राजपूतों की उत्पत्ति से सम्बन्धित मत
राजपूतों की उत्पत्ति (Origin of the Rajputs )
- पूर्व मध्यकालीन भारत में राजपूत शक्ति
का एक ऐतिहासिक शक्ति के रूप में भारतीय इतिहास क्षितिज पर उदय हुआ। विन्सेण्ट स्मिथ
ने राजपूतों के महत्व पर टिप्पणी करते हुए ठीक ही लिखा है "हर्ष की मृत्यु के
पश्चात उत्तर भारत पर मुस्लिम आक्रमणों अर्थात सातवीं से बारहवीं शताब्दी तक
राजपूतों का महत्व इतना बढ़ गया था कि इस काल को राजपूत काल के नाम से अभिहित किया
जाना चाहिये । " यद्यपि इस काल में राजपूत वंशो का प्रभुत्व उत्तरी और
पश्चिमी भारत तक ही सीमित रहा ।
- इस युग में भारत के विभिन्न भागों में
अनेक राजपूत ईशों ने राज्य किया । विभिन्न साहित्यिक तथा अभिलेखिक साक्ष्यों से ज्ञात होता
है कि यह जाति अत्यन्त शूरवीर तथा युद्ध प्रिय जाति थी ।
- इन राजपूत वंशो ने बहुत समय तक अरब और
तुर्क आक्रमणकारियों के आक्रमणों का सामना कर भारत की पश्चिमी सीमा पर रोके रखा लेकिन इन
राजपूत राज्यों में आपस में बहुत ईर्ष्या द्वेष था जिसके कारण हे कभी भी एक होकर भारत पर बाहर
से होने वाले मुस्लिम आक्रमणकारियों का सामना नहीं कर सके परिणाम स्वाभाविक था। 1200 ई. के आस-पास इन राजपूत राज्यों का
अन्त हो गया और भारत पर एक बाहरी शक्ति ने अपना
साम्राज्य स्थापित कर लिया।
- यद्यपि यह जाति तुर्क आक्रमणकारियों के आक्रमण का मुकाबला
करने में विफल रही लेकिन अपनी वीरता, बहादुरी, बलिदान और कतिपय सिद्धान्तों के कारण
भारतीय इतिहास में राजपूतों का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है ।
राजपूतों की उत्पत्ति कैसे हुई ?
राजपूतों की
उत्पत्ति से सम्बन्धित विभिन्न मत और उनकी समीक्षा
- राजपूतों की उत्पत्ति का प्रश्न
अत्यन्त विवादास्पद है। राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने
भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत किये हैं। कुछ विद्वान इनकी विदेशी उत्पत्ति बताते हैं तो
कुछ देशी और कुछ उन्हें देशी-विदेशी मिश्रित उत्पत्ति से सम्बन्धित बताते हैं।
- राजपूत शब्द राजपुत्र शब्द का अपभ्रंश है। ऋग्वेद में राजपुत्र और राजन्य शब्दों
का बहुधा उल्लेख हुआ है और वहाँ दोनों शब्द समानार्थक रूप में प्रयुक्त हुए हैं।
बाद में महाभारत में भी ये शब्द समानार्थक रूप में प्रयुक्त किये गये हैं लेकिन
ऐसा लगता है कि बाद में राजन्य राजा या शासक के रूप में और राजपुत्र राजा के पुत्र
या उसके सम्बन्धियों के पुत्रों के रूप में प्रयुक्त किया जाने लगा।
- प्राचीन भारत
में क्षत्रिय शासकों के अतिरिक्त कुछ ब्राह्मणों, कुछ विदेशियों, शक, हूण कुषाण और यवनों ने भी भारत के
