आहड संस्कृति और ताम्रपाषाण युग
आहड संस्कृति का उदय
- जिस समय हरियाणा, पंजाब, सिंध, गुजरात, उत्तरी राजस्थान तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हड़प्पा संस्कृति पूर्ण रूप से व्याप्त थी लगभग उसी समय या उसके कुछ परवर्ती काल में दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में जिस संस्कृति का उदय हुआ वह 'आहड संस्कृति या बनास-संस्कृति के नाम से जानी जाती है।
- इस संस्कृति का सर्वप्रथम ज्ञान उदयपुर नगर के पूर्व में स्थित आहड नामक ग्राम से हुआ इसीलिए इसे 'आहड संस्कृति कहा गया है।
- इसी प्रकार इस संस्कृति से सम्बन्धित सर्वाधिक पुरास्थल बनास नदी एवं उसकी सहायक नदियों के आस-पास के क्षेत्र में ज्ञात हुए हैं इसलिए इस संस्कृति से समद्ध लगभग 50 पुरास्थल प्रकाश में लाये जा चुके हैं।
राजस्थान में आहड संस्कृति के प्रमुख पुरास्थल
राजस्थान में आहड संस्कृति के चार प्रमुख पुरास्थलों का उत्खनन किया जा चुका है
(1) आहड (उदयपुर)
(2) गिलुण्ड (उदयपुर)
(3) बालाथल (उदयपुर)
(4) ओजीयाना (भीलवाड़ा)
आहड के बारे में जानकारी
- आहड, उदयपुर नगर के पूर्व में रहने बाली नदी के बांये तट पर स्थित है। प्राचीन काल में इसे 'तांम्बवटी' या 'ताम्रवती' के नाम से जाना जाता था।
- 10वी 11वीं सदी में अघाटपुर या 'अघाट दुर्ग' भी इसे ही कहा जाता था। वर्तमान में स्थानीय लोग इसे 'धूलकोट के नाम से जानते हैं ।
- यह धूलकोट (मिट्टी का दुर्ग) 500 मी0 लम्बा तथा 250 मी० चौडा तथा 15 मी० ऊँचा एक मिट्टी का टीला है जो अपने में प्राचीन अवशेषों को दबाये हुए है ।
- 'आहड़ की खोज 1954-55 ई0 में रत्न चन्द्र अग्रवाल ने की तथा उन्होंने यहीं लघुस्तर पर उत्खनन करके इसके महत्व की स्थापना की। तत्पश्चात 1961-62 ई० में प्रो० एच० डी० सांकलिया, रत्नचन्द्र अग्रवाल तथा विजय कुमार एवं कुछ विदेशी विद्वानों ने मिलकर यहाँ विशाल पैमाने पर उत्खनन कार्य किया। इस उत्खनन से यह ज्ञात हुआ कि इस स्थल पर यह बस्ती अनेक बार बसी है तथा उजड़ी है जिसे मोटे तौर पर दो महत्वपूर्ण कालखण्डों में विभक्त किया जा सकता है:
(1) निम्न स्तरों से सम्बन्धित संस्कृति 'आहड संस्कृति है ।
(2) ऊपरी स्तरों की बस्ती परवर्ती कालीन बस्ती थी। यह लौह युगीन सभ्यता की परिचायक है।
- आहड संस्कृति से सम्बद्ध स्थलों पर हमें उत्खननों में कहीं कहीं पर पाषाण उपकरण उपलब्ध हुए हैं और कहीं पर केबल ताम्र उपकरण ही उपलब्ध हुए हैं। ताम्र उपकरणों के साथ विशिष्ट प्रकार के काले और लाल मृद्राण्ड मिलना इस संस्कृति की विशेषता रही है।
- यह संस्कृति पर्याप्त क्षेत्र में प्रचारित प्रसारित थी। उदयपुर जिले में आहड, गिलुण्ड, बालाथल, रौली एवं चित्तौडगढ़ जिले में हिंगवानियो, भगवानपुरा, उमान्द, नागौली भीलवाड़ा जिले में ओजियाना, डूरिया, गीगाखेड़ा, उन्चा काटूकोटा अमली, बिहार तथा डूंगरपुर जिले में झाडोल, बेसपुरा, देपुरा कारेलिया आदि इस संस्कृति के प्रमुख पुरास्थल हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह संस्कृति उदयपुर, चित्तौडगढ, भीलवाड़ा एवं ड्रॅगरपुर जिलों तक विस्तृत थी।
