कबीर कौन थे , कबीर के बारे में जानकारी
कबीर मूलतः भक्त कवि हैं। उनकी भक्ति का मार्ग निर्गुण है । कबीर जिस समय और समाज में मौजूद थे उसमें उनके सामने तमाम किस्म की धार्मिक रूढ़ियाँ, बाह्याचार और आडंबर का जाल फैला हुआ था।
धर्म के इन्हीं प्रपंचों के बीच कबीर साधना के एक ऐसे मार्ग की वकालत कर रहे थे जो उनकी दृष्टि में सच्चा और सहज था।
साधना के अपने मार्ग की प्रस्तावना के क्रम में ही कबीर ईश्वर और सृष्टि के रहस्यों तथा उनके अंतर्संबंधों के तमाम पहलुओं की समीक्षा करते हैं। ऐसा करते हुए उनकी वाणी दर्शन की ऊँचाइयों तक पहुँच जाती है ।
जब मैं था तब हरि नहीं दोहे का हिन्दी अर्थ
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि ।।
अर्थात
जब तक मेरा 'मैं' अर्थात अहंकार था तब हरि ( ब्रह्म) का साक्षात्कार नहीं हुआ, लेकिन हरि के साक्षात्कार से साथ मेरा
अहंकार अथवा निजपन खत्म हो गया। जब दीपक रूपी ज्ञान मिला तो मोह अथवा अहंकार रूपी
अँधियारा खत्म हो गया।
जब मैं था तब हरि नहीं दोहे की भावना
कबीर की यह साखी अद्वैतवाद की मूल भावना के अनुरूप है। अद्वैतवाद में कहा गया है कि ब्रह्म और जीव के बीच जो अंतर दिखाई देता है वह माया के आवरण के कारण है अन्यथा दोनों एक हैं। ज्ञान के आगमन के साथ यह आवरण हट जाता है तथा ब्रह्म और जीव में कोई भेद नहीं रह जाता। प्रस्तुत साखी में भी हम यही भावना देखते हैं । 'हरि' और 'मैं' में तभी तक भेद है जब तक कि अज्ञानरूपी अंधेरा है, दीपकरूपी ज्ञान के आलोक में दोनों में अभेद्य की स्थिति हो जाती है।