राजस्थान के प्रमुख जनपद एवं गण जाति |आर्जुनायन राजन्य आभीर शूद्रगण शिबि उदिहिक शाल्व जनपद | Rajsthan Ke Pramukh Gan Janpad - Daily Hindi Paper | Online GK in Hindi | Civil Services Notes in Hindi

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शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024

राजस्थान के प्रमुख जनपद एवं गण जाति |आर्जुनायन राजन्य आभीर शूद्रगण शिबि उदिहिक शाल्व जनपद | Rajsthan Ke Pramukh Gan Janpad

राजस्थान के प्रमुख जनपद एवं गण आर्जुनायन राजन्य आभीर शूद्रगण शिबि उदिहिक शाल्व जनपद

राजस्थान के प्रमुख जनपद एवं गण जाति |आर्जुनायन राजन्य आभीर शूद्रगण शिबि उदिहिक शाल्व जनपद | Rajsthan Ke Pramukh Gan Janpad



आर्जुनायन प्राचीन गण जाति

 

  • आर्जुनायन भी एक प्राचीन गण जाति थी । उनका पाणिनि की अष्टाध्यायी, पतंजलि के महाभाष्य तथा महाभारत में उल्लेख मिलता है। गण पाठ में उनका उल्लेख राजन्य के साथ किया गया है। ऐसा माना जाता है कि आर्जुनायन एक नवीन समुदाय था और उसकी स्थापना शुंगों के बाद हुई थी । 
  • शकों और कुषाणों को पराजित करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी । समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति में उनका उल्लेख गुज साम्राज्य के सीमान्त क्षेत्र के निवासियों के संदर्भ में आता है। इस प्रकार यौधेयों 380 ई. तक वर्तमान थे। उन्होंने 100 ई.पू. के आसपास अल्प मात्रा में सिक्के चलाये थे । 
  • अन्ततः दे राजपूताना में निवास करने लगे थे। इनका निवास स्थान आगरा और मथुरा के पश्चिमी भाग में भरतपुर और अलवर क्षेत्र में था। वे स्वयं को पाण्डव राजकुमार अर्जुन का वंशज मानते थे । 
  • पाणिनि की अष्टाध्यायी में आर्जुनको का उल्लेख मिलता है जो वासुदेव के उपासक थे अतः उन्हें वासुदेवक कहा जाता था। डी.सी. शुक्ल के अनुसार आर्जुनायन तथा प्रराग प्रशस्ति के आर्जुन सम्मदतः प्राचीन आर्जुनकों की शाखा थी। बुद्ध प्रकाश का मत है कि आर्जुनायन सीथियन जाति से सम्बन्धित थे । 


आर्जुनायनों की मुद्राएँ

  • शरथ शर्मा के अनुसार उन्होंने शकों तथा कुषाणों के विरूद्ध मालवों से मिलकर संघर्ष किया था । इनकी मुद्राएँ धातु निर्मित हैं। उन पर आर्जुनायना जय अंकित हैं जिसका तात्पर्य है आर्जुनायनों की जय हो। ये मुद्राएँ उत्तर क्षत्रपों, यौधेयो, औदश्वरों तथा राजन्यों के सिक्के जैसे हैं तथा उन पर ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया गया है। 
  • कनिंघम ने प्राचीन सतलज के किनारे पर स्थित अजुधन नामक स्थान उनकी स्मृति को जीवित रखे हुए हैं। 
  • आर्जुनायनों की मुद्राओं पर एक खड़ी हुई आकृति तथा कूबडूबवाला वृषभ, हाथी तथा ऊँट का अंकन प्रमुख रूप से है। मैकिण्डल का मत है कि यूनानी लेखकों ने जिस अगलसी या अगलसोई जाति का उल्लेख किया है वे अर्जनायन ही थे।

 