आहड़ संस्कृति सामाजिक जीवन
- आहड संस्कृति के निवासियों का रहन-सहन, खान-पान, वस्त्राभूषण, व्यवसाय, आमोद-प्रमोद के साधन आदि की जानकारी उत्खनन में प्राप्त आवास, उपकरण, मृणमूर्ति, मृदुपात्र आदि से भली भांति होती है आवास आहड संस्कृति पूर्णतः ग्रामीण संस्कृति थी।
- यहाँ के निवासी अपनी आवश्यकता की वस्तुओं का निर्माण यही कर लेते थे और इन वस्तुओं के निर्माण के लिए कच्चा माल आस-पास के क्षेत्रों से प्राप्त करते थे । उत्खनन से यह स्पष्ट हुआ है कि लगभग 2000 ई० पु० में ये लोग इस स्थान पर आये और स्थानीय तौर पर उपलब्ध पत्थरों से नींव डाल कर अपने निवास हेतु भवनों का निर्माण किया इन्होंने मदनों की दीवारें ईटों से बनायी थी, कुछ दीवारें बांस की चटाइयों के दोनों ओर मिट्टी का पलस्तर करके भी बनायी गयी थी। भवनों की फर्श काली चिकनी मिट्टी को कूट-कूट कर बनायी तथा छत घास-फूस, बांस-बल्लियों की सहायता से हल्के वजन की बनायी ।
- आवासों की छत वर्तमान की तरह दोनों ओर से ढलवां बनायी जाती थी। छत को बीच में से ऊँचा रखने के लिए मकानों के मध्य में लकड़ी के आधार स्तंभों का प्रयोग किया जाता था। फर्श में इन स्तंभों के गाईने के अवशेष उपलब्ध हुए हैं। आवास पर्याप्त लम्बे चौड़े होते थे ।
- उत्खनन में एक 30 x 15 फुट तथा एक 45 फुट लम्बे आवास के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं। इनको बीच में बाँस की चटाइयों से निर्मित दीवारें खड़ी करके अनेक खण्डों में बांट दिया जाता था। एक तरफ के खण्ड का रसोई के रूप में प्रयोग किया जाता था। रसोई में एक से अधिक चूल्हे एक साथ प्राप्त हुए हैं जिन पर गारे का लेप भी किया जाता था। स्पष्ट है सभी लोग मिलजुल कर रहते थे ।
- खानपान रसोई घर के आस पास सिलबट्टे प्राप्त हुए हैं जिनमें एक सिल का माप 4 x 3 फुट है। अनेक पशुओं की अस्थियों के अवशेष उपलब्ध हुए हैं ये लोग गेहूँ जार एवं चावल का खाद्यान्नों के रूप में उपयोग करते थे तथा मछली, कछुआ, भेड़-बकरी, भैंसा, मुर्गी, हिरण, सुअर आदि जानवरों का मांस भी खाते थे । इन्हें शाकाहार के साथ साथ मांसाहार भी प्रिय था ।
- वस्त्राभूषण आहड के उत्खनन में चार मानव मृणमूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं तथा कुछ मृदभाण्डों पर विशिष्ट प्रकार का चित्रण है जिससे हम इस संगति के निवासियों के वस्त्राभूषणों की जानकारी प्राप्त करते हैं ।
- एक खण्डित नारी मृणमूर्ति कमर के नीचे लहँगा धारण किये हुए है तथा मृदुपात्रों की काली सतह पर सफेद बिन्दुओं से ऐसा चित्रण किया गया है जो छींट जैसा अलंकरण दिखाई देता है। इस प्रकार परोक्षतः अनुमान किया जा सकता है कि आभूषणों में गणकों का सर्वाधिक उपयोग होता था । ये कार्नेलियन क्रिस्टल फेयान्स जैस्पर सेलखड़ी तथा लेपिस लाजुली से बने है कुछ अस्थियों से बने मणके भी प्राप्त हुए है।
