चौहानों का इतिहास एवं पृष्ठभूमि चौहान शक्ति का उदय चौहान के प्रमुख राजा
राजस्थान के इतिहास में चौहान शक्ति का उदय
- राजस्थान ही नहीं उत्तर भारत के इतिहास में चौहान शक्ति के उदय और चौहानों की उपलब्धियाँ, अत्यन्त महत्वपूर्ण घटनाएं थीं हिन्दू धर्म, संस्कृति, गऊ व ब्राह्मणो व भारत की स्वतंत्रता की रक्षा के प्रयासों में उनके योगदान का मूल्यांकन व बोध शिक्षार्थियों के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। चौहानों ने क्रमागत रूप से अच्छित्रपुर (नागौर), सांभर व अंत में राजसनि के 'जिब्राल्अर' व 'हृदय' अजयमेरु नगर को अपनी राजधानी बनाया। उन्होंने सम्पूर्ण राजसनि, हरियाणा, दिल्ली व पूर्वी पंजाब पर अपनी सत्ता कापरचम फहराया ।
- दक्षिण में गुजरात के चालुक्यों, मालवे के परमारों व पूर्व में कन्नौज के गहड़वालों तथा बुन्देलखंड के चंदेलों को भी उनको लोहा मानना पड़ा। दिल्ली चौहानों व कन्नौज के गहड़वालों के मध्य शत्रुता का कारण रही दूसरा और लाहोर के गजनथी शासकों व मुलान के करामाती मुसलमानों से वे लगातार संघर्षरत रहे।
- प्रतिहार शक्ति के पतन से ही चौहान शक्ति के उदय का मार्ग प्रशस्त हुआ। प्रारंभ में चौहान प्रतिहारों के सामन्त रहे। जॉगल क्षेत्र में अपनी सत्ता दृढ़कर चौहानों ने सम्पूर्ण जॉगल क्षेत्र (उत्तरी राजस्थान, वर्तमान ढंढाड, जयपुर क्षेत्र) मेशत (अलवर क्षेत्र) हाड़ोती (बूंदी, कोटा, झालावाड), मरुधर देश ( वर्तमान जोधपुरं, पाली, बाडमेर क्षेत्र) दिल्ली भांडानक क्षेत्र (हरयाणा) तक अपना ध्वज फहराकर वे सपादलक्ष के स्वामी बने दक्षिण में मांडल तक उनकी सीमा थी, मेवाड़ के गृहिलों से उनके मैत्री सम्बन्ध थे अजयराज, अर्णोराज, विग्रहराज चतुर्थ व पृथ्वीराज तृतीय चौहान वंश के वीर शिरोमणि थे, जिन्होंने चौहान शक्ति को पराकाष्ठा तक पहुँचा।
- विग्रहराज चतुर्थ में जहाँ लेखनी तलवार व सपितय की त्रिवेणी का संगम था, तो पृथ्वीराज युग का सर्वश्रेष्ठ सेनापति धनुधारी व विद्ययाओं का ज्ञाता, धर्म, संस्कृति स्वतंत्रता का प्रतिहारी बन कर उभरा पृथ्वीराज अन्तिम हिन्दू सम्राट, यौवन का प्रतीकराम का अवतार उद्भट योद्धा व लोकनायक कहलाया आज भी उसका स्मरण मात्र युवापीढ़ी को उत्साह व उमंग से भर देता है। उसकी पराजय के साथ ही भारत तुर्क दासता की जंजीरों में बंध गया ।
चौहानों का इतिहास एवं पृष्ठभूमि
- छठी सदी के मध्य में हूणों की शक्ति के पतन का लाभ उठाते हुए इस वंश के संस्थापक चाहु मान ने अपने भाई धनअजय की सहायता से जांगल क्षेत्र में अपनी सत्ता स्थापित की इसके उत्तराधिकारी वासुदेव ने अहिछत्रपुरा को राजधानी बनाया इसे एक विद्याधर ने एक नमक की झील प्रदान की जो शाकंभरी देवी के नाम पर सांभर क्षेत्र कहलाया।
- वासुदेव के पश्चात सामान्तराज (684-709 ई.) नरदेव (709-21ई.) अजयराज प्रथम (721-34 ई.) मान्यता है कि इसी अजयपाल चक्री ने अजमेर बसाया विग्रहराज प्रथम (734-59 ई.) चंद्रराज (759-71 ई.) गोपेन्द्र राज (771-84 ई.) ऐनामक शासक हुए ।
