राजस्थान की प्रमुख गणजातियों का ऐतिहासिक विवरण |मालव जाति का इतिहास | Malav Ka Itihaas - Daily Hindi Paper | Online GK in Hindi | Civil Services Notes in Hindi

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शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024

राजस्थान की प्रमुख गणजातियों का ऐतिहासिक विवरण |मालव जाति का इतिहास | Malav Ka Itihaas

 राजस्थान की प्रमुख गणजातियों का ऐतिहासिक विवरण

राजस्थान की प्रमुख गणजातियों का ऐतिहासिक विवरण |मालव जाति का इतिहास | Malav Ka Itihaas


 

मालव जाति का इतिहास 

  • मालव मालव जाति ने प्राचीन भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निबाही है। इस जाति का मूल निवास स्थान पंजाब था, बही से इसका प्रसार उत्तरी भारत राजस्थान, मध्य भारत, लाट देश, वर्तमान में भड़ौच, कच्छ, बड़नगर तथा अहमदाबाद में हुआ और अन्त में मालवा में इस जाति ने अपने राज्य की स्थापना की। 


  • मालवो का सर्वप्रथम उल्लेख पाणिनि की अष्टाध्यायी में मिलता है । मालवों ने अपने गणस्वरूप को 600 ई.पू. से 400 ई. तक बनाये रखा समुद्रगुप्त द्वारा पराजित मालवों ने अब गणशासन पद्धति को त्याग कर एकतन्त्र को स्वीकार कर लिया। उन्होंने दशपुर मध्यमिका (चित्तौड) क्षेत्र में औलिकर वंश के नाम से शासन किया।


  • पाणिनि के अनुसार मालव और क्षुद्रक वाहीक देश के दो प्रसिद्ध गणराज्य थे। दोनों की राजनीतिक सत्ता और पृथक् भौगोलिक स्थिति थी। युद्ध के समय ये दोनों गण मिलकर साथ लड़ते थे। इस संयुक्त सेना की संज्ञा क्षौद्रक मालवी थी। सिकन्दर के आक्रमण के समय मालव-क्षुद्रक गणों की सेना को साथ-साथ लडना था परन्तु सेनापति के चुनाव को लेकर उनमें मतभेद उत्पन्न हो गया। डायोडोरेस के अनुसार उन्होंने शत्रु का अलग-अलग मुकाबला किया । पाणिनि ने दोनों जातियों को आयुधजीवी संघ कहकर पुकारा है। उन दिनों दे समृद्ध दशा में थे, भण्डारकर के अनुसार यूनानी लेखकों के द्वारा वर्णित ऑक्सिद्रकाई क्षुद्रक ही थे। 


  • पतंजलि के महाभाष्य तथा जैन ग्रन्थ भगवतीसूत्र में मालवों का उल्लेख मिलता है। सिकन्दर के आक्रमण के पूर्व वे पंजाब में स्थित थे। स्मिथ के अनुसार मालव झेलम और चिनाब के संगम के निचले भाग में निवास करते थे। मैक्रिण्डल का मत है कि चिनाब और रावी के मध्य का मैदानी भू-भाग जो सिन्धु और चिनाब के संगम तक फैला हुआ था मालवों के अधीन था।


  • हेमचन्द्र रायचौधरी मालवों को निचली रावी घाटी में नदी के दोनों किनारों पर अवस्थित मानते हैं। एरियन के अनुसार मालव क्षुद्रकों के साथ सिकन्दर के विरुद्ध संघ निर्मित करने को सहमत हो गये थे परन्तु शत्रु का आक्रमण अकस्मात हो जाने के कारण दोनों गणों को शत्रु के विरुद्ध कार्यवाही करने का अवसर नहीं मिला। इस विस्मयकारी आक्रमण से मालव पराजित हुए। मालवों ने अपने किलानुमा नगरों से निरन्तर संघर्ष किया परन्तु सदैव पराजित हुए। 


