बुद्धकालीन महाजनपद , जनपदयुगीन राजनीति की विशेषताएँ
बुद्धकालीन महाजनपद - प्रस्तावना
- भारत में छठी शताब्दी ई.पू. से ही राजनीतिक घटनाओं का प्रामाणिक विवरण लगता है । इस शताब्दी में महात्मा बुद्ध और महावीर जैसे महापुरुषों का अवतरण हुआ था। इस समय तक वैदिक जन किसी क्षेत्र विशेष में स्थायीरूप से बस चुके थे। जनों को भौगोलिक अभिज्ञता ठोस रूप से मिल जाने पर वह क्षेत्र विशेष सम्बन्धित जनपद के नाम से पुकारा जाने लगा ।
- हमें बुद्धकालीन भारत में राजतन्त्रीय एवं प्रजातन्त्रीय राज्यों के बारे में जानकारी मिलती है । कुछ प्रजातन्त्रीय जनों ने तो मिलकर संघों का निर्माण कर लिया था। इसके अलावा इस काल में एक राज्य द्वारा दूसरे राज्य पर अधिकार करने की होड़ भी दृष्टिगोचर होती है, जिसमें मगध राज्य को सर्वाधिक सफलता प्राप्त हुई थी। इस काल में जनपदों का महाजनपदों में परिवर्तन हो रहा था । अतः बुद्धकालीन भारत (छठी शताब्दी ई.पू.) को विद्वान महाजनपदों का युग कहकर पुकारते हैं ।
- मगध के शासकों ने तो अपनी साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का परिचय देते हुए मौर्यकाल तक लगभग सम्पूर्ण भारत पर ही अपना अधिकार करके साम्राज्य की कल्पना को साकार स्वरूप प्रदान कर दिया था । मौर्य काल में राजस्थान निश्चित रूप से उनके साम्राज्य का अंग बन चुका था ।
- अतः मगध राज्य जिसका विस्तार महात्मा बुद्ध के समय हर्यक वंश की स्थापना के साथ प्रारम्भ हुआ था, वह परवर्ती राजवंशों के समय पल्लवित होकर चन्द्रगुप्त मौर्य के समय विशाल साम्राज्य में परिवर्तित हो गया । इस प्रकार वैदिक काल से भारत में साम्राज्य की जो कल्पना की गई और जिसका उल्लेख शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है उसे व्यवहार में परिवर्तित करके मौर्य शासकों ने राजनीतिक क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित किया ।
बुद्धकालीन महाजनपद
- ऐतिहासिक युग के प्रारम्भ में भारत छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था । वैदिक युग में आर्य सभ्यता के प्रतिनिधि नौ राज्यों का वर्णन ब्राह्मण ग्रन्थों और उपनिषदों में मिलता है। जिनके नाम हैं- गन्धार, कैकय, मद्र, वश उशीनर मत्स्य, कुरु, पंचाल, काशी और कोसल । इससे परे अंग और मगध जनपद थे जिनमें वैदिक धर्म का पूर्णतया प्रचार नहीं हो पाया था।
- दक्षिणापथ में अभी तक आर्येतर जनों का प्राधान्य था। उनमें शबर, आन्ध्र, पुलिन्द, मुतिब और नैषध प्रमुख थे। पांचवी शताब्दी ई.पू. अर्थात् पाणिनि के काल में भारतदेश जनपदों में विभाजित था। 600 ई. पू. से 100 ई.पू. में रचित बौधायन धर्मसूत्र में सौबीर आरह सुराष्ट्र, अवन्ति, मगध, अंग, पुण्ड्र और वंग का उल्लेख मिलता है।
- महाभारत के भीष्मपर्व में लगभग 250 जनपदों और कर्णपर्व में मुख्य जनपदों की सूचियाँ में मिलती हैं। पुराणों के भुवनकोश में भी जनपदों की सूचियाँ मिलती हैं। जिनमें कोसल, वत्स और मगध का जनपद के रूप में उल्लेख उपलब्ध होता है यह विवरण परीक्षित के अभिषेक से लेकर महापद्मनन्द के काल तक का है ।
