राजस्थान के प्रमुख मेले (Rajsthan ke Pramukh Mele)
राजस्थान के प्रमुख मेले
- राजस्थान के मेलें यहाँ की संस्कृति के परिचायक है। राजस्थान में मेलों का आयोजन धर्म लोकदेवता, लोकसंत और लोक संस्कृति से जुड़ा हुआ है। मेलों में नृत्य, गायन, तमाशा, बाजार आदि से लोगों में प्रेम व्यवहार, मेल-मिलाप बढ़ता है। राजस्थान के प्रत्येक अंचल में मेले लगते है। इन मेलों का प्रचलन प्रमुखतः मध्य काल से हुआ जब यहाँ के शासकों ने मेलों को प्रारम्भ कराया।
- मेले धार्मिक स्थलों पर एवं उत्सवों पर लगने की यहाँ परम्परा रही है जो आज भी प्रचलित है। राजस्थान में जिन उत्सवों पर मेले लगते है उनमें विशेष हैं- गणेश चतुर्थी, नवरात्र, अष्टमी, तीज, गणगौर, शिवरात्री, जन्माष्टमी, दशहरा, कार्तिक पूर्णिमा आदि। इसी प्रकार धार्मिक स्थलों ( मंदिरों) पर लगने वाले मेलों में तेजाजी, शीतलामाता, रामदेवजी, गोगाजी, जाम्बेश्वर जी, हनुमान जी, महादेव, आवरीमाता, केलादेवी, करणीमाता, अम्बामाता, जगदीश जी, महावीर जी आदि प्रमुख है।
- राजस्थान के धर्मप्रधान मेलों में जयपुर में बालाजी का, हिण्डोन के पास महावीर जी का, अन्नकूट पर नाथद्वारा का, गोठमांगलोद में दधिमती माता का, एकलिंग जी शिवरात्री का, केसरिया में धुलेव का अलवर के पास भर्तहरि जी का और अजमेर के पास पुष्कर जी का मेला जयपुर का गलता मेला प्रमुख है। इन मेलों में लोग भक्तिभावना से स्नान एवं आराधना करते हैं ।
- लोकसंतो और लोकदेवों की स्मृति एवं श्रद्धा में भी यहाँ अनेक मेलों का आयोजन होता है। रूणेचा में रामदेवजी का, परबतसर में तेजाजी का, कोलगढ़ में पाबूजी का, ददेरवा में गोगाजी का देशनोक करणीमाता का, नरेणा (जयपुर)- शाहपुरा (भीलवाड़ा) में फूलडोल का मुकाम में जम्भेश्वरजी का, गुलाबपुरा में गुलाब बाबा का और अजमेर में ख्वाजा साहब का मेला लगता है।
- यह मेले जीवन धारा को गतिशीलता एवं आनंद प्रदान करते है शान्ति, सहयोग और साम्प्रदायिक एकता को बढ़ाते है। मेलों का सांस्कृतिक पक्ष कला प्रदर्शन तथा सद्भावनाओं की अभिवृद्धि है। मेलों का महत्त्व देवों और देवियों की आराधनाओं की सिद्धि के लिए मनुष्य देवालयों में जाते हैं। मेलों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सांस्कृतिक परिपाटी प्रवाहित होती है जो संस्कृति की निरन्तरता के लिए आवश्यक है। इसके अतिरिक्त मेले व्यापारिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, विशेषकर पशु मेले तथा इसका मनोरंजन के लिये भी महत्व है।