  • मालवों ने समर्पण करने की अपेक्षा नगरों को त्याग कर वनों और रेतीले क्षेत्र में निवास करना उचित समझा मैक्रिण्डल का मत है कि मालवों के आक्रमण में स्वयं सिकन्दर भी घायल हो गया था तब उसने उनकी स्त्रियों और बालक-बालिकाओं का संहार करने का आदेश तक दे दिया था। लेकिन मालव निराश नहीं हुए। 
  • एरियन की मान्यता है कि सिकन्दर ने गालवों को बुलाकर उनसे सन्धिवार्ता की थी जिसमें वे सफल हुए। मालवों तथा क्षुद्रकों की संयुक्त सेना में 90,000 या 80,000 पदाति, 10,000 घुड़सवार, 900 या 700 रथ थे कर्टियस के अनुसार मालवों ने सिकन्दर को कुछ बहु मूल्य वस्तुएँ तथा घोडे और रथ भेंट किये थे। 


  • संस्कृत साहित्य में मालदों के शारीरिक गठन का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि दे असाधारण कद काठी के थे। इनकी लम्बाई 104 अंगुल अथवा 6 फीट 4 इंच के लगभग होती थी । कौटिल्य ने गणों के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखने की सलाह अर्थशास्त्र में दी है। इससे प्रतीत होता है कि मौर्यकाल में भी गणजातियों ने अपनी स्वतन्त्रता बनाए रखी थी। 
  • यद्यपि कौटिल्य की सूची में मुद्रक, कुकुर, कुरु, पाचाल आदि पंजाब या मध्य देश की गणजातियों का उल्लेख मिलता है मालवों का नहीं। इसलिए इस बात की सम्भावना है कि मौर्यकाल या शुंगकाल में मालवों ने अपना मूल निवास स्थान छोड़ दिया और राजपूताना की ओर पलायन कर गये। इस बात की पूर्ण सम्भावना है कि पलायन काल में मालव और क्षुद्रकों में समागम हो गया इसलिये बाद में क्षुद्रकों का उल्लेख नहीं मिलता है। 
  • जायसवाल का मत है कि मालवों ने भटिण्डा के मार्ग से राजपूताना में प्रवेश किया। इसकी पुष्टि करते हुए उन्होंने लिखा है कि वर्तमान में भी मालवी बोली फिरोजपुर से भटिण्डा तक बोली जाती है। 
  • प्रारम्भ में मालवों के पंजाब तथा राजपूताना में निवास करने की जानकारी महाभारत में भी उपलब्ध है। एरियन ने लिखा है कि अर्कीसनेज (चेनाब) मल्लोई अर्थात् मालवों के अधीन क्षेत्र में सिन्धु में जाकर मिलती है। इस प्रकार मल्ल (मालव) जाति चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक के राज्यकाल तक तो पंजाब में रही। मौर्य साम्राज्य के निर्बल होने तथा उस पर इण्डो ग्रीक आक्रमण होने पर वह पंजाब छोड़कर राजस्थान में आ गई। उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार मालव सर्वप्रथम पूर्वी राजस्थान में आकर बसे थे। विभिन्न साक्ष्यों से संकेतित है कि यह स्थान टोंक जिले का नगर या कर्कोट नगर नामक स्थान था जो आधुनिक राजस्थान के निर्माण से पूर्व उणियारा ठिकाने के अन्तर्गत आता था।

 

  • इस स्थल की खोज 1871-72 ई. में सर्वप्रथम कार्लाइल ने की थी। उन्हें यहाँ से 6000 ताम्र मुद्राएँ प्राप्त हुई थी। उनमें से 110 मुद्राएँ इण्डियन म्यूजियम कलकत्ता में संगृहीत की गई थीं । उन मुद्राओं का अध्ययन बिन्सेण्ट स्मिथ ने किया था। डॉ. स्मिथ का विचार था कि इन सिक्कों में से 35 सिक्के ऐसे थे जो बाहर से लाये गये और शेष 75 सिक्के नगर में ही ढाले गये थे ।

 

  • कार्लाइल ने इन सिक्कों का अध्ययन करके 40 मुख्य नामों की पहचान की थी उनमें से 20 तो मालवगण प्रमुखों के नाम हैं। इन मुद्राओं पर ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया गया था और उनका निर्माण काल मुद्राशास्त्रियों ने द्वितीय शताब्दी ई.पू. से चतुर्थ शताब्दी ई. के मध्य माना है। इन मुद्राओं की लिखावट में कम अक्षरों का प्रयोग किया गया है। इनका भार तथा आकार भी न्यूनतम है। गण प्रमुखों का नाम लिखने में भी लिपिक्रम एक समान नहीं रखा गया है। कुछ सिक्कों पर ब्राह्मी वर्ण इस प्रकार लिखे गये हैं कि उनको बाँये से दाएँ पढ़ना पड़ता है।