- मिट्टी से बने लम्बे एवं गोल कर्णभूषण तथा चूड़ियाँ भी प्राप्त हुई हैं। मणकों से माला हार, करधनी का निर्माण किया जाता था। हाथ पैरों में कड़े चूड़ियां, छल्ले धारण करते थे।
- बालों में पिने तथा कानों में कर्णभूषण । मनोरंजन आमोद-प्रमोद के लिए इस संस्कृति के लोगों के जीवन में आखेट का महत्व था । वन्य क्षेत्रों से बन्द जीवों का आखेट एक ओर जहाँ प्रिय मनोरंजन कर्म था तो दूसरी ओर खाद्य सामग्री की उपलब्धता भी इसी तरह मछली पकड़ना भी दोनों उद्देश्यों की पूर्ति का साधन था।
- बच्चों के लिए खिलौनों का महत्व था उत्खनन में हाथीघोड़े, बैल तथा गाड़ी के पहियों की मृणमूर्तियाँ प्राप्त हुई हँ । (कोई भी कलाकृति जो मिट्टी से निर्मित हो तथा फिर अग्नि में पका ली गयी हो उसे मृणमूर्ति (Terracotta) कहा जाता है।
- आहड़ आर्थिक जीवन
- आहड़ आर्थिक जीवन आहड निवासियों के आर्थिक जीवन में कृषि पशुपालन, ताम्र उद्योग, मृद्राण्ड उद्योग, व्यापार एवं वाणिज्य आदि सभी साधनों का महत्व था। ये लोग कृषि में गेहूँ ज्वार एवं चावल की खेती करते थे ।
- कृषि उपकरणों में ताम्बें की कुलहाडियाँ उपलब्ध हुई हैं ।
- पशुओं में गाय, भैंस, बैल, भेड़, बकरी पाली जाती थी। ये लोग हाथी एवं घोडे से भी परिचित थे। इनके आर्थिक जीवन में ताम्र उद्योग एवं मृद्राण्ड उद्योग का विशेष महल रहा होगा लेकिन ये उद्योग-धंधे इनके समुदाय के लिए ही थे ।
आहड़ मृदभाण्ड
- मृदभाण्ड उद्योग प्राचीनकाल में धातुओं की अनुपस्थिति में दैनिक जीवन में उपयोग हेतु मिट्टी के बर्तनों : का बहुतायत से उपयोग होता था। मृद्भाण्ड तत्कालीन कलाकार की कला प्रवृत्तियों के आधार स्वरूप भी थे ।
- आहड संस्कृति के प्रमुख पात्र काले और लाल रंग के होते थे। इनका निचला भाग तो लाल होता था, किन्तु कंधे से ऊपर का एवं भीतर का सम्पूर्ण भाग काला होता था।
- ये उल्टी तपाई विधि से पकाये जाने के परिणामस्वरूप इस प्रकार के विशिष्ट रंग के बन जाते थे। इस विधि को विज्ञान की भाषा में क्रमश: 'अपचयन की स्थिति में जलन' और 'ऑक्सीकरण की स्थिति में जलन कहा जाता है।
- इन मृदपात्रों पर सफेद वर्णक से छोटी-छोटी बिन्दुओं द्वारा त्रिभुज, चतुष्कोण वृत्त, रेखाएँ, जालक तथा घासनुमा आकृतियों का अंकन किया जाता था। इन मृदुपात्रों के साथ गहरे लाल रंग के मृद्राण्ड भी प्राप्त हुए हैं। इन पर उकेरण विधि, ऊपर चिपकाई गई विधि तथा तराश कर अलंकरण किया जाता था। ये पात्र आकार में बड़े हैं संभवतः इनमें अन्नादि संग्रह किया जाता रहा होगा।
आहड संस्कृति और ताम्र उद्योग
- ताम्र उद्योग आहड संस्कृति के निवासी ताम्र उपकरणों का निर्माण करना भलीभांति जानते थे। हड़प्पा संस्कृति और गंगाघाटी की ताम्र निधि संस्कृति के अतिरिक्त आहड संस्कृति के पुरास्थलों से ही सर्वाधिक ताम्र उपकरण प्राप्त हुए हैं।
