पंडिता रमाबाई का जीवन परिचय (Pandita Ramabai Short Biography in Hindi)
पंडिता रमाबाई का जीवन परिचय (Pandita Ramabai Details in Hindi)
- जन्म 23 अप्रैल 1858
- मृत्यु 5 अप्रैल, 1922
- पिता का नाम अनंत शास्त्री डोंगरे था एवं उनकी माता का नाम लक्ष्मीबाई
- पंडिता रमाबाई के बचपन का नाम रमा डोंगरे था
- पति का नाम विपिन बिहारी
भारतीय इतिहास में 19वीं सदी विशेषकर 19वीं सदी के उत्तरार्ध का काल भारत के
सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का काल माना जाता है। इस समय कई मनीषियों ने
तात्कालिक भारत में प्रचलित धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध अपनी प्रखर
आवाज बुलंद की। इस काल में सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ सशक्त प्रतिरोध करने वाले
बुद्धिजीवियों में पंडिता रमाबाई का नाम उल्लेखनीय है जिन्हें प्रायः भारत की
प्रथम फेमिनिस्ट की उपाधि से संबोधित किया जाता है। आज उनके स्मृति दिवस पर उनके
जीवन से जुड़े कुछ पहलुओं को जानने की कोशिश करेंगे-
पंडिता रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल 1858 में महाराष्ट्र के एक चितपावन
ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम अनंत शास्त्री डोंगरे था एवं उनकी
माता का नाम लक्ष्मीबाई था।
आनंद शास्त्री डोंगरे संस्कृत के एक
प्रकांड विद्वान होने के साथ-साथ एक अग्रणी समाज सुधारक थे। जब इन्होंने अपनी पत्नी
को संस्कृत पढ़ाना चाहा तो ब्रह्मणवादी पुरुषवादी मानसिकता के कारण इसका विरोध
किया गया एवं इन लोगों को गांव से निकाल दिया गया। इन्होंने तब जंगलों में रहना
शुरू किया एवं इसी दौरान पंडिता रमाबाई का जन्म हुआ।
पंडिता रमाबाई के बचपन का नाम रमा
डोंगरे था। संस्कृत और वेदों के अच्छे ज्ञान के कारण उनके नाम के आगे पंडिता लगा।
इसके साथ ही आगे चल कर उन्हें सात भाषाओं (कन्नड़, मराठी, बांग्ला, अंग्रेजी और हिब्रू इत्यादि में) विशेषज्ञता हासिल हो गई। केशव चंद्र
सेन ने इनके ज्ञान से प्रभावित होकर इन्हें पडिता की उपाधि प्रदान की थी।
महाराष्ट्र में आए एक अकाल के कारण
इनके माता-पिता और छोटी बहन का देहांत हो गया जिसके उपरांत वह अपने भाई के साथ
कोलकाता गई। पंडिता रमाबाई ने कथाओं और प्रवचन के माध्यम से अपना और अपने भाई का
जीवन यापन करना प्रारंभ किया।
पंडिता रमाबाई की विद्वता ने तत्कालीन
बंगाल के ब्राह्मणों में हलचल मचा दी। बंगाल के ब्राह्मण के द्वारा आमंत्रित किए
जाने पर उन्होंने अपना भाषण दिया जिसके उपरांत कोलकाता विश्वविद्यालय ने उन्हें
पंडिता और सरस्वती की उपाधि प्रदान की।
आगे चलकर पंडिता रमाबाई ने रूढ़िवादिता
पर प्रहार करते हुए एक कायस्थ वकील विपिन बिहारी मेधावी से शादी कर ली। अंतरजातीय
विवाह होने के कारण तात्कालिक समाज द्वारा इस का प्रखर विरोध किया गया। पंडिता
रमाबाई और उनके पति ने बाल विधवाओं के लिए विद्यालय खोलने की योजना बनाई थी, किंतु जल्द ही उनके पति की मृत्यु हो
गई।
अपनी पति की मृत्यु के बाद इन्होंने
महिला शिक्षा, बाल विवाह एवं विधवाओं के कल्याण हेतु
अपने आप को समर्पित कर दिया। पंडिता रमाबाई ने पुणे में आर्य महिला समाज की
स्थापना की एवं मिशनरी गतिविधियों में शामिल हो गई। पंडिता रमाबाई ने तात्कालिक
