गांधीजी के नेतृत्व में भारत में किया गया यह पहला सत्याग्रह
गांधीजी के नेतृत्व में भारत में किया गया यह पहला सत्याग्रह
चंपारण सत्याग्रह (1917):
बिहार के चंपारण ज़िले में नील के बागानों में यूरोपीय बागान मालिकों द्वारा किसानों का अत्यधिक उत्पीड़न किया जाता था और उन्हें अपनी ज़मीन के कम-से-कम 3/20वें हिस्से पर नील उगाने तथा बागान मालिकों द्वारा निर्धारित कीमतों पर नील बेचने के लिये मज़बूर किया जाता था।
वर्ष 1917 में महात्मा गांधी ने चंपारण पहुँचकर किसानों की स्थिति की विस्तृत जाँच की।
उन्होंने चंपारण छोड़ने के ज़िला अधिकारी के आदेश की अवहेलना की।
सरकार ने जून 1917 में एक जाँच समिति (गांधीजी भी इसके सदस्य थे) नियुक्त की।
चंपारण कृषि अधिनियम (Champaran Agrarian Act), 1918 के अधिनियमन ने काश्तकारों को नील बागान मालिकों द्वारा लगाए गए विशेष नियमों से मुक्त कर दिया।
चम्पारण किसान विद्रोह :-
यह आंदोलन तिनकठिया प्रणाली के विरोध में बिहार के चम्पारण नामक स्थान पर शुरू हुआ था। इस पद्धति में चम्पारण के किसानों से अंग्रेज बागान मालिकों ने एक अनुबंध करा लिया था, जिसके अंतर्गत किसानों को जमीन के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था।
19वीं शताब्दी के अंत में रासायनिक रंगों की खोज और उनके प्रचलन से नील के बाजार समाप्त हो गए। परन्तु बागान मालिकों ने नील की खेती बंद कराने के लिए किसानो से अवैध वसूली की।
इस आंदोलन में स्थानीय नेताओ ने गाँधी जी को आमंत्रित किया। गाँधी जी के आने के बाद यह आंदोलन राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन गया।
सरकार तथा बागान मालिकों को किसानो का पक्ष सुनना पड़ा। सरकार ने इस आंदोलन को शांत करने के लिए एक आयोग का गठन किया जिसमे गाँधी जी को भी सदस्य बनाया और बागान मालिक अवैध वसूली का 25 % वापस करने पर विवस हो गए।
चम्पारण किसान अन्य बातें
नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर (Rabindranath Tagore) ने 1915 में मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा की उपाधि दी थी।
महात्मा गांधी दिसंबर 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में भाग लिया। इसी आयोजन में उनकी मुलाकात एक ऐसे शख्स से हुई जिसने उनकी राजनीति की दिशा बदलकर रख दी, इस शख्स का नाम था राजकुमार शुक्ल।
इस सीधे-सादे लेकिन जिद्दी शख्स ने उन्हें अपने इलाके के किसानों की पीड़ा और अंग्रेजों द्वारा उनके शोषण की दास्तान बताई और उनसे इसे दूर करने का आग्रह किया
गांधीजी पहली मुलाकात में राजकुमार शुक्ल से प्रभावित नहीं हुए थे और यही वजह थी कि उन्होंने उसे टाल दिया। लेकिन राजकुमार शुक्ल ने उनसे बार-बार मिलकर उन्हें अपना आग्रह मानने को बाध्य कर दिया।
चार महीने बाद ही चम्पारण के किसानों को जबरदस्ती नील की खेती करने किसानों को अपनी भूमि के 15% हिस्से पर नील की खेती करनी होती थी, इससे हमेशा के लिए मुक्ति मिल गई। गांधी को इतनी जल्दी सफलता का भरोसा न था।
चम्पारण का किसान आंदोलन अप्रैल 1917 में हुआ था। गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह और अहिंसा के अपने आजमाए हुए अश्त्र का भारत में पहला प्रयोग चंपारण की धरती पर ही किया।
इसी आंदोलन के बाद उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि से विभूषित किया गया। देश को राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी, मज़हरुल हक, बृजकिशोर प्रसाद जैसी महान विभूतियां भी इसी आंदोलन से मिलीं।
इसके बाद गांधी जी कानपुर चले गए, लेकिन शुक्ल जी ने वहां भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। वहां उन्होंने कहा, ‘यहां से चंपारण बहुत नजदीक है. एक दिन दे दीजिए.’ इस पर गांधी ने कहा, ‘अभी मुझे माफ कीजिए, लेकिन मैं वहां आने का वचन देता हूं।’ गांधी जी लिखते हैं कि ऐसा कहकर उन्होंने बंधा हुआ महसूस किया।