विभिन्न भागों में राज्य किया था। धीरे-धीरे इन शासक वंशों के मध्य परस्पर वैवाहिक
सम्बन्धों के फलस्वरूप भी विलयन की प्रक्रिया हुई। शासकों तथा सामन्तों के वंशज
राजपुत्र थे। जिनको राजपूतों के नाम से जाना जाने लगा । इनमें से कई जातियों ने
भारतीय धर्म स्वीकार कर लिया था।
- हरिभद्र सूरी ने कई विदेशियों को भीनमाल में जैन
समाज में मिलाया था। आबू के यज्ञ की कहानी भी इसी ओर इंगित करती है । जहाँ-जहाँ ये
जातियाँ बसी वहाँ स्थानीय जातियों के साथ आचार-विचार में और जीविका में साचता आती
गई। यह समन्वय सामाजिक स्तर तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि जिन-जिन समूहों ने मैत्री
एवं एक-दूसरे के प्रभाव को स्वीकार कर लिया उन्होंने परस्पर सहयोग से आस-पास के
क्षेत्रों में अपना राजनीतिक प्रभाव भी स्थापित कर लिया। नये राजा और उनके पुत्र
एवं सामन्त इस वर्ग में सम्मिलित हो गये और क्षत्रिय कर्म को छोड़कर अन्य कर्म
अपनाने वाले इस वर्ग से पृथक हो गये ।
- श्री जे. एन. आसोपा ने इस सिद्धान्त को चयन
और अपचयन (Theory of
selection and Rejection) कहकर अभिहित किया है। प्रो. जी. एन शर्मा ने लिखा है कि इस प्रकार
समन्वय से नये बने कुलों ने छठी शताब्दी से अपनी सत्ता संस्थापन का प्रयास आरम्भ
कर दिया। उनका विचार है कि ऐसे प्रमाण उपलब्ध होते हैं कि गुजरात, पंजाब तथा गंगा, यमुना के मैदानी भागों से ऐसे कई
राजपूतों के समुदाय राजस्थान में आये और यहीं के स्थानीय निवासियों के सहयोग से
उन्होंने सफलता प्राप्त की इस तरह राजपूतों के पृथक-पृथक सत्ता क्षेत्रों में
राजस्थान बँट गया।
- यह अधिवासन एक लम्बे युग की कहानी है जिसमें सैकड़ों वर्ष लगे।
ये प्रारम्भिक आक्रमणकारी भारतीय समाज में विलीन हो गये । लेकिन मुस्लिम
आक्रमणकारी धार्मिक कट्टरता के विश्वास के कारण उदारवादी भारतीय समन्वीकरण का
हिस्सा नहीं बन सके । इन आक्रमणकारियों से पराभूत होकर राजपुत्र कहलाने वाले वर्ग
के हाथ से धीरे-धीरे राजनीतिक सत्ता जाती रही लेकिन उन्होंने अपनी गौरवपूर्ण
राजपुत्र उपाधि बनाये रखी । इन तुर्क आक्रमणकारियों ने भी इनको राजपूत कहना
प्रारम्भ कर दिया। इन प्रारम्भिक राजपुत्र कुलों ने राजस्थान में अपने राज्य
मारवाड में प्रतिहार और राठौड, मेवाड
में गुहिल, सांभर में चौहान, आमेर में कच्छवाहा, जैसलमेर में भाटियों ने स्थापित कर
लिये। श्री बी. एन. रेऊ ने प्रो. आसोपा के सिद्धान्त को काल्पनिक कहकर ठुकरा दिया।
अग्निवंशीय उत्पत्ति-राजपूतों की उत्पत्ति से सम्बन्धित मत
- प्राचीन काल से विश्व के विभिन्न देशों
में राजवंशो द्वारा देवी उत्पत्ति से अपने वंश की श्रेष्ठता सिद्ध करने की परम्परा
रही है। कुषाण शासक अपने आपको 'देवपुत्र' उपाधि से विभूषित करते थे ।
