चाणक्य नीति संस्कृत हिन्दी इंग्लिश तेरहवां अध्याय Chanakya Niti in Sanskrit Hindi English Thirteenth
Chapter
1.
मुहूर्त्तं माप जीवेच्च नरः शुक्लेण कर्मणा ।
न कल्पमापि कष्टेन लोकद्वयविरोधिना ।।१।।
यदि आदमी एक पल के लिए भी जिए तो भी उस
पल को वह शुभ कर्म करने में खर्च करे. एक कल्प तक जी कर कोई लाभ नहीं. दोनों लोक
इस लोक और पर-लोक में तकलीफ होती है.
A man may live but for a moment, but that moment should be
spent in doing auspicious deeds. It is useless living even for a kalpa
(4,320,000 *1000 years) and bringing only distress upon the two worlds (this
world and the next).
2.
गते शोको न कर्तव्यो भविष्यं नैव चिन्तयेत् ।
वर्तमानेन कालेन प्रवर्त्तन्ते विचक्षणाः ।।२।।
हम उसके लिए ना पछताए जो बीत गया. हम
भविष्य की चिंता भी ना करे. विवेक बुद्धि रखने वाले लोग केवल वर्तमान में जीते है.
We should not fret for what is past, nor should we be anxious
about the future; men of discernment deal only with the present moment.
3.
स्वभावेन हि तुष्यन्ति देवाः सत्पुरुषाः पिता ।
ज्ञातयः स्नान-पानाभ्यां वाक्यदानेन पंडिताः ।।३।।
यह देवताओं का, संत जनों का और पालकों का स्वभाव है की
वे जल्दी प्रसन्न हो जाते है. निकट के और दूर के रिश्तेदार तब प्रसन्न होते है जब
उनका आदर सम्मान किया जाए. उनके नहाने का, खाने
पीने का प्रबंध किया जाए. पंडित जन जब उन्हें अध्यात्मिक सन्देश का मौका दिया जाता
है तो प्रसन्न होते है.
It certainly is nature of the demigods, men of good
character, and parents to be easily pleased. Near and distant relatives are
pleased when they are hospitably received with bathing, food, and drink; and
pandits are pleased with an opportunity for giving spiritual discourse.
4
आयुः कर्म च वित्तञ्च विद्या निधनमेव च ।
पञ्चैतानि च सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ।।४।।
जब
बच्चा माँ के गर्भ में होता है तो यह पाच बातें तय हो जाती है…
१. कितनी लम्बी उम्र होगी. २. वह क्या करेगा ३.
और ४. कितना धन और ज्ञान अर्जित करेगा. ५. मौत कब होगी.
Even as the unborn baby is in the womb of his mother, these
five are fixed as his life destiny: his life span, his activities, his
acquisition of wealth and knowledge, and his time of death.
5.
अहो वत ! विचित्राणि चरितानि महात्मनाम् ।
लक्ष्मी तृणाय मन्यन्ते तद्भारेण नमन्ति च ।।५।।
देखिये क्या आश्चर्य है? बड़े लोग अनोखी बातें करते है. वे पैसे
को तो तिनके की तरह मामूली समझते है लेकिन जब वे उसे प्राप्त करते है तो उसके भार
से और विनम्र होकर झुक जाते है.
Oh, see what a wonder it is! The doings of the great are
strange: they treat wealth as light as a straw, yet, when they obtain it, they
bend under its weight.
6.
यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भाजनम् ।
स्नेहमूलानि दुःखानि तानि त्यक्त्वा वसेत्सुखम् ।।६।।
जो व्यक्ति अपने घर के लोगों से बहुत
आसक्ति रखता है वह भय और दुःख को पाता है. आसक्ति ही दुःख का मूल है. जिसे सुखी
होना है उसे आसक्ति छोडनी पड़ेगी.
He who is overly attached to his family members experiences
fear and sorrow, for the root of all grief is attachment. Thus one should
discard attachment to be happy.
7.