- छठी शताब्दी ई.पू. में भारत की राजनीतिक स्थिति का विवरण बौद्धग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय और जैन ग्रन्थ भगवतीसूत्र में मिलता है । अंगुत्तरनिकाय की सूची में 16 महाजनपदों के नाम मिलते हैं - अंग, मगध, काशी, कोसल, वज्जि मल्ल, चेतिया (चेदि): वंस (वत्स), कुरु, पंचाल, मच्छ (मत्स्य), सूरसेन (शूरसेन), अस्सक (अश्मक), अवन्ति, गन्धार और कम्बोज महावस्तु में 16 महाजनपदों की सूची दी गई है उसमें गन्धार और कम्बोज के स्थान पर शिवि और दशार्ण का उल्लेख मिलता है ।
- दीघनिकाय में इन जनपदों का दो-दो के जोड़ों में उल्लेख किया गया है जैसे कासी-कोसल वज्जि-मल्ल, चेति-वंस, कुरु-पंचाल तथा मच्छ-सूरसेन । जैन ग्रन्थ भगवतीसूत्र में सोलह महाजनपदों की जो सूची दी गई है वह बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय में दी गई सूची से भिन्न है। इस सूची में सोलह महाजनपदों के नाम इस प्रकार मिलते हैं अंग, बंग (वंग), मगह (मगध), मलय, मालवक (अवन्ति), अच्छ वच्छ (वत्स), कोच्छ (कच्छ), पाड़ (पुण्ड्), लाढ़ (राढ़), वज्जि (वृज्जि), मोलि (मल्ल), कासी (काशी), कोसल (कोशल), अवाह तथा सम्भुतर (सुम्होतर)।
- उपर्युक्त दोनों सूचियों में से अंगुत्तरनिकाय में दी गई सूची को अधिक विश्वसनीय माना जाता है । यद्यपि छठी शती ई.पू. में जनपदों की संख्या और भी अधिक थी। हालांकि सिकन्दरकालीन इतिहासकारों ने भी 30 से अधिक जनपदों का उल्लेख किया है ।
- जनपद युग में वज्जि और मल्ल गणराज्यों के अलावा कुछ लघुजनपद भी थे जिनके नाम है दर्शाण औदुमर, वंग, सुह्य, मद्र, योन, शिवि, बाहिक कैकय, उद्यान, सिन्धु-सौवीर, सुराष्ट्र, अपरान्त महाराष्ट्र, महिंसक कलिंग, मूलक और आम्र । भरतसिंह उपाध्याय ने इन जनपदों पर प्रकाश डाला है । वज्जि गणराज्य के सदस्य लिच्छवि, विदेह, ज्ञातृक, उग्र, भोग, एक्ष्वाकु और कौरव थे ।
महापरिनिब्बान सुत में बुद्धकालीन निम्न गणजातियों के नाम मिलते हैं -
- कुशीनारा के मल्ल, पावा के मल्ल, कपिलवस्तु के शाक्य, रामग्राम के कोलिय पिप्पलिवन के मोरिय, अल्लकप्प के बुलि केसपुत्त के कालाम और सुंसुमार गिरी के भग्ग ।
जनपदयुगीन राजनीति की विशेषताएँ
- बुद्धकालीन भारत में सार्वभौम सत्ता का अभाव था सम्पूर्ण राष्ट्र छोटे-छोटे जनपदों में बँटा हुआ था जो अपने अस्तित्व को बनाये रखने हेतु प्रयत्नशील थे। डॉ. श्रीराम गोयल ने छठी- पाँचवी शती ई. पू. को संघर्षरत जनपदों का युग कहकर पुकारा है। लेकिन विकेन्द्रीकरण के इस काल में हमें केन्द्रीकरण की प्रवृति भी दृष्टिगोचर होती है। महात्मा बुद्ध के समय सोलह महाजनपदों में से कोसल, वत्स, अवन्ति और मगध इस काल चार सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य बन चुके थे। उनमें सार्वभौम सत्ता के लिये संघर्ष प्रारम्भ हो चुका था। धीरे-धीरे लघु जनपद मगध में सम्मिलित हो गये और बह साम्राज्यवाद की ओर अग्रसर होने लगा। मौर्यकाल तक पहुँचते मगध ने विशाल साम्राज्य का स्वरूप ग्रहण कर लिया ।
- भारतीय इतिहास के लिये विवेच्य काल संक्रमण काल था क्योंकि छठी शताब्दी ई.पू. में हमारे देश के पश्चिमी सीमान्त को ईरानी आक्रमण और फिर मौर्यकाल में सिकन्दर के आक्रमण का सामना करना पड़ा था। जिससे प्रभावित होकर कई गणजातियों ने पंजाब को छोड़कर राजस्थान को अपना निवास स्थान बना लिया था।