- उस
समय प्रतिहारों की शक्ति का उदय हुआ चौहान उनके सामन्त बन गए । इन सामन्त बने
चौहानों में दुर्लभराज प्रथम (784-809 ई.) गूवक प्रथम (809-36 ई.) चन्दराज द्वितीय
(836-63 ई.) गूवक द्वितीय (863-90ई.) चन्दनराज (890-917 ई.), वाक्पतिराज
प्रथम (917-44 ई.) प्रमुख थे।
चौहानों का प्रथम स्वतंत्र राजा
- सिंहराज (944-71 ई.) चौहानों का प्रथम स्वतंत्र राजा बना, जिसने प्रतिहार सत्ता की अधीनता का त्याग कर दिया। इसके उत्तराधिकारी विग्रहराज द्वितीय (971-98ई.) ने चौहान सत्ता का विस्तार किया। उसके उत्तराधिकारी दुर्लभराज द्वितीय ने महमूद गजनवी को चुनौती दी।
- तत्पश्चात गोविन्द राज द्वितीय ने सोमनाथ अभियान पर जाते हुए महमूद गजनवी का न केवल सामना किया वरन उससे अपने राज्य को सुरक्षित रखा। इसके पश्चात बाक्पीतराज द्वितीय (1026-40ई.) वीर्यराम (1040 ई.), चामुन्डराज (1040-65ई.), दुर्लभराज़ (1065-70ई.), (1065-70ई.) विग्रहराज तृतीय (1070-90ई.) व पृथ्वीराज प्रथम (1090-1110 ई.) चौहान शासक बने।
- इसी पृथ्वीराज प्रथम के परामर्श को स्वीकार करते हुए उसके पुत्र अजयराज (1110-35ई.) ने पृथ्वीराज विजय महाकाव्य के अनुसार अजयमेक नगरी व दुर्ग की स्थापना कर 1113 ई. में इसे अपनी राजधानी बनाया।
- इसी के सुपुत्र अर्णोराज (1135-50ई.) ने आनासागर झील के रणक्षेत्र में तुर्क आक्रमणकारियों को निर्णायक पराजय देकर आनासागर झील का निर्माण कराया । अर्णोराज की हत्या उसके सत्ता पिपासु पुत्र जगदे० (जग्गा हत्यारे) ने कर दी व स्वयं राजा बन गया पर उसके लघुभ्राता विग्रहराज चतुर्थ ने उसे मार भगाया व स्वयं चौहान बना ।
विग्रहराज चतुर्थ (1150-64ई.) एवं उसके कार्य
- विग्रहराज चतुर्थ या बीसलदेव अर्णोराज चौहान की मारोठ की यौधेय महारानी सुधावा का पुत्र था इसने सर्वप्रथम पिता के हत्यारे अपने भाई जगदेव को सिंहासन से हटाकर पिता की हत्या का बदला लेकर अपने पिता के उन शत्रुओं के विरुद्ध अभियान छेड़ा जिन्होंने उसके पिता को कष्ट दिए थे।
- सर्वप्रथम उसने गुजरात के कुमारपाल चालुक्य के चितौड़ स्थित राज्यपाल सज्जन या सजन को उसकी गजसेना सहित नष्ट कर दिया कुमारपाल ने उससे नागोर छीनने का अतुल प्रयास किया ।
- चालुक्यों व चौहानों ने नाडोल जालोर व पाली के प्रश्न पर परम्परागत शत्रुता थी अतः कुमार पाल समर्थक इन शासकों पर आक्रमण कर चौहान प्रशस्ति के अनुसार विग्रहराज ने जालोर को जला दिया नाडोल को उजाड़ दिया व पाली को बर्बाद कर दिया।
- मांडलगढ़, जहाजपुर व बिजोलिया पर चौहानों की सत्ता स्थापित की। इसके पश्चात बिजोलिया अभिलेख व राजशेखर की काय मीमांसा के अनुसार विग्रहराज ने उत्तरी शेखावटी अलवर, भिवानी व हिसार की अहीरावाटी के भांडानको को परास्त कर इन क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया तत्पश्चात् डॉ. दशरथ शर्मा व पालन बाबडी अभिलेखानुसार तोमरों को परास्त कर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। मदनपाल तोमर उसका सामन्त बना गया। मार्ग में हाँसी भी चौहान राज्य का अंग बन गई।