- राजपूतों
को विशुद्ध जाति का सिद्ध करने के लिये इनकी उत्पत्ति अग्नि से बताई गई है।
सर्वप्रथम बारहबीं शताब्दी ई० के अन्त में रचित चन्दबरदाई के ग्रंथ 'पृथ्वीराजरासो' में राजपूतों के चार वंश प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहानों की उत्पत्ति महर्षि वशिष्ठ के यज्ञ के अग्नि
कुण्ड से बताई गई है ।
- कहानी के अनुसार राक्षस ऋषियों के यज्ञ को हाइ, मांस, विष्ठा से अपवित्र करते थे । अतः ऋषि वशिष्ठ ने इनके संहार के लिये
आबू पर्वत पर सम्पादित यज्ञ के अग्निकुण्ड से इन वंशो को उत्पन्न किया । इस कहानी
में अलग-अलग अर्थ लगाये हैं।
- डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार परमार, ब्राह्मण थे जो धर्म की रक्षार्थ
क्षत्रिय बने। आसोपा भी यहीं मानते है चालुक्यों और चाहमानों के लेखों में उनके
पूर्वज को ब्राह्मण बताया गया है। मण्डोर के प्रतिहारों को ब्राह्मण राजा
हरिश्चन्द्र का वंशज कहा गया है। इन्हें अग्निवंशीय करने का तात्पर्य संभवतः यह हो
सकता है कि अग्नीकरण से इनकी शुद्धि की गई।
- ये ब्राह्मण अपनी प्राचीन आग्नेय
उत्पत्ति को बनाये रखने के लिये अग्निवंशीय कहलाये।
- अबुल फजल ने बौद्धों के
षड्यन्त्रों से अग्नि पूजा को बचाने के लिये अग्निवेदी से परमारों की उत्पत्ति
बताई गई हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि पृथ्वीराज रासो में अनेक ऐसी कपोल
कल्पित घटनाऐं भरी पड़ी है,
जिनका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है। पुनः
बीकानेर फोर्ट लाइब्रेरी में सुरक्षित मूल पृथ्वीराज रासों में इस प्रकार की कोई
बात नहीं लिखी हुई हैं यह संभवत बाद में जोड़ा गया अंश है । अगर चन्द्र बरदाई इन
वंशों को अग्निवशीय मानता होता तो वह अपने ग्रंथ में राजपूतों की 36 शाखाओं को सूर्य, चन्द्र और यादव वंशी नहीं लिखता ।
- डॉ. जी. एन. शर्मा ने अग्निकुल
सिद्धान्त को कवियों की कल्पना मात्र माना है। नैणसी और सूर्यमल्ल ने इस मत का
काफी प्रचार किया किन्तु 16 वीं शताब्दी ई. के अभिलेखों और
साहित्यिक ग्रंथों में प्रतीहार, चौहान
व परमारों को सूर्यवंशी और चालुक्य को चन्द्रवंशी कहा गया है।
- डॉ. गोरीशंकर
हीरानन्द ओझा ने इसे विद्वानों की हठधर्मिता कहा है तो दशरथ शर्मा ने इस विचार को
भाटों की कल्पना मात्र बताया है । डॉ. ईश्वरी प्रसाद भी इसे तथ्यरहित बताते हुए
कहते हैं कि यह ब्राह्मणों की एक प्रतिष्ठित जाति की उत्पत्ति की महत्ता निर्धारित
करने का प्रयास मात्र है।
सूर्य और चन्द्रवंशीय उत्पत्ति- राजपूतों की उत्पत्ति से सम्बन्धित मत
- डॉ. गौरीशंकर हीरानन्द ओझा राजपूतों की
सूर्य और चन्द्रवंशी उत्पत्ति में विश्वास रखते हैं ।
