प्रागैतिहासिक राजस्थान |Pre-Historic Rajasthan Gk in Hindi
प्रागैतिहासिक राजस्थान सामान्य परिचय
- वर्तमान 21 वीं शताब्दी में हमे यह जानकर अत्यन्त आश्चर्य होता है कि मानव जाति ने इस धरती पर अपने अस्तित्व के प्रारंभिक चरण से लेकर मध्य पाषाणकाल तक के समय में जो सामान्यत: भारत में 6 लाख वर्ष पूर्व से 10 हजार वर्ष तक माना जाता है, शिकारी / संग्रहकर्ता के रूप में बिताया, कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य ने नव पाषाण काल में खेती करना व कृषि कार्य के माध्यम से उत्पादन करना सीखा।
- इससे पूर्व वह पूर्णतः प्रकृति पर निर्भर रहा । अपनी आजीविका के लिए प्रकृति से प्राप्त फल, कन्द मूल, पशु पक्षियों को मारकर अपना आहार जुटाता था इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रारंभिक मानव प्रकृति और पर्यावरण पर पूर्णतः आश्रित रहा था मनुष्य आज से पाँच लाख वर्ष पूर्व धरती पर अवतरित हो गया था और प्रागैतिहासिक काल में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में इसके निवास के प्रमाण मिले हैं, इसलिए यह जानना अत्यन्त आवश्यक है कि भारत में मानव इतिहास के निवास के बाद उसके औजार परम्परा में आये बदलाव के साथ-साथ राजस्थान में प्रागैतिहासिक संस्कृति के बारे में जानकारी प्राप्त की जावे।
- प्रागैतिहासिक पुरातत्व बहुधा नदियों के किनारे पहाड़ियों, गुफाओं, शैलाश्रयों आदि में प्राप्त होते हैं क्योंकि ऐसे क्षेत्रों में मनुष्य के निवास के लिए प्राकृतिक रूप से निर्मित निवास स्थल गुफाएँ एवं शैलाश्रय के रूप में थे एवं खाद्य सामग्री के रूप में कन्द-मूल आदि बहुतायत में उपलब्ध थे।
- भारतीय प्राक् इतिहास में यूरोप एवं अफ्रीका की प्रागैतिहासिक संस्तुतियों से अनेक समानताएं पाई जाती है इससे यह भी आभास होता है कि मानवों का पलायन संस्कृति के आदिकाल से ही होता है। 1816 ई मे आर. बी फ्रूट ने प्रथमतः भारतीय पुरातात्विक संस्कृतियों का विभाजन पुरापाषाणकाल नवपाषाणकाल प्रारंभिक लौहकाल एवं उदर लौहकाल किया।
- 1962 ई. में प्रथम एशियाई संगोष्ठी नई दिल्ली में हुई जिसमें पूर्व नवपाषाण युगीन संस्कृति के लिए अफ्रीका संस्कृति के नियतीकरण का प्रयोग स्वीकार किया गया, इस विभाग में निम्न पुरापाषाणकाल, मध्य पुरापाषाणकाल का स्थान तो था, परन्तु विभिन्न क्षेत्रों में सर्वेक्षण एवं उत्खननों के परिणामस्वरूप प्रकाश में आने वाले उपकरण ब्लेड और ब्यूरीन का कोई स्थान नही था, ये उपकरण यूरोपीय उच्च पुरा पाषाणकाल के समकक्ष थे, प्रो. एचडी. सांकलिया ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक प्री हिस्ट्री ऑफ इण्डिया एण्ड पाकिस्तान में यूरोपीय सांस्कृतिक विभाग का प्रयोग प्रथम बार किया, भारत के अधिकांश भागों में इस संस्कृति के उपकरण (ब्लेड एवं ब्यूरीन) बहुतायत से उपलब्ध होते हैं एवं यह विभाजन सर्वसम्मति से स्वीकार किया जाने लगा ।
- राजस्थान का रेगिस्तान सिंध, पंजाब व गुजरात के क्षेत्रों में 4-5 लाख वर्ग मील के विस्तृत भू-भाग में फैला हुआ है। यह एक पर्वतीय प्रदेश है। अरावली पर्वत शृंखला मरुप्रदेश को दो भागो में विभाजित करती हैं। इसके उत्तर-पश्चिम में थार का रेगिस्तान है और दक्षिण पूर्व भाग में मेवाड़ की पहाड़ियाँ और पठार है। उत्तर में घग्घर और सरस्वती नदियाँ है, अमलानंद घोष ने प्राचीन सरस्वती और दृषदावती नदियों के किनारे प्राचीन पुरास्थलों को खोजा था वर्तमान में ये नदियां विलुप्त हो चुकी है। दक्षिण पूर्व में माही व बनास नदियों के क्षेत्र में बनास संस्कृति के अवशेष मिलते हैं।