राजन्य जनपद

  • राजन्य राजन्य एक प्राचीन जनपद था। उनका उल्लेख पाणिनि की अष्टाध्यायी पंतजलि के महाभाष्य और महाभारत में प्राप्त होता है। पाणिनि के अनुसार अंधकवृष्णियों के दो राज्य थे। काशिका के अनुसार राजन्य ऐसे परिवारों के नेता थे जो शासन करने हेतु चिह्नित किये गये थे। 
  • हम जानते हैं कि अंधकवृणि एक संघ था तथा इस संघ में कार्यपालिका की शक्ति दो राजन्यों में निहित थी । इनका विधिवत चुनाव होता था। रण संघों में गण व राजन्य दोनों के नाम से सिक्के ढाले जाते थे । उनके कुछ सिक्कों पर केवल राजन्य नाम ही मिलता है। 
  • स्मिथ ने इनके सिक्कों की व्याख्या करते हुए उन्हें क्षत्रिय देश के सिक्के माना था जबकि काशीप्रसाद जायसवाल का मत था कि राजन्य एक स्वतन्त्र राजनीतिक इकाई थे। उनकी मुद्राएँ 200 से 100 ई.पू. के मध्य जारी की गई थी। स्मिथ ने राजन्यों का क्षेत्र मथुरा, भरतपुर तथा पूर्वी राजपूताना स्वीकार किया था। 
  • काशीप्रसाद जायसशल को उनके सिक्के होशियारपुर जिले के मनसवाल से प्राप्त हुए थे। इसलिए उन्होंने होशियारपुर उनका मूल निवास स्थान माना है। राजन्यों की मुद्राओं तथा मथुरा के उत्तरी शकों की मुद्राओं में काफी समानता है। 
  • उन पर ब्राह्मी तथा खरोष्ठी में लेख उत्कीर्ण है। सिक्कों पर एक मानव आकृति अंकित हो जो शायद कोई देवता है, जिसका दायाँ हाथ ऊपर उठा हुआ है। इन पर खरोष्ठी में राजन जनपदस' उत्कीर्ण है । 
  • उनके इस प्रकार के सिक्कों पर कूबडवाला बैल अंकित है एवं उन पर ब्राह्मी लेख उत्कीर्ण है । इसके अलाबा उनकी मुद्राओं पर वृक्ष एवं चीते का अंकन भी मिलता है। डी.सी शुक्ल का मत है कि राजन्य गुंगकाल में उत्तरी और उत्तरी पश्चिमी राजस्थान आये थे ।

 

आभीर गण 

  • शुंग कुषाण काल में जिन गणों का उत्कर्ष हुआ उनमें आभीर गण भी प्रसिद्ध है । आभीरों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विवाद है। कुछ विद्वान उन्हें विदेशी उत्पत्ति का मानते हैं । वे पाँचवी शती ई. पू. के आसपास पंजाब से निर्वासित हो गये थे तथा वहाँ से पश्चिमी मध्य तथा दक्षिणी भारत चले गये । बुद्ध प्रकाश के अनुसार आभीरों का सम्बन्ध पश्चिमी एशिया के अपिरु नामक स्थान से था । 
  • महाभारत मैं भी आभीरों का उल्लेख मिलता है। इस विवरण में कहा गया है कि आभीरों के अपवित्र स्पर्श से सरस्वती नदी विनशन नामक स्थान पर लुप्त हो गई थी। इसका अर्थ यह लिया जाता है कि कुरुक्षेत्र के आसपास कुरुओं की शक्ति क्षीण हो गई थी। महाभारत के अनुसार आभीरों ने अर्जुन को जब वह महाभारत के युद्ध के पश्चात् द्वारका लौट रहा था, पराजित किया था। 
  • पुराणों में आभीरों को चतुर, म्लेच्छ तथा दस्यु की तरह अभिहित किया गया है। परवर्ती काल में आभीर दक्षिणी पश्चिमी राजस्थान में अवस्थित हो गये इसकी सूचना यूनानी लेखकों से भी प्राप्त होती है । टॉलेमी ने आभीरों का वर्णन अबीरिया नाम से किया है, जिन्हें सामान्य भाषा में अहीर कहा जाता है । 
  • अभिलेखीय प्रमाणों के अनुसार बे पश्चिमी भारत में शासन करते थे, इन्होंने प्रतिहारों पर आक्रमण किया था । 
  • आभीरों का मण्डोर के कक्कुक से 861 ई. में युद्ध हुआ था। कक्कुक ने उन्हें पराजित किया था। आभीरों पर विजय के उपलक्ष में घटियाला में स्तम्भ स्थापित किया गया था। मार्कण्डेय पुराण में आभीरों को दक्षिण भारत का निवासी कहा गया है। हेमचन्द्र रायचौधरी के अनुसार वे उत्तरी महाराष्ट्र में शासक थे ।