 

  • मालव आर्थिक दृष्टि से समृद्ध थे। कर्कोट नगर से मुद्राओं के अलावा मन्दिर, बाँध, तालाब तथा माला की मणियाँ उत्खनन में प्राप्त हुई हैं।

 

  • जयपुर नगर से 56 मील की दूरी पर स्थित रेढ़े से भी मलावों के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है। रेढ़े तीसरी शती ई.पू से द्वितीय शताब्दी ई. तक आबाद रहा था। उस समय यहाँ मालव निवास कर रहे थे । यहाँ से मालवों की मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं। है से 2 खाई से एक लेड सील प्राप्त हुई थी जो मालवगण से सम्बंधित है। उस पर ब्राह्मी में लिखा हुआ है। लेड सील पर (मा.) लव-ज-ज.प. द उत्कीर्ण है जिसे द्वितीय शताब्दी ई.पू का माना जाता है। यह सील राज्य के अधिकारी काम में लेते थे। रेढ़ से 300 मालवगण के सिक्के प्राप्त हो चुके हैं। मालव सिक्कों की विशेषताएँ निम्न रूप में कही जा सकती है.

 

  • मालव सिक्के गोलाकार थे। इन पर मालव नाम अथवा मालवानाम् जय लिखा हुआ था। कुछ मुद्राओं पर लेख मुद्राओं के पृष्ठ भाग पर लिखा है। सिक्कों पर उज्जैन चिहन, सांप, लहरदार नदी नन्दिपाद, त्रिकोण, परशु माला, वृक्ष, कूबड वाला बैल भी उत्कीर्ण है। स्मिथ ने मालव सिक्कों का न्यूनतम भार व 7 ग्रेन तथा डायामीटर 2 इंच बताया है जबकि रेद के सिक्कों का न्यूनतम भार 2.41 ग्रेन तथा अधिकतम भार 43.84 ग्रेन है। उनका आकार 3 इंच 6 इंच के मध्य है।

 

  • मलावों का शहरात शकों से संघर्ष का उल्लेख नासिक गुहालेख में मिलता है, जो द्वितीय शती ई. के प्रारम्भ का माना जाता है। इस अभिलेख में ऋषमदत्त द्वारा उत्तम भद्रों की सहायता हेतु आना तथा मालवों को पराजित करने का विवरण मिलता है। दशरथ शर्मा का मत है कि उत्तम भद्र पंजाब के क्षत्रियों की एक शाखा थी जिसने अजमेर पुष्कर के उर्वरक क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था। इस तरह मालवों की शक्ति कुछ समय के लिए क्षीण हो गई। 


  • उधर रुद्रदामा के जूनागढ़ अभिलेख से भी ध्वनि निकलती है कि 150 ई. के बाद पश्चिमी राजस्थान के अधिकांश भाग पर शकों का अधिकार हो गया था। ऐसी स्थिति में मालवों का स्वाधीनतापूर्वक रहना कठिन था ।

 

नान्दसा यूप लेख मालवों की आनुवांशिक शासन प्रणाली का संकेत

  • नान्दसा यूप लेख से संकेतित है कि बाद में शकों के गृहयुद्ध में लिप्त हो जाने का लाभ उठाकर मालव पुनः स्वतन्त्र हो गये थे। नान्दसा यूप लेख 226 ई. का है उससे ज्ञातव्य है कि मालव नेता श्रीसोम अथवा नन्दिसोम ने एक षष्ठिरात्र यज्ञ करके अपने गण की स्वतन्त्रता की घोषणा की थी नान्दसा के एक अन्य लेख में उनके सेनापति भीट्टसोम का नाम मिलता है। इससे स्पष्ट है कि दक्षिणी पूर्वी राजस्थान पर मालवों का शासन था। अब मालवगण धीरे-धीरे कुलीन तन्त्र में परिवर्तित हो गया था। नान्दसा यूप लेख मालवों की आनुवांशिक शासन प्रणाली का संकेत देकर तथा उन्हें ईक्ष्वाकु वंश से जोड़कर गौरव अनुभव करने की सूचना देता है।

