते थे। पदोन्नति और अधिकार दोनों मामलों में उनके साथ भेदभाव बरता जाता था । 

(4) विशेष मलों पर प्रतिबन्धः-

भारतीय सैनिकों को बिना किसी भत्ते के दूर-दूर स्थानों पर युद्ध करने के लिए जाना पडता था। अब उन्हें अपने पहले के शासकों की तरह विजय के बाद भूमि सम्मान और पद मिलने बन्द हो गये थे। 1824 ई. में बैरकपुर के सैनिकों ने बर्मा जाने से इंकार कर दिया था। 1844 ई. में बंगाल की सेना ने सिन्ध जाने से उस समय तक इंकार कर दिया था जब तक कि उनकी विशेष भतता देने की माँग स्वीकार न कर ली गयी

 

(5) असंतोषजनक नियमों का निर्माण:- 

1854 ई. में एक कानून बनाकर सैनिकों को प्राप्त मुक्त पत्र-व्यवहार की सुविधा भी समाप्त कर दी गयी। 1856 ई. में कैनिंग ने सामान्य सेना भर्ती अधिनियम बनाया जिसके अन्तर्गत यह निश्चित किया गया कि बंगाल की सेना में जितने नये सैनिक भर्ती किये जायेंगे उन्हें सैनिक सेवा के लिए कहीं भी भेजा जा सकता था। इस नियम के अनुसार भारतीय सैनिक को समुद्र पार भी जाना पड़ सकता था जबकि भारतीय सैनिक समुद्र पार जाने के लिए तैयार नहीं थे, क्योंकि इसे वे धर्म विरुद्ध समझते थे । भारतीय समाज में उस समय तक विदेश जाने वालों को जाति से बाहर कर दिया जाता था । यद्यपि इस नियम का प्रभाव पुराने सैनिकों पर नहीं पड़ता था। लेकिन क्योंकि बंगाल की सेना में अधिकांश सैनिकों की भर्ती पैतृक आधार पर होती थी, अतएव अपने बच्चों की चिन्ता में सभी सैनिकों में असंतोष बढ़ा ।

 

(6) अवध का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय 

अवध को अंग्रेजी राज्य में मिलाये जाने के कारण सैनिक असंतुष्ट थे क्योंकि उनमें से ज्यादातर मुख्यतः बंगाल सेना के सैनिक उसी राज्य के निवासी थे । उन्होंने यह अनुभव किया कि कम्पनी ने जो शक्ति उनकी सेबाओं और त्याग से प्राप्त की थी उसका उपयोग उनके राजा को समाप्त करने के लिये किया गया था

 

(7) सेना में पारस्परिक सदभावना का अभाव :- 

ब्रिटिश सेना में अंग्रेजों और हिन्दुस्तानियों के बीच भाईचारे की नादना की कमी थी। कम्पनी के शुरुआती दिनों में एक-दूसरे पर जैसा भरोसा था, वह अब समाप्त हो चुका था। 

 

(8) बंगाल के उच्च वर्गीय सैनिकों में असंतोष:- 

बंगाल की सेना अंग्रेजों की मुख्य सेना समझी जाती थी । इसमें अवध तथा उत्तर पश्चिम प्रान्तों के उच्च वर्ग के लोगों का बाहुल्य था जो अपनी जाति-भावना तथा प्रथाओं के सम्बन्ध में बहुत अधिक ध्यान देते थे। अब उसमें अंग्रेजों ने निम्न जातियों के व्यक्तियों की भी भर्ती करना शुरू कर दिया था। पहले उसमें केवल राजपूत और ब्राह्मण होते थे किन्तु बाद में जब निम्न जाति के व्यक्ति भी उसमें आये तो दे उसे पसन्द न कर सके। 

 

राजस्थान में 1857 ई. का विप्लव तात्कालिक कारण 

उपरोक्त विवरण से प्रकट होता है कि भारतीय सैनिक न केवल उन सभी बातों से असन्तुष्ट थे जिनसे भारतीय नागरिक असन्तुष्ट थे बल्कि उनके असन्तोष के कुछ अलग कारण भी थे। अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की भावना सैनिकों में आ चुकी थी उसे केवल एक चिंगारी कीजरूरत थी और वह चिंगारी चर्बी लगे हुए कारतूसों नेप्रदान कर दी ।

 

1856 ई में भारत सरकार ने पुरानी बन्दूकों को हटाकर नयी एनफील्ड राइफल को सेना में प्रयोग करना चाहा । उसके लिए जो कारतूस बनाये गये थे उन्हें बन्दूक में मरने से पहले मुंह से खोलना पड़ता था । इन राइफलों के कारतूसों को चिकना बनाने में गाय और सूअर की चर्बी का प्रयोग होता था । यद्यपि अंग्रेज अधिकारियों ने इस बात को नही माना लेकिन सैनिकों को उन पर विश्वास नहीं हुआ यह भारतीय सैनिकों की धार्मिक भावनाओं की सूर अवहेलना थी । उन्हें यह विश्वास हो गया कि अंग्रेज हिन्दू और मुसलमान दोनों का ही धर्म भ्रष्ट करना चाहते है । अतः उन्होंने धर्म भ्रष्ट होने के बजाय ऐसे दूषित शासन का अन्त कर देना ही उचित समझा। इस प्रकार, कारतूसों की घटना 1857 ई. के विप्लव का मुख्य कारण बनी। सैनिकों की सफलता ने भारतीय नागरिकों को भी विद्रोह करने के लिए तैयार कर दिया।