 

शूद्रगण-राजस्थान

 

  • यहाँ शूद्र अथवा शूद्रयाण का तात्पर्य वर्ण व्यवस्था के चतुर्थ वर्ण से भिन्न है। सिकन्दर ने जब भारत पर आक्रमण किया तब यह उत्तरी पश्चिमी भारत की प्रमुख जनजाति थी। यूनानी लेखकों ने इसका विवरण सोग्दी, सोद्र, सोग्द्री सोगदोई नाम से किया है। इसको मस्सनोई से भी संबन्धित किया जाता है। 
  • संस्कृत साहित्य में उनका नाम आभीरों के विवरण के साथ आया है। महाभारत के अनुसार शूद्रों और आभीरों के क्षेत्र में सरस्वती विलुप्त हो गई थी। पुराणों में शूद्रों को उदिच्य निवासी कहा गया है। सम्भवतः उनका प्रारम्भिक मूल निवास उत्तरी-पश्चिमी भारत में था। 
  • वायुपुराण, कूर्म पुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराण से भी यही सूचना मिलती है। अर्थवेद में एक शूद्र स्त्री का मूजवन्त तथा बालक के साथ वर्णन मिलता है। सभी विवरणो में शूद्रों का सन्बन्ध उत्तरी-पश्चिमी भारत से बतलाया गया है यूनानी लेखक डायोडोरस के अनुसार सिकन्दर ने साई गण में अलेक्जेण्ड्रिया नामक नगर को स्थापित किया था एवं उस नगर में 10,000 व्यक्तियों को बसाया गया था। सम्भवतः किसी समय इस गण के निवासी राजस्थान में पलायन करके आये होंगे ।

 

शिबि जनपद

 

  • मौर्यो के बढ़ते हुए प्रभाव सिकन्दर के आक्रमण और इण्डो-यूनानियों के आक्रमण से बाध्य होकर कई गण जातियाँ पंजाब छोड़कर राजस्थान आई थीं। उनमें से शिवि गण के लोग मेवाड़ के नगरी नामक स्थान पर राजस्थान में स्थानान्तरित हुए । काशीप्रसाद जायसवाल का मत है कि गण जातियों का पलायन उनका स्वतन्त्रता के प्रति प्रेम प्रदर्शित करता है । 


  • यूनानी क्लासिकल लेखकोंकर्टिअस, स्ट्रेबो तथा एरियन के अनुसार चौथी शताब्दी ई. पू. में सिकन्दर के स्वदेश लौटते समय सिब्रोई (शिबि) जनजाति द्वारा उसके मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया गया था। एरियन के अनुसार शिबिजन के निवासी वीर और साहसी थे। उनके पास 40 हजार पदाति तथा 3000 घुडसवार सैनिक थे । वे जंगली जानवरों की खाल पहनते थे और उनकी युद्ध पद्धति बिचित्र थी । युद्ध में वे गदा और लाठियों का प्रयोग करते थे। क्लासिकल लेखकों के विवरण से तो ऐसा लगता है कि शिबि जाति के लोग असभ्य तथा बर्बर थे । सम्भवतः यह विवरण उनके पंजाब निवास का है जबकि राजस्थान के शिबि सुसंस्कृत और संस्कार सम्पन्न थे ।

 

  • शिबि जाति का उल्लेख ऋग्वेद में अलिनों, पक्यों, भलानसो, और विषणियो के साथ आया है जिन्हें सुदास ने पराजित किया था। ऐतरेय ब्राह्मण में शिबि राजा अमित्रतनय का उल्लेख आया है । 
  • महात्मा बुद्ध (महाजन पदयुग) के समय के सोलह महाजन पदों की सूची जो अंगुत्तरनिकाय में मिलती है उसमें शिबि जनपद का उल्लेख नहीं है परन्तु महावस्तु में बुद्ध ज्ञान को जिन देशों और जनपदों में वितरित किये जाने की बात कही गई है उनमें शिवि देश सम्मिलित है। महावस्तु की सूची में गन्धार और कम्बोज जनपदों का नाम न देकर उसकी जगह शिबि और दर्शाण का नाम मिलता है। 
  • बिनयपिटक के अनुसार शिबि देश बहुमूल्य और सुन्दर दशालों के लिये प्रसिद्ध था। अवन्ती नरेश चण्ड प्रद्योत ने शिबि देश का दशाले जोडा बैद्य जीवक को भेंट किया और उसने उसे भगवान् बुद्ध को अर्पित कर दिया । उम्मदन्ती जातक से ज्ञात होता है कि शिबियों के राज्य में शिबि धर्म नामक नैतिक विधान प्रचलित था जिसका पालन करना राज्य के प्रत्येक नागरिक का कर्त्तथ था। शिबि जातक, उम्मदन्ती जातक और वेस्सन्तर जातक में शिबिदेश तथा उसके राजाओं का वर्णन मिलता है ।