- अब उत्तर भारत की अजेय चौहान शक्ति के इस कर्ण धारने ने आर्यावर्त की मुक्ति व सुरक्षा, हिन्दू धर्म संस्कृति, गऊ, ब्राह्मण तथा पवित्र धरती की गरिमा की रक्षा हेतु कटिबद्ध हो तुर्क आक्रमणकारियों को चुनौती दे दी ।
- एक तुर्क सेना लाहौर के खुसरों मलिक या उसके सेनापति अमीर या हमीर के अधीन खेती से तीन कोस दूर बेवरा तक आ गई, अपने सामन्तों के विरोध के बाबजूद विग्रहराज ने आगे बढ़कर शत्रु सेना को अपने मामा सिंहनाद जोहिए की सहायता से परास्त कर नष्ट कर दिया। 1220 वि. (1162 ई) के शिवालिक स्तम्भ लेख के अनुसार उसने गजनवी तुर्कों से अर्यावर्त की धरती को मुज करा लिया ।
- रवि प्रभा सूरी के स्तंभ लेख के अनुसार उसने गजनवी तुर्की से आर्यावर्त की धरती को मुक्त करा लिया रवि प्रभा सूरी के अनुसार अजमेर स्थित जैन राज विहार के धवाजारोहण समारोह में मालवा व मेवाड के शासक उपस्थित हुए।
- शस्त्रों के साथ ही शास्त्रों के ज्ञाता विग्रहराज चतुर्थ ने विद्वानों को संरक्षण दिया उसके दरबारी कवि सोमदेव ने ललित विग्रहराज नाटक की रचना की तथा स्वयं विग्रहराज ने हरकेलि नामक की रचना की। चौहान प्रशस्ति की रचना भी इसी के काल में हुई ।
- महान निर्माता विग्रहराज चतुर्थ ने भोज के सरस्वती कण्ठागार का अनुसरण करते हुए, अजमेर में भी सरस्वती कठागार या सरस्वती मंदिर या संस्तुत महाविद्यालय का सुन्दर भवन निर्मित कराया जिसे 1198 ई. में गौरी व ऐबक ने मस्जिद के रूप में परिवर्तित कर दिया।
- अजमेर नगर में बीसलपुर झील व शिवालय का निर्माण कराया। बीसलपुर नगर में वही का गोकर्णेश्वर मन्दिर भी उसी की हे शैव धर्मानुयायी विग्रहराज चतुर्थ ने वैष्णव व जैन धर्मों को पूर्ण समान दिया। अजमेर में कई जैन विहार व उपासरे बने ।
- यही विग्रहराज चतुर्थ पृथ्वीराज तृतीय की प्रेरणा का मुख्य स्रोत रहा। वास्तव में इह पृथ्वीराज तृतीय का अग्रगामी था। उसका युग डॉ. शर्मा के अनुसार सपादलदक्ष के चौहानों का स्वर्णयुग रहा उसके काल में चौहानों की शस्त्र शक्ति, शास्त्र शक्ति व स्थापत्य चरमोत्कर्ष की स्थिति में आ गए ।
पृथ्वीराज तृतीय की पृष्ठभूमि
1164 ई. के लगभग विग्रहराज चतुर्थ के निधन के पश्चात उसका पुत्र अपरगामेय गद्दी पर बैठा, जो पितृहंता जगदेव के पुत्र पृथ्वी भट्ट या पृथ्वीराज द्वितीय के हाथों मारा गया।
1167 ई. में पृथ्वीराज द्वितीय निःसन्तान स्वर्गवासी हो गया ।
अतः अर्णोराज की चालुक्य रानी कांचन देवी जो कुमारपाल चालुक्य की बहन थी के पुत्र सोमेश्वर को अन्हिलवाडा से बुलाकर अजमेर के सिंहासन पर बैठाया गया।
सोमेश्वर अपने तीन वर्षीय पुत्र पृथ्वीराज, दो वर्षीय पुत्र हरिराजमहारानी कर्पूरी देवी, साले भूवनकमल्ल व सहयोगी स्कन्द नागर के साथ अजमेर आकर गद्दी पर बैठा। उसने चौहान साम्राज्य को यथावत रखा तथा अजमेर के समीप वैद्यनाथधाम नामक शिवालय का निर्माण कराया। सोमेश्वर का 1176 ई. में निधन हो गया ।