अनागतविधाता च प्रत्युत्पन्नमतिस्तथा ।
द् वावेतौ सुखमेधेते यद्भविष्यो विनश्यति ।।७।।
जो भविष्य के लिए तैयार है और जो किसी
भी परिस्थिति को चतुराई से निपटता है. ये दोनों व्यक्ति सुखी है. लेकिन जो आदमी
सिर्फ नसीब के सहारे चलता है वह बर्बाद होता है.
He who is prepared for the future and he who deals cleverly
with any situation that may arise are both happy; but the fatalistic man who
wholly depends on luck is ruined.
8.
राज्ञधर्मणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः ।
राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः ।।८।।
यदि राजा पुण्यात्मा है तो प्रजा भी
वैसी ही होती है. यदि राजा पापी है तो प्रजा भी पापी. यदि वह सामान्य है तो प्रजा
सामान्य. प्रजा के सामने राजा का उद्धारण होता है. और वह उसका अनुसरण करती है.
If the king is virtuous, then the subjects are also virtuous.
If the king is sinful, then the subjects also become sinful. If he is mediocre,
then the subjects are mediocre. The subjects follow the example of the king. In
short, as is the king so are the subjects.
9.
जीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम् ।
मृतो धर्मेण संतुक्तो दीर्घजीवी न संशयः ।।९।।
मेरी नज़रों में वह आदमी मृत है जो
जीते जी धर्म का पालन नहीं करता. लेकिन जो धर्म पालन में अपने प्राण दे देता है वह
मरने के बाद भी बेशक लम्बा जीता है.
I consider him who does not act religiously as dead though
living, but he who dies acting religiously unquestionably lives long though he
is dead.
10.
धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते ।
अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम् ।।१०।।
जिस व्यक्ति ने न ही कोई ज्ञान संपादन
किया, ना ही पैसा काया, मुक्ति के लिए जो आवश्यक है उसकी
पूर्ति भी नहीं किया. वह एक निहायत बेकार जिंदगी जीता है जैसे के बकरी की गर्दन से
झूलने वाले स्तन.
He who has acquired neither virtue, wealth, satisfaction of
desires nor salvation (dharma, artha, kama, moksa), lives an utterly useless
life, like the “nipples” hanging from the neck of a goat.
11.
दह्यमानाः सुतीब्रेण नीचाः परयशोऽग्निना ।
अशक्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां प्रकुर्वते ।।११।।
जो नीच लोग होते है वह दूसरे की कीर्ति
को देखकर जलते है. वह दूसरे के बारे में अपशब्द कहते है क्यों की उनकी कुछ करने की
औकात नहीं है.
The hearts of base men burn before the fire of other’s fame,
and they slander them being themselves unable to rise to such a high position.
12.
बन्धाय विषयासङ्गं मुक्त्यै निर्विषयं मनः ।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।।१२।।
यदि विषय बहुत प्रिय है तो वह बंधन में
डालते है. विषय सुख की अनासक्ति से मुक्ति की और गति होती है. इसीलिए मुक्ति या
बंधन का मूल मन ही है.
Excessive attachment to sense pleasures leads to bondage, and
detachment from sense pleasures leads to liberation; therefore it is the mind
alone that is responsible for bondage or liberation.
13.
देहाभिमानगलिते ज्ञानेन परमात्मनः ।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः ।।१३।।
जो आत्म स्वरूप का बोध होने से खुद को
शारीर नहीं मानता, वह हरदम समाधि में ही रहता है भले ही
उसका शरीर कही भी चला जाए.
He who sheds bodily identification by means of knowledge of
the indwelling Supreme Self (Paramatma), will always be absorbed in meditative
trance (samadhi) wherever his mind leads him.
14.
ईप्सितं मनसः सर्वं कस्य सम्पद्यते सुखम् ।
दैवायत्तं यतः सर्वं तस्मात् संतोषमाश्रयेत् ।।१४।।
किस को सब सुख प्राप्त हुए जिसकी कामना
की. सब कुछ भगवान के हाथ में है. इसलिए हमें संतोष में जीना होगा.
Who realises all the happiness he desires? Everything is in
the hands of God. Therefore one should learn contentment.