 

  • पाणिनि ने उशीनर का बाहीक जनपद नाम से उल्लेख किया है। उसनो शिबि का कहीं उल्लेख नहीं किया है। सम्भवतः बाद में उशीनर शिबि कहे जाने लगे महाभारत के वन पर्व में शिबि राष्ट्र और उसके राजा उशीनर का उल्लेख मिलता है। नन्दलाल दे ने महाभारत के इस शिबि राज्य को स्वात घाटी में स्थित बताया है। महाभारत में शिबि औशीनर के बाज हेतु बलिदान की कथा बडी लोकप्रिय है। फाहियान के अनुसार यह घटना उद्यान के दक्षिण या आधुनिक स्वात घाटी में घटी थी। महाभारत बाली शिबि राजा की कथा शिबि जातक में मिलती है। 


  • इस प्रकार पालि साहित्य के शिबि देश की राजधानी स्वात घाटी मानकर उसे वर्तमान सीवी (विलोचिस्तान) के आसपास माना जा सकता है या पश्चिमी पंजाब के शोरकोट के आसपास का प्रदेश और उसकी राजधानी अरिथपुर को शिदापुर से मिला सकते हैं। लेकिन वेस्सन्तर जातक में जेतुतर को शिबि राज्य की राजधानी बतलाया गया है। यह बुद्धकालीन 20 बड़े नगरों में एक नगर था। बेस्सन्तर जातक में जेत्तुर को चेतरह के मातुल नगर से 30 योजन की दूरी पर बताया गया है। नन्दोलाल दे ने जेतुतर को आधुनिक चित्तौड़ से 11 मील उत्तर में स्थित नगरी नामक स्थान से अभिन्न माना है। अलबरूनी ने जिस जत्तररूर या जत्तरौर का उल्लेख किया है बह कुछ विद्वानों के अनुसार जेत्ततुर ही है। यह सम्भावना है कि बुद्धकालीन जेत्रातर से बिगडकर वर्तमान चित्तौड़ बना हो । नगरी में बहुत सी ताम्र मुद्राएँ मिली हैं जिन पर मज्जिमिका य सिवि जनपदस लिखा हुआ है । इससे स्पष्ट है कि चित्तौड़ के समीप मध्यमिका में भी शिबि लोगों का जनपद था । 
  • अत: जिस शिबि राज्य की राजधानी वेस्सन्तर जातक में जेतुतर नामक नगरी बतलाई गई है उसे भरतसिंह उपाध्याय (बुद्धकालीन भारतीय भूगोल) ने चित्तौड़ (राजस्थान) के आसपास का क्षेत्र माना है। इस प्रकार पालि साहित्य के आधार पर हमें शिबि लोगों के दो निवास स्थान मानने पडेंगे एक स्वात घाटी में और दूसरा चित्तौड़ के आसपास दशकुमारचरित से ज्ञात होता है शिबि जाति का एक जनपद दक्षिण में कावेरी नदी के तट पर भी स्थित था। 

 