- अनेक शिलालेखों 1028 वि.स. का नाथ अभिलेख वि.स. 1034 का आटपुर लेख, वि.स. 1342 का आबू और वि.स. 1485 के
शृंगी ऋषि के लेख में गुहिलवशीय राजपूतों को रघुकुल (सूर्यवंशी) से उत्पन्न बताया
है।
- इसी प्रकार पृथ्वीराज विजय, हमीर
महाकाव्य के अनुसार चौहानों को क्षत्रिय कहा है।
- श्री जे. एन. आसोपा के अनुसार
सूर्य और चन्द्रवंशी मूलतः आर्यों के दो दल थे जो भारत आये ।
- पार्जिटर ने सूर्यवंशियों
को क्षत्रिय द्रविड कहा है और चन्द्रवंशियों को प्रयाग के क्षत्रिय शासक बताया है
। सी वी वैद्य का भी विचार है कि सुदूर उत्तरी देशों से आर्यों के आने वाले दल ही
महाभारत काल से सूर्य एवं चन्द्रवंशी क्षत्रिय कहलाने लगे।
- डॉ. गोपीनाथ शर्मा के
अनुसार सभी राजपूतों को सूर्य एवं चन्द्रवंशी कहना गलत होगा । अनेक भाटों ने
राजपूतों का सम्बन्ध इन्द्र, पहयनाम
और विष्णु से बताते हुए काल्पनिक वंश क्रम बना दिया है। इन मतों के समर्थक भी
राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में किसी निकर्ष पर नहीं पहुँच पाये हैं ।
राजपूतों की उत्पत्ति का विदेशी वंश से उत्पत्ति मत
- राजपूतों की उत्पत्ति का सम्बन्ध अनेक
विद्वान विदेशी जाती से बताते है । इन विद्वानो में कर्नल टोड, विलियम क्रुक, विन्सेंट सिम्थ और डॉ. डी आर भंडारकर
मुख्य है।
- विन्सेंट स्मिथ ने विदेशी आक्रमणकारियो के कलांतरण में भारतीयकरण के
फलस्वरूप हुई। कालान्तर में इन सभी भारतीयकृत विदेशी जातियों ने प्रतिष्ठ प्राप्ति
के लिए अपने आपको सूर्य और चन्द्रवंशी कहना प्रारम्भ कर दिया ।
- वे पृथ्वीराज रासो
में उल्लिखित यज्ञ कुण्ड से उत्पन्न चार राजवंशो प्रतिहार, चालुक्य, परमार और चौहनों की उत्पत्ति का सम्बन्ध भी विदेशी उत्पत्ति से
जोड़ते है। उनका कथन है की गूजरों की उत्पत्ति हूणो से हुई।
- उनका यह भी मानना है
की राजपूत जतियों की उत्पत्ति शक हूण कुषाण, पल्लव
जतियों के आक्रमण के समय से होती है। इन विदेशी जातियों ने कालान्तर में भारतीय
धर्म सभ्यता एवं संस्कृति को स्वीकार कर लिया। अतः उन्हे महाभारत एवं रामायणकाल के
क्षत्रियों से संबन्धित कर दिया गया और उन्हें सूर्य एवं चन्द्रवंशी कहा जाने लगा।
कर्नल टोड ने राजपूतो को शक और सीथियन बताया है।
- अपने मत की पुष्टि के लिए
राजपूतों में प्रचलित अनेक रीति-रिवाजों, परम्पराओं
का इन्होने सहारा लिया है। जो शकों से समयता रखते है। सूर्य पुजा, सती प्रथा अश्वमेघ यज्ञ, मधपान शस्त्र पूजन, घोड़ो का पूजन तथा तातारी और शकों की
कथाओं की पुराणों की कथाओं से सभ्यता ऐसे तथ्य हैं जो राजपूतों को विदेशी सिद्ध
करते हैं ।
- डॉ. डी. आर. भण्डारकर ने राजपूतों को
विदेशी गुर्जरों की सन्तान माना है। उनका कथन है कि गुर्जर खिजर जाति की सन्तान थे