इसके बाद भी इस जिद्दी किसान ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। वे अहमदाबाद में उनके आश्रम तक पहुंच गए और जाने की तारीख तय करने की जिद्द की। ऐसे में गांधी से रहा न गया। उन्होंने कहा कि वे सात अप्रैल को कलकत्ता जा रहे हैं। उन्होंने राजकुमार शुक्ल से कहा कि वहां आकर उन्हें लिवा जाएं। राजकुमार शुक्ल ने सात अप्रैल, 1917 को गांधी जी के कलकत्ता पहुंचने से पहले ही वहां डेरा डाल दिया था। इस पर गांधी जी ने लिखा, ‘इस अपढ़, अनगढ़ लेकिन निश्चयी किसान ने मुझे जीत लिया।
गांधीजी माने और 10 अप्रैल को दोनों जन कलकत्ता से पटना पहुंचे। वे लिखते हैं, ‘रास्ते में ही मुझे समझ में आ गया था कि ये जनाब बड़े सरल इंसान हैं और आगे का रास्ता मुझे अपने तरीके से तय करना होगा।’ पटना के बाद अगले दिन वे दोनों मुजफ्फरपुर पहुंचे।
वहां पर अगले सुबह उनका स्वागत मुजफ्फरपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और बाद में कांग्रेस के अध्यक्ष बने जे॰ बी॰ कृपलानी और उनके छात्रों ने किया।
मुजफ्फरपुर में ही गांधी से राजेन्द्र प्रसाद की पहली मुलाकात हुई। यहीं पर उन्होंने राज्य के कई बड़े वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के सहयोग से आगे की रणनीति तय की
इसके बाद कमिश्नर की अनुमति न मिलने पर भी महात्मा गांधी ने 15 अप्रैल को चंपारण की धरती पर अपना पहला कदम रखा।
नील आंदोलन :-
इस आंदोलन का प्रारम्भ बंगाल के गोविंदपुर गांव में 1859 को आरम्भ हुआ था। बंगाल के किसान अपने खेतो में चावल की खेती करना चाहते थे परन्तु उन्हें यूरोपीय नील की खेती के लिए विवश कर रहे थे।
इस स्थिति में स्थानीय नेता दिगंबर विश्वास तथा विष्णु विश्वास के नेतृत्व में किसानो ने विद्रोह कर दिया। इस आंदोलन में हिन्दू तथा मुसलमान सभी किसान सम्मिलित थे। अन्ततः सरकार को नील के कारखाने बंद करने पड़े तथा सरकार ने 1860 में नील आयोग का गठन कर जाँच का आदेश दिया। आयोग का निर्णय किसानो के पक्ष में रहा।
इस आंदोलन का वर्णन दीनबंधु मित्र ने अपने नाटक नीलदर्पण में किया है।
तिनकाठिया पद्धति
चम्पारण में
19वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही ‘तिनकाठिया पद्धति’ चल रही थी, जिसके अन्तर्गत
अंग्रेज बागान मालिकों के लिये किसानों को अपनी भूमि के 3/20 वें हिस्से में नील
की खेती करना अनिवार्य था। 19वीं सदी के अन्त में जर्मनी में रासायनिक रंगों (डाई)
का विकास हो गया, जिसने नील को बाजार से बाहर खदेड़ दिया। इस कारण
चम्पारण के बागान मालिक नील की खेती बंद करने को विवश हो गये। परन्तु उन्होंने
किसानों से इस अनुबंध से मुक्त करने की एवज में लगान व अन्य करों की दरों में
अत्यधिक वृद्धि कर दी। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने द्वारा तय की गई दरों पर
किसानों को अपने उत्पाद बेचने पर बाध्य किया। इन परिस्थितियों में चम्पारण के एक
आंदोलनकारी राजकुमार शुक्ल ने गांधी जी को चंपारण बुलाने का फैसला किया।
गांधी जी 1915
में ही दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे। राजकुमार शुक्ल के बुलावे पर 1917 में
गांधी जी अपने सहयोगियों के साथ मामले की जाँच के लिये जब चंपारण पहुँचे तो सरकारी
अधिकारी ने उन्हें तुरंत वापिस जाने का आदेश दिया। परन्तु, गांधी जी ने इस
आदेश को मानने से साफ इंकार कर दिया तथा किसी भी प्रकार के दण्ड को भुगतने का
फैसला लिया। सरकार के इस अनुचित आदेश के विरूद्ध गांधीजी द्वारा अहिंसात्मक
प्रतिरोध या ‘सविनय अवज्ञा’ का मार्ग का
चुनना विरोध का सर्वोत्तम तरीका सिद्ध हुआ। गांधी जी की दृढ़ता के सम्मुख सरकार
विवश हो गई, अतः उसने स्थानीय प्रशासन को अपना वापिस लेने तथा गांधी जी
को चंपारण के गाँवों में जाने की छूट देने का निर्देश दिया।
गाँधी जी का सत्याग्रह रंग लाया तथा सरकार ने सारे मामले की जाँच के लिये एक आयोग का गठन किया तथा गांधीजी को भी इसका सदस्य बनाया गया। गाँधी जी आयोग को यह समझाने में सफल रहे कि तिनकठिया पद्धति समाप्त होनी चाहिये। उन्होंने आयोग को यह भी मनवाया कि किसानों से पैसा अवैध वसूला गया है, उसके लिये किसानों को हरजाना दिया जाये। किसानों को अवैध वसूली का 25 प्रतिशत हिस्सा वापिस मिला तथा एक दशक के भीतर ही बागान मालिकों ने चंपारण छोड़ दिया। और, इस प्रकार गांधीजी ने भारत में सविनय अवज्ञा का प्रथम सफल प्रयोग किया।