  • महाभारत में शिबियों के पंजाब से राजस्थान स्थानान्तरित होने का प्रमाण उपलब्ध है। सभापर्व में शिबि, मालव और त्रिगर्त का एक स्थान पर मरु (राजस्थान) क्षेत्र में उल्लेख आया है। ऐसा प्रतीत होता है कि शिबि गण मध्यमिका में महात्मा बुद्ध के समय विद्यमान था। 
  • 200 ई. पू. से 200 ई. के मध्य वहाँ लोग पंजाब से आये होंगे। शिबि जाति का राजस्थान में पदार्पण सिकन्दर के आक्रमण के बाद न होकर इण्डो-यूनानी आक्रमण के पश्चात् होना अधिक तर्कपूर्ण है। पुष्यमित्र शुंग द्वारा इण्डो-यूनानी आक्रमण के बाद शिवि जाति लगभग 187 ई.पू. मध्यमिका में आकर पूर्णतया बस गई होगी। इसकी पुष्टि उनकी मुद्राओं से होती है। 
  • प्रसिद्ध विद्वान एच.डी. सांकलिया ने नगरी से शिबिगण के 16 सिक्के एकत्रित किये थे जिससे संकेतित है कि यह क्षेत्र शिबिगण के अन्तर्गत था। शिबियों की मुद्राओं का श्रीमती शोभना गोखले तथा एस. जे. मंगलम् ने अध्ययन किया था ।

 शिबि- मुद्रा

  • शिबि- मुद्राओं पर सामान्य रूप से स्वस्तिक का वृषभ के साथ संयुक्त रूप से अंकन उसके चारों कोनों पर हुआ है। इन मुद्राओं पर वृक्ष का अंकन भी मिलता है। वृक्ष पूर्ण चक्र में उत्पन्न होता हुआ प्रदर्शित किया गया है। सिक्के के अग्रभाग पर अर्ध वर्तुलाकार उपाख्यान उत्कीर्ण है और छ: मेहराब युक्त पहाड़ के चिहन का भी अंकन है। कुछ सिक्कों पर पहाडी संरचना के ऊपर अलंकरण युक्त नन्दीपद है तथा पहाड़ी के नीचे नदी का अंकन सिक्कों के पृष्ठ भाग पर किया गया है। वृक्ष अंकन की परम्परा शिबिगण के सिक्कों में अन्य गणों के सिक्कों से भिन्न है। अन्य गणों के सिक्कों में ट्री इन रेलिंग ' के विपरीत शिबि गण के सिक्के में वृक्ष वृत्ताकार या चक्राकार रचना के ऊपर अथवा उसमें से उत्पन्न होते हुए दिखलाया गया है। 

 

  • सांकलिया को प्राप्त सिक्कों में से एक सिक्के पर वृक्ष का चित्र नहीं है तथा उसके पृष्ठ भाग पर कोई अंकन नहीं है। इस पर केवल उपाख्यान ही अंकित किया गया है। इसी प्रकार यहाँ से प्राप्त एक अन्य सिक्के के अग्रभाग पर सामान्य रूप से अंकित आठ या दस शाखाओं के वृक्ष और वृषभ युक्त स्वस्तिक के स्थान पर केवल वृक्ष की छोटी सी शाखा ही उत्कीर्ण है। इसमें कोई वर्तुलाकार संरचना भी नहीं है। वैसे वृषभ युक्त स्वस्तिक या वृषभयुक्त क्रास की संख्या शिबिगण की मुद्राओं की विशेषता थी । कनिंघम छ: मेहराबयुक्त पहाड़ को जो एक विस्तृत नन्दीपद से ढका हुआ है उसे धर्मचक्र मानते हैं। रोशनलाल सागर को प्राप्त शिबिगण के सिक्के पर नन्दीपद के आधार पर विद्वान शिबियों को शैव धर्मावलम्बी मानते हैं। 

 

पश्चिमी क्षत्रपों के सिक्कों को देखने से ऐसा लगता है कि मेहराब, पहाड, नदी का अंकन मानो उन्होंने शिबियों की नकल करके किया था ।

 

शिबियो की मुद्राओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि-

 

(1) सभी मुद्राएँ 1.5 सेमी. से 200 से.मी. व्यास की हैं । 

(2) इनकी मोटाई 0.1 सेमी. से 0.3 से.मी. के मध्य की है । 

(3) इनका भार 1.865 ग्राम से 6.442 ग्राम के मध्य है । 

(4) इनके अग्रभाग पर (10 सिक्कों पर) स्वस्तिक चिहन, 15 पर वृषभ अंकन, 16 पर वृक्ष का अंकन है। इन सिक्कों पर उपाख्यान शिबि, शिबिजनपदस्य, झामिकया, शिबिजा मझमिकय शिबिज उत्कीर्ण किया गया है। 13 सिक्कों पर मेहराब, पहाडी, नदी का अंकन है। एक सिक्के के पृष्ठ भाग पर रूभयुक्त स्वस्तिक चिहन है। पीच सिक्के दूषित या बिगड़े हुए हैं ।