- राजस्थान के इस भू-भाग में परागकणों का कई वैज्ञानिकों एवं पुरावनस्पीतशास्त्रियों ने अध्ययन करके यह पता लगाया कि प्रागैतिहासिक काल में राजस्थान का भू-भाग अधिक आर्द्र और हरा-भरा था । मानव जीवन के लिए पानी की आपूर्ति अनिवार्य है। यहां की झीलें डीडवाना सांभर, लूणकरणसर, बप्प, मलहार और पंचपदा आदि तत्कालीन समय मीठे पानी की झीलें रही थी । यह क्षेत्र मनुष्य के रहने के अनुकुल था, इसलिए प्रागैतिहासिक काल में मनुष्यों ने राजस्थान को अपना निवास स्थान बनाया।
भारत में प्रागैतिहासिक काल
भारत में पुरापाषाण युगीन सभ्यता का विकास प्लाइस्टोसीन (अतिनूतन) काल या हिमयुग मे हुआ आद्य इतिहास (होलीसीन) काल के प्रथम अवशेष महाराष्ट्र के बोरी नामक स्थान से मिले हैं। धरती पर मानव की प्रथम उपस्थिति मध्य प्लाइस्टोसीन अर्थात पाँच लाख वर्ष पूर्व की नही ठहरती हैं, इस काल में पृथ्वी की सतह का बहुत अधिक भाग खासकर अधिक ऊँचाई पर और उसके आस-पास के स्थान बर्फ की चादरों से ढका रहता था, किन्तु पर्वतों को छोड़ उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र बर्फ से मुक्त रहता था ।
पुरापाषाणयुग की अवस्थाएँ
(1) निम्न पुरापाषाण काल 5 लाख से 50 हजार ई. पू. के बीच
(2) मध्य पुरापाषाण काल 50 हजार से 40 हजार ई. पू. के बीच
(3) उच्च पुरापाषाण काल 40 हजार से 10 हजार ई.
पू के बीच
- भारतीय निम्न पुरापाषाण कालीन अध्ययन की दृष्टि से विन्ध्य का पठार सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, इस क्षेत्र के अन्तर्गत अहमदाबाद और मिर्जापुर जिले आते हैं, इसके उत्तर में गंगाघाटी है और दक्षिण में सोहन नदी है, विन्ध्य के पठार की प्रमुख नदी बेलन है इस क्षेत्र की पुरा पाषाणकालीन संस्कृतियों का क्रमबद्ध रूप नदी के सेक्सन मे मिलता है।
- पश्चिमी भारत में पुरापाषाण कालीन संस्कृतियों की खोज का श्रेय डॉ. एच. डी. सांकलिया और वी. एन. मिश्रा को जाता है, पश्चिमी भारत मे माही, साबरमती, बेडच, वागन, गंभीरी, कदमाली, लूनी आदि नदियों के किनारे से ऍश्युलियन परम्परा के उपकरण खोजे गए, राजस्थान के डीडवाना क्षेत्र में डेकन कॉलेज पूना द्वारा किये गये।
- शोधकार्य से यह ज्ञात होता है कि निम्न पुरापाषाण कालीन मानव राजस्थान में 3 लाख 90 हजार वर्ष आ गया था । यहाँ से प्राप्त कार्बन 14 तिथि से साबित होता है कि राजस्थान सम्पूर्ण भारत में निम्न पुरापाषाण कालीन मानव का सर्वाधिक प्राचीन केन्द्र था ।
- भारत में निम्न पुरापाषाण कालीन संस्कृति की खोज का श्रेय सर्वप्रथम आर ब्रुस फूट को जाता है उन्होंने 1863ई. में मद्रास के पास पल्लवरम नामक स्थान से अवशेष खोजे परन्तु निम्न पुरापाषाणकाल की वैज्ञानिक एवं विधिवत तरीके से खोज का श्रेय येल एवं केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एच. डी.ई. टेरा और टी. टी. पेटरसन को जाता है जिन्होनें कश्मीरघाटी, पोतवार के पठार, मद्रास की कार्ट लॉयर नदी तथा होशंगाबाद घाटी में विधिवत सर्वेक्षण का कार्य प्रारंभ करके निम्न पुरापाषाणकाल की खोज की, इसके पश्चात एम. सी. बीर्कट ने आन्धप्रदेश में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने मयूरभंज में कार्य किया, इस प्रकार यह प्रमाणित हो गया कि भारत में निम्न पुरापाषाणकाल मे मानव कांगड़ा और कश्मीर के हिम क्षेत्र से प्रारम्भ होकर, राजस्थान व कच्छ के रण क्षेत्र, आसाम के अतिवृष्टि वाले क्षेत्र, बिहार के बीहड जंगलों तथा कोंकण, सौराष्ट्र आदि क्षेत्र में फैला हुआ था, निम्न पुरापाषाणकाल को पुरातत्ववेत्ता 5 लाख से 50 हजार वर्ष ई. पू. के मध्य भारत में विकसित हुआ मानते है ।