15.
यथा धेनुसहस्त्रेषु वत्सो गच्छति मातरम् ।
तथा यच्च कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छाति ।।१५।।
जिस प्रकार एक गाय का बछड़ा, हज़ारों गायों में अपनी माँ के पीछे
चलता है उसी तरह कर्म आदमी के पीछे चलते है.
As a calf follows its mother among a thousand cows, so the
(good or bad) deeds of a man follow him.
16.
अनवस्थितकार्यस्य न जने न वने सुखम् ।
जनो दहति संसर्गाद्वनं संगविवर्जनात् ।।१६।।
जिस के काम करने में कोई व्यवस्था नहीं, उसे कोई सुख नहीं मिल सकता. लोगों के
बीच या वन में. लोगों के मिलने से उसका ह्रदय जलता है और वन में तो कोई सुविधा
होती ही नहीं.
He whose actions are disorganised has no happiness either in
the midst of men or in a jungle — in the midst of men his heart burns by social
contacts, and his helplessness burns him in the forest.
17.
यत् खनित्वा खनित्रेण भुतले वारि विन्दति ।
तथा गुरुगतां विद्या शुश्रुषुरधिगच्छति ।।१७।।
यदि आदमी उपकरण का सहारा ले तो भूगर्भ
से पानी निकाल सकता है. उसी तरह यदि विद्यार्थी अपने गुरु की सेवा करे तो गुरु के
पास जो ज्ञान निधि है उसे प्राप्त करता है.
As the man who digs obtains underground water by use of a
shovel, so the student attains the knowledge possessed by his preceptor through
his service.
18.
कर्मायत्तं फलं पुंसां बुध्दिः कर्मानुसारिणी ।
तथाऽपि सुधियश्चार्या सुविचार्यैव कुर्वते ।।१८।।
हमें अपने कर्म का फल मिलता है. हमारी
बुद्धि पर इसके पहले हमने जो कर्म किये है उसका निशान है. इसीलिए जो बुद्धिमान लोग
है वह सोच विचार कर कर्म करते है.
Men reap the fruits of their deeds, and intellects bear the
mark of deeds performed in previous lives; even so the wise act after due
circumspection.
19.
एकाक्षरप्रदातारं यो गुरुं नाऽभिवन्दते ।
श्वानयोनिशतं भुक्त्वा चांडालेष्वभिजायते ।।१९।।
जिस व्यक्ति ने आपको अध्यात्मिक महत्ता
का एक अक्षर भी पढाया उसकी पूजा करनी चाहिए. जो ऐसे गुरु का सम्मान नहीं करता वह
सौ बार कुत्ते का जन्म लेता है. और आखिर चंडाल बनता है. चांडाल वह है जो कुत्ता
खाता है.
Even the man who has taught the spiritual significance of
just one letter ought to be worshiped. He who does not give reverence to such a
guru is born as a dog a hundred times, and at last takes birth as a chandala
(dog-eater).
20.
युगान्ते प्रचलेन्मेरुः कल्पान्ते सप्त सागराः ।
साधवः प्रतिपन्नार्थान्न चलन्ति कदाचन ।।२०।।
जब युग का अंत हो जायेगा तो मेरु पर्वत
डिग जाएगा. जब कल्प का अंत होगा तो सातों समुद्र का पानी विचलित हो जायेगा. लेकिन
साधु कभी भी अपने अध्यात्मिक मार्ग से नहीं डिगेगा.
At the end of the yuga, Mount Meru may be shaken; at the end
of the kalpa, the waters of the seven oceans may be disturbed; but a sadhu will
never swerve from the spiritual path.
21.
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि अन्नमापः सुभाषितम् ।
मूढैः पाषाणखण्डॆषु रत्नसंख्या विधीयते ।।२१।।
इस धरती पर अन्न, जल और मीठे वचन ये असली रत्न है.
मूर्खों को लगता है पत्थर के टुकड़े रत्न है.
There are three gems upon this earth; food, water, and pleasing words — fools (mudhas) consider pieces of rocks as gems.