जो कि हूणों के साथ भारत में आये थे परन्तु डॉ. भण्डारकर के पास इसका कोई प्रमाण
नहीं है कि गुर्जर खिजर थे और ये बाहर से आये थे।
- भण्डारकर ने प्रतिहारों, चालुक्यों, परमारों और चाहमानों को भी पृथक-पृथक
रूप से गुर्जर सिद्ध कर इन राजपूत वंशो की विदेशी उत्पत्ति सिद्ध करने की चेष्टा
की है।
- राजोर अभिलेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है। अरबों और राष्ट्रकूटों
ने भी कन्नौज के प्रतिहारों को गुर्जर कहा है ।
- लेकिन डॉ. भण्डारकर के इन तर्कों को
स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि राजपुताना का जो भाग गुर्जरत्रा कहलाता था
वही रहने वाले प्रतिहार प्रादेशिक विभिन्नता दिखाने के लिये अपने आप को गुर्जर
प्रतिहार कहने लगे थे।
- अरब लोग भी गुर्जरत्रा के प्रतिहारों को गुर्जर प्रतिहार के
नाम से जानते थे और इसी आधार पर कन्नौज के प्रतीहारों को भी उन्होंने इसी नाम से
पुकारा।
- डॉ. भण्डारकर ने चालुक्य, परमार और चाहमानों को भी गुर्जर सिद्ध
करने की चेष्टा की है और इसी आधार पर इनको भी विदेशी उत्पत्ति से जोड़ने का प्रयास
किया हैं । परन्तु सी. वी. वैद्य भण्डारकर के विचार से सहमत नहीं है। इनका विचार
है कि प्रतिहारों को जो गुर्जर कहा गया है वह स्थान विशेष गुजरात से उनके समय के
कारण है।
- डॉ. विमल चन्द्र पाण्डेय का विचार है कि उपर्युक्त चार राजवंशों में से
कोई भी गुर्जर सिद्ध नहीं होता और यदि यह मान भी लिया जाये कि वे गुर्जर थे तो भी
उन्हें विदेशी नहीं कहा जा सकता क्योंकि गुर्जरों को विदेशी सिद्ध करने के लिये
कोई अकाट्य प्रमाण नहीं है।
- डॉ. सत्यप्रकाश राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी जाति
गुर्जरों से नहीं मानते हैं। वे गुर्जरों को विदेशी नहीं मानते।
- हेनसांग
गुर्जरों को क्षत्रिय बताता है और हूणों का कोई उल्लेख नहीं करता । गुर्जर का
समीकरण खिजर से केवल अन्तिम जर शब्द के आधार पर करना भी तर्क संगत नहीं है ।
- डी.
बी. एन. पुरी का भी यही निष्कर्ष है कि यह कबीला राजस्थान में कहीं रहता था जिसने
कालान्तर में अपनी शक्ति के बल पर गुर्जर साम्राज्य की स्थापना की।
- भोज के
ग्वालियर लेख में प्रतिहारों को लक्षण का वंशज कहा गया है। राजशेखर भी गुर्जर
प्रतिहार राजा महेन्द्रपाल को 'रघुकुल
तिलक' कहता है ।
- अतः गुर्जर पूर्ण रूप से भारतीय
क्षत्रियों से सम्बन्धित थे । राजपूतों को विदेशी सिद्ध करने के लिये विदेशी
उत्पत्ति समर्थक विद्वानों ने कुछ अन्य तर्क भी दिये जिनका आसानी से खण्डन किया जा
सकता है।
राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति समर्थक विद्वानों के तर्क
- 1. राजपूत शब्द का प्रयोग नबी शताब्दी ई.