 

  • शिबियों के सिक्कों के भार में अन्तर बतलाता है कि मुद्रा निर्माण पर कोई केन्द्रीय नियन्त्रण नहीं था । कुछ सिक्के घिस गये तो भी चलन में थे जो मुद्रास्फीति फैलने का प्रमाण है । 

  • नगरी (चित्तौड) से एक अभिलेख मिला था जिसे 200 ई.पू. से 150 ई. पू. का माना जाता।  है। इस अभिलेख के अनुसार एक पाराशर गौत्रीय महिला के पुत्र गज ने पूजा शिला-प्राकार का नारायण वाटिका में संकर्षण और वासुदेव की पूजा के लिये निर्माण करवाया था। नगरी के ही हाथी बाड़ा के ब्राह्मी अभिलेख से ज्ञात होता है कि प्रस्तर के चारों ओर दीवार का निर्माण नारायण वाटिका में संकर्षण और वासुदेव की पूजा के लिये सर्वतात जो गाजायन पाराशर गौत्रीय महिला का पुत्र था ने बनवाया तथा उसने अवश्मेघ यज्ञ भी किया। डी. आर. भण्डारकर के अनुसार उपर्युक्त अभिलेख से सिद्ध होता है कि दक्षिणी राजस्थान में उन दिनों भागवत धर्म प्रचलित था। 

 

  • वासुदेव कृष्ण का अब नारायण से तादात्मय स्थापित हो चुका था। इस प्रकार लगभग 200 ई.पू. से 100 ई.पू. के मध्य मध्यमिका क्षेत्र जो शिबिगण के अधीन था वहाँ संकर्षण वासुदेव की पूजा प्रचलित थी । इसके पश्चात् शिबियों का विवरण बृहद्संहिता तथा दशकुमारचरित तथा दक्षिण भारत के अभिलेखों में मिलता है। इसलिये ऐसा प्रतीत होता है कि 200 ई.पू. शिबियों का नगरी पर अधिकार था। बाद में वहाँ पश्चिमी क्षत्रपों के उत्थान के बाद बे लगभग 200 ई. के आसपास नगरी से भी पलायन करके दक्षिणी भारत में चले गये होंगे ।

 

उदिहिक जनपद

 

  • यह जनपद राजन्य जनपद से अधिक दूर नहीं था। वराहमिहिर ने उन्हें मध्यदेश निशसी माना है। अलबरूनी ने उन्हें भरतपुर के निकट बजाना का मूल निवासी कह कर पुकारा है। कुछ मुद्राएँ जिन पर उदिहिक तथा सूर्यमित्रस नाम उत्कीर्ण है, प्राप्त हुई है। सम्भवतः उदिहिक जनपद की मुद्राएँ प्रथम शती ई.पू. के मध्य में कभी जारी की गई थी। अतः स्पष्ट है कि उदिहिक जनपद शुंगकाल में अवतीर्ण हुआ था ।

 

शाल्व जनपद

 

  • राजस्थान में प्राचीन शाल जाति का भी विभिन्न स्थानों पर शासन था। महाभारत में शाल्वपुत्र में की चर्चा मिलती है । आधुनिक अलवर उसी का बिगड़ा हुआ स्वरूप है। शाल्व जाति मत्स्य के उत्तर में ही बीकानेर में निवास करती थी। इसी प्रकार उत्तमभद्र जिन्होंने शक सेनापति उषवदात्त से संघर्ष किया था इसी परिवार का अंग था जिनका निवास स्थल बीकानेर राज्य के पूर्वी भाग में स्थित भाद्रा को माना जाता है । इनके पश्चिम में सार्वसेनी या शाल्वसेनी रहते थे। काशिका में उन्हें शुष्क क्षेत्र का निवासी कहा गया है। डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार अरावली के उत्तर पश्चिम में भूलिंग जाति के लोग रहते थे वे भी सम्भवतः शालों की ही शाखा थे। शालों का अपने समय में राजस्थान के बड़े भू-भाग पर प्रभाव था ।