- आहड क्षेत्र में लगभग 40 खदानें हैं जहाँ वर्तमान में भी खुदाई करके ताम्र खनिज निकाला जाता था। आर० सी० अग्रवाल ने आहड से 12 कि० मी० दूर मतून एवं उमरा नामक स्थलों पर ताम्र निष्कर्षण के साक्ष्य प्राप्त किये हैं।
- स्पष्ट है आहड निवासियों को तांबा धातु सहज उपलब्ध थी इसी कारण से उन्हें लघुपाषाण उपकरणों की आवश्यकता नहीं हुई जबकि इसी संस्कृति के पुरास्थल गिलूण्ड से कुछ लघुपाषाण उपकरण भी उपलब्ध हुए हैं।
- उत्खनन में ताम्बे की कुल्हाडियाँ छल्ले चूड़ियाँ तथा सलाइयाँ प्राप्त हुई है कुल्हाडियाँ आयताकार, सपाट और जिनका धारयुक्त भा अर्द्ध चन्द्राकार है प्राण हुई हैं। एक गड्डे में ताम्र खनिज तथा एक तामे का पत्तर भी प्राप्त हुआ है । ये लोग ताम्र धातु का निष्कर्षण यहीं पर करते थे । विद्वानों का अनुमान है कि ये लोग इस क्षेत्र में ताम्र खनिज की उपलब्धता के कारण ही आकर बसे थे ।
आहड संस्कृति का व्यापार वाणिज्य :
- इस संस्कृति के लोग एक ऐसे सामाजिक ढांचे में अवस्थित थे जिससे यह आशा नहीं की जा सकती कि इनका व्यापार वाणिज्य अन्य स्थलों से भी होता था। यदि कुछ होता भी था तो उसे हम इनकी अर्थव्यवस्था का मुख्य भाग नहीं कह सकते। मालवा, नवदाटोली, अवरा, नागदा, एरसा तथा कायथा से इनका सम्बन्ध था। इन सभी स्थानों पर काले और लाल मृदभाण्डों की बहुतायत है और इन पर किया गया अलंकरण भी समानता प्रदर्शित करता है यह भी संभव है कि ताम्बें के उपयोग की विधि इन्हीं से सीखी गई हो। स्पष्ट है कि अन्य स्थलों से इन लोगों का कोई सम्बन्ध या सम्पर्क था तो उसका एक मात्र कारण 'ताम्र ही रहा होगा ।
- अतः स्पष्ट है कि ये लोग अन्यत्र से आये थे। प्राकृतिक आकर्षणों ने लोगों को यहाँ खींचा और उनसे संस्कृति के नये चरणों का प्रारंभ दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में कराया। उदयपुर का यह भाग तीन ओर से पर्वतों से घिरा है जिसमें आवागमन के लिए कुछ घाट बने हैं। उत्तर-पूर्व की ओर खुला भाग चम्बल और यमुना घाटी की ओर है। इसलिए अतीत में लगभग 2000 ई०पू० में इसी भाग से लोग यहाँ आये । इन लोगों ने बनास नदी घाटी क्षेत्र में बस कर परिवेश का पूरा लाभ उठाया और लगभग 700-800 वर्षों तक रहते रहे ।
Q आहड संस्कृति की व्याख्या कीजिये
- दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में चम्बल एवं उसकी सहायक नदी बनास के किनारे लगभग 2000 ई०पू० में जिस संस्कृति का विकास हुआ उसे बनास संस्कृति या 'ताम्र पाषाण युगीन संस्कृत कहा जाता है। इस संस्कृति का सर्वप्रथम ज्ञान उदयपुर के निकट आहड नामक पुरास्थल से हुआ इसलिए इसे "आहड संस्कृति भी कहा जाता है। यह ग्रामीण संस्कृति थी। ये लोग काले एवं लाल रंग के मृगाण्ड बनाते थे तथा ताम्र उपकरणों का उपयोग करते थे। इस संस्कृति का कालमान 2000 ई० पू० से 1200 ई०पू० के मध्य माना जाता है ।