से पहले नहीं दिखाई देता । अतः इन्हें प्राचीनआर्यों की सन्तान नहीं माना जा सकता
वास्तव में राजपूत शब्द प्राचीन संस्कृत राजपुत्र' का अपभ्रंश है । बौद्ध धर्म के प्रचार के फलस्वरूप अनेक क्षत्रिय
वंशो ने अपना धर्मकर्म छोड़ दिया था। अतः राजपूताना में रहने वाले क्षत्रियों ने
अपनी शुद्धता और विभिन्नता को बनाये रखने के लिये ऐसे क्षत्रियों से सामाजिक
सम्बन्ध तोड़ लिये और राजपूताना के क्षत्रियों में ही विवाह सम्बन्ध कर अपने आप को
एक हक इकाई में सीमित कर लिया । राजपुत्र होने के कारण ये अपने आप को राजपूत कहने
लगे ।
- 2. कुछ पुराणों में कहा गया है कि कलियुग
में केवल दो ही वर्ण रहेंगे- ब्राह्मण और शूद्र । अतः राजपूत क्षत्रिय नहीं हो
सकते। लेकिन पुराणों का यह कथन ऐतिहासिक साक्ष्यों से सही नहीं प्रतीत होता। चीनी
यात्री हेनसांग क्षत्रिय राजवंशों का उल्लेख करता है ।
- 3. पाराशर स्मृति में राजपूत को वैश्य
पुरुष और अम्बष्ठ कन्या की सन्तान कहा गया है। लेकिन पाराशर स्मृति का यह अंश बाद में जोड़ा
गया प्रतीत होता है ।
ब्राह्मण उत्पत्ति का सिद्धान्त-राजपूतों की उत्पत्ति का मत
- भण्डारकर महोदय जहाँ कुछ राजपूत वंशों
की उत्पत्ति विदेशी गुर्जरों से मानते हैं वहाँ वे यह भी स्वीकार करते थे कि कुछ
राजपूत वंश धार्मिक वर्ग से भी सम्बन्धित थे। इस मत की पुष्टि के लिये दे विजोलिया
शिलालेख का सहारा लेते हैं जिसमें वासुदेव चहमान के उत्तराधिकारी सामन्त को वत्स
गोत्रीय ब्राह्मण कहा गया है।
- राजशेखर ब्राह्मण का विवाह चौहान राजकुमारी
अवन्तिसुन्दरी से होना भी चौहानों का ब्राह्मणों से सम्बन्ध स्थापित करता है।
- कायमखाँ रासो में भी चौहानों की उत्पत्ति वत्स से बताई गई है, जो जमदग्नि गोत्र से था।
- सुण्डा और आबू
अभिलेखों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है इसी तरह डॉ. भण्डारकर गुहिल राजपूतों की
उत्पत्ति नागर ब्राह्मण से बताते हैं ।
- डॉ. जी. एन. शर्मा यद्यपि ब्राह्मण वंशीय
उत्पत्ति को पूर्णतया स्वीकार नहीं करते लेकिन दे भी भण्डारकर के तर्क में कुछ बल
अवश्य देखते हैं।
- कुम्भलगढ़ प्रशस्ति के आधार पर वे गुहिल बापा रावल को आनन्दपुर के
ब्राह्मण वंश से सम्बन्धित करते हैं जिन्होंने मेवाड़ के नागदा नामक स्थान पर आकर
हारीत ऋषि की कृपा से शासक पद प्राप्त किया ।
- लेखों में विप्र शब्द का प्रयोग कुछ
राजपूत वंशों का ब्राह्मण होना सिद्ध करता है। भारतीय इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण
मिलते हैं जहाँ कण्व और शुंग जैसे ब्राह्मण राजवंशों ने क्षत्रिय पद को प्राप्त
किया ।
- डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा और सी. वी.
वैद्य इस ब्राह्मणवंशी मत को नहीं मानते हैं। उनका कथन है कि जो भ्रांति डॉ.