 

  • काशीप्रसाद जायसवाल का मत है कि द्वितीय शताब्दी ईस्वी में नाग वंश शक्तिशाली होकर मालवा, गुजरात और राजस्थान तथा पूर्वी पंजाब के अधिपति हो गये थे, तब मालव उनके प्रतिनिधि के रूप में जयपुर, अजमेर, मेवाड़ क्षेत्र में राज्य कर रहे थे। लेकिन तीसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध के पश्चात् मालवों में फूट पड़ गई। डॉ. डी. सी शुक्ल का मत है कि तीसरी शताब्दी ईस्वी के पश्चात् मालव तीन शाखाओं में विभाजित हो गये जो विजयगढ़, बड़वा, दशपुर और मन्दसौर में निकस करती थीं। औलिकर (दशपुर-मन्दसौर) तो स्वयं को मालावों से संबन्धित मानते थे। उनके अभिलेखों में कृत मालव संवत् का प्रयोग मिलता है। ऐसा माना जाता है कि बड़वा और विजयगढ़ के शासक मालवों की ही शाखा थे। वैसे राजस्थान के अधिकांश यूप लेख मालवगण के भू-भाग के आसपास पाये गये हैं।

 

  • मालवों के सम्बन्ध में समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति से भी जानकारी मिलती है। प्रयाग-प्रशस्ति के अनुसार मालव यौधेयों, अर्जुनायन, मद्रक आभीर, प्रार्जुन, सनकानिक काक, खरपरिक आदि प्रत्यन्त गणराज्यों ने समुद्रगुप्त को कर देकर उसकी सभा में उपस्थित होने का वचन दिया, लेकिन 371 ई. के विजयगढ़ अभिलेख का अध्ययन करने पर प्रतीत होता है कि यौधेयों गण अभी तक स्वतन्त्रता का उपभोग कर रहे थे। कलवों का उल्लेख पुराणों (भागवत) में भी मिलता है। भागवत पुराण में मालवों का स्वतन्त्र शासक रूप में और विष्णु पुराण में आबू के शासक के रूप में उल्लेख मिलता है। समुद्रगुप्त के बाद मालव मन्दसौर की ओर पलायन कर गये। स्कन्दगुप्त के समय वे प्रयाग तक चले गये ।

 

  • उदयपुर जिले के वल्लभनगर तहसील के ग्राम बालाथल जहाँ डॉ ललित पाण्डेय ने उत्खनन करवाया था, वहाँ से प्राप्त मृगाण्डों पर ब्राह्मी का 'म उत्कीर्ण है। इसलिये इसे मालव प्रभावित क्षेत्र माना जा सकता है। इनकी दो मुद्राएँ मेवाड़ के नगरी मध्यमिका से प्राप्त हुई है जिससे स्पष्ट है कि मालव राजस्थान के पूर्वी एवं दक्षिणी भाग के शासक थे।

 

  • ईस्वी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में मालवों का शकों के साथ संघर्ष होने का विविरण नासिक गुहा लेख में मिलता है। यह संघर्ष क्षहरात वंश के साथ हुआ था। जूनागढ़ अभिलेख में प्रथम रुद्रदामा (130-150 ई.) का मालदा, गुजरात, काठियावाड़, सिन्धु सौबीर पश्चिमी विनध्य तथा अरावली क्षेत्र (निषाद) और मरुक्षेत्र पर विजय करने का उल्लेख आता है। इसलिये यह निश्चित है कि उसका राजस्थान के मालवों के साथ फिर से संघर्ष हुआ होगा। ऐसी सम्भावना है कि मालव रुद्रदामा प्रथम के पश्चात् कार्दमक शकों में जो पारिवारिक संघर्ष हुआ उसका लाभ उठाकर पुन स्वतन्त्र हो गये जिसकी पुष्टि नान्दसा यूप लेख जो 226 ई. का है उससे होती है।