भण्डारकर को राजपूतों की ब्राह्मणों से उत्पत्ति के सम्बन्ध में हुई वह विज
ब्रह्मक्षत्री विप्र आदि शब्दों से हुई है जिनका प्रयोग राजपूतों के लेखों में हुआ
है ।
- ओझा और वैद्य का विचार है कि इनका प्रयोग क्षत्रिय
जाति की अभिव्यक्ति के लिये हुआ है न कि ब्राह्मण जाति के लिये ।
- राजपूतों की अग्निकुण्ड से उत्पत्ति के
सम्बन्ध में आसोपा जी की मान्यता है कि अग्निकुण्ड से उत्पन्न ये चारों वंश
ब्राह्मण थे जो क्षत्रिय बन गये। परमार आबू क्षेत्र के अग्नि पूजक वशिष्ठ ब्राह्मण
थे जिन्होंने क्षात्र धर्म ग्रहण किया। इसी प्रकार चालुक्य भी आग्नेय ब्राह्मण थे।
- चाहमान मूलत: शाकम्भरी क्षेत्र में रहने वाले लोगों का भौगोलिक नाम है। इस क्षेत्र
के शासक भी ब्राह्मण थे जिन्होंने स्वेच्छों से देश रक्षा के लिये क्षत्रिय धर्म
ग्रहण किया। प्रतिहारों को भी लक्षण के वंशज होने के मत को अस्वीकार करते हुए
आसोपा ने इनको प्रतिहारी ब्राह्मण कहा है जिनका तैत्तिरीय ब्राह्मण में उल्लेख है।
इस प्रकार हम श्री आसोपा के मत को माने तो हमें यह मानने को विवश होना पडेगा कि
क्षत्रिय अपने क्षात्र धर्म को भूलते जा रहे थे जिसकी जिम्मेदारी शास्त्रों ने
उन्हें सौंपी थी।
- इसीलिये ब्राह्मणों को शस्त्र उठाने को बाध्य होना पड़ा लेकिन
हमें ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता जिससे यह पता चलता हो कि तुर्की के भारत आक्रमण तक
क्षत्रियों का इतना पतन हो गया हो । अतः विद्वानों का एक वर्ग आसोपा के इन
सिद्धान्तों को स्वीकार करने को तैयार नहीं है ।
वैदिक आर्यन उत्पत्ति-राजपूतों की उत्पत्ति का मत
- राजपूतों की उत्पत्ति सम्बन्ध में जे.
एन. आसोपा ने अपने ग्रंथ Origin
of the Rajputs में
राजपूतों को वैदिक आर्यों की दो शाखाओं की सन्तान बताकर समस्या को सुलझाने का
प्रयास किया हैं। इनके अनुसार आर्यो की दो शाखायें मध्य एशिया से भारतवर्ष में आई
।
- मध्य एशिया में इनका निवास स्थल दो नदियों जैक्सटर्टीज (इक्षुवाक) तथा इली के तट
पर स्थित थे । इक्षुवाक से आने वाले आर्य भारत में सूर्यवंशी क्षत्रिय और इली से
आने वाले चन्द्रवंशी क्षत्रिय कहलाये । इस प्रकार उनके अनुसार सूर्य और चन्द्रवंशी
ये दो युद्ध प्रिय समूह थे जो मध्य एशिया से भारत में आये थे।
- श्री आसोपा के
अनुसार वैदिककालीन राजपुत्र शब्द का अपभ्रंश रूप ही राजपूत शब्द हैं। धीरे-धीरे इन
राजपुत्रो का जिसमें सामन्त और राजदरबारी शामिल थे, एक विशिष्ट वर्ग बनता जा रहा था और ब्राह्मण ग्रंथों के समय में
राजपुत्र, राजन्य और क्षत्रियों में अन्तर किया
जाने लगा ।
- बारहवीं सदी के अन्त और तेरहवीं शताब्दी ई. के आरम्भ तक राजपूत एक जाति
वर्ग बन गया था, जो स्वयं अनेक उपजातियों और वंशों में
विभक्त हो चुकी थी। इस प्रकार पश्चिमोत्तर प्रदेशों से आने वाले आर्य तथा विदेशी
जातियों ने भारत में राज्य स्थापित कर राजपूत जाति के रूप में संगठित होकर वैदिक
आर्यों से अपना सम्बन्ध सूर्य या चन्द्रवंशी बनकर स्थापित कर लिया। लेकिन थी आसोपा
द्वारा साहित्य और अभिलेखों में उपलब्ध शब्दों की व्याख्या संदेह उत्पन्न करती है
और अनेक विद्वान उनके इस मत से सहमति प्रकट नहीं करते ।
- सी. वी. वैद्य और गौरी शंकर हीरानन्द
ओझा ने राजपूतों को भारतीय आर्यों की सन्तान माना है । उनका कथन है कि समस्त राजपूत
परम्पराओं में राजपूतों को क्षत्रिय ही माना गया है।
- प्रतिहार अपने आप को सूर्यवंशी क्षत्रिय मानते
हैं। ग्वालियर अभिलेख में भी उन्हें लक्षमण की सन्तान कहा गया है । हेनसांग भी चालुक्य नरेश पुलकेशी
द्वितीय को क्षत्रिय बताता है। हम्मीर महाकाव्य में चाहमानों को सूर्य पुत्र कहा गया है।
- पृथ्वीराज
रासो में भी 36 राजपूत कुलों को सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी और यदुवंशी कहा गया हैं । अत्यन्त प्राचीनकाल से
राजपुत्र शब्द का प्रयोग क्षत्रिय के लिये ही हुआ है।
- महाभारत में द्रौपदी को राजपुत्री कहा है। शरीर
रचना की दृष्टि से भी राजपूत आर्य प्रतीत होते हैं। राजपूतों में व्यापत प्रथायें यज्ञ, मदिरापान, अश्व पूजा, शस्त्र पूजा, स्त्रियों का सम्मान, युद्ध प्रेम भारतीय क्षत्रियों में
वैदिक काल से ही पाई जाती है । इन प्रथाओं को विदेशी बताना असंगत है ।
राजपूतों की उत्पत्ति से सम्बन्धित मत का सारांश
- राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में
उपयुक्ति सर्वक्षण और विभिन्न विद्वानों द्वारा व्यक्त किये गये विचारों से हम
किसी अंतिम निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाते। डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने Rajasthan Studie में प्रकाशित एक शोध लेख Origin of Rajputs तथा अपने ग्रंथ राजस्थान का इतिहास में
इस सब चर्चा का सारांश बताते हुए कहा है।
- "सारांश यह है कि जिस तरह शंक, पल्हव, हूण आदि विदेशी यहाँ आये और जिस तरह उनका विलीनीकरण भारतीय समाज में
हुआ इसका साक्षी इतिहास है। ये लोग लाखों की संख्या में थे । पराजित होने पर इनका
यहाँ बस जाना प्रामाणिक है। ऐसी अवस्था में उनका किसी न किसी जाति से मिल स्वभाविक
था । उस समय की युद्धोपजीवी जाति ही ऐसी थी जिसने इन्हें दबाया और उन्हें समानशील
होने से अपने में मिलाया। इसी तरह छठी व सातवीं शताब्दी में क्षत्रियों और
राजपूतों का समानार्थ में प्रयुक्त होना भी यह संकेत करता है कि इन विदेशियों के
रक्त में मिश्रित जाति ही राजपूत जाति थी जो यकायक क्षात्र धर्म से सुसज्जित होकर
प्रकाश में आई और शकादिकों का अस्तित्व समाज हो । गया । यह स्थिति सामाजिक उथलपुथल
की पोषक है ।"
- ब्राह्मण लोग भी सत्तासीन होने के कारण क्षत्रिय की संज्ञा
देकर इनको स्वीकार करने लगे और इन्हें राजपुत्र की प्रतिष्ठा देकर सम्मानित किया और
लौकिक भाषा में राजपूत कहने लगे। लेकिन फिर भी डी. शर्मा यह मानते है कि सम्भवतः
सभी क्षत्रियों का विदेशियों से सम्पर्क न हुआ हो और कुछ वंशो ने अपना स्वतन्त्र
अस्तित्व बनाये रखा हो जिनका इस विदेशी उत्पत्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है ।