पुरुषवादी एवं ब्राह्मण वादी समाज के परंपराओं एवं मान्यताओं पर तर्कों के साथ
आलोचना करना प्रारंभ किया एवं महिलाओं की निम्न स्थिति पर सवाल उठाना शुरू किया।
उन्होंने ना केवल महिलाओं की शिक्षा की वकालत की बल्कि उन्हें अध्यापन, मेडिकल और इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्र
में आगे आने की आवश्यकता पर बल दिया। पंडिता रमाबाई द्वारा स्थापित आर्य महिला
समाज में लड़कियों की शिक्षा, बाल
विवाह को रोकने, विधवाओं के कल्याण इत्यादि के लिए
कार्य किया जाता था।
1882 में ब्रिटिश सरकार ने भारत में आधुनिक
शिक्षा हेतु एक कमीशन की स्थापना की जिसमें पंडिता रमाबाई ने सक्रिय भूमिका निभाई
एवं अपनी एक रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें उन्होंने महिला शिक्षकों, महिला डाक्टरों और महिला इंजीनियरों की
आवश्यकता पर बल दिया। इनके द्वारा दिए गए सुझाव महारानी विक्टोरिया तक पहुंचे एवं
इनकी सुझावों को लॉर्ड डफरिन के कार्यकाल में ना केवल अपनाया गया बल्कि आगे चलकर
ब्रिटिश सरकार के द्वारा सामाजिक कार्य हेतु पंडिता रमाबाई को ‘कैसर-ए-हिंद’ की उपाधि भी दी गयी। पंडिता रमाबाई के
प्रयासों का नतीजा था कि 1886 में भारत की प्रथम महिला डॉक्टर बनने
की उपलब्धि आनंदीबेन जोशी को हासिल हुई।
1883 में पंडिता रमाबाई इंग्लैंड गई और
वहां पर जाकर ईसाई धर्म का अध्ययन किया। कुछ समय बाद ईसाई धर्म को अपना लिया एवं
अपनी बेटी को चर्च ऑफ इंग्लैंड में बपस्तिमा कराते हुए स्वयं को शैक्षणिक कार्यों
से जोड़ लिया। उनके इस कदम पर तात्कालिक लोगों के द्वारा काफी आलोचना की गई लेकिन
वहीं दूसरी ओर ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले दंपत्ति जैसे लोगों ने रमाबाई का
समर्थन किया।
पंडिता रमाबाई ने ब्रिटेन प्रवास के
दौरान ‘द हाई कास्ट हिंदू विमेन’ पुस्तक को लिखा जिसमें उन्होंने एक
हिंदू महिला होने के दुष्परिणामों के वृहद रूप में चर्चा की। इस पुस्तक में बाल
विवाह, सती प्रथा, जाति प्रथा, शिक्षा से वंचित किया जाना इत्यादि
जैसे मुद्दों को शामिल किया गया।
1886 में पंडिता रमाबाई अमेरिका पहुंची।
उल्लेखनीय है कि जब स्वामी विवेकानंद शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में अपना
व्याख्यान दिया तब वहां पर रमाबाई की अगुवाई में कई महिलाएं उनके खिलाफ प्रदर्शन
करते हुए यह सवाल उठाया कि यदि हिंदू धर्म इतना महान ही है तो वहां पर महिलाओं की
स्थिति इतनी दयनीय क्यों है? इसके
साथ ही स्वामी विवेकानंद के भाषण में महिलाओं की अनदेखी पर भी पंडिता रमाबाई के
द्वारा उठाए गए। पंडिता रमाबाई ने स्वामी विवेकानंद के व्याख्यान पर टिप्पणी करते
हुए कहा कि “वह हिंदू धर्म के बाहरी खूबसूरती को
बौद्धिक विमर्श एवं बाहर की खूबसूरती से ना देखें बल्कि उस भव्य धर्म के नीचे काली
गहरी कोठरिया को भी देखें जहां पर महिलाओं और निम्न जातियों पर शोषण किया जाता है।” उल्लेखनीय है कि स्वामी विवेकानंद और
पंडिता रमाबाई के बीच व्यापक असहमति थी एवं दोनों एक दुसरे को नापसंद करते थे।
हालांकि दोनों तात्कालिक मुद्दों पर अपने विचारों को लेकर बिल्कुल स्पष्ट थे जहां
स्वामी विवेकानंद धर्म की तार्किक व्याख्या कर रहे थे वही पंडिता रमाबाई महिला
अधिकारों की वकालत कर रही थी।
पंडिता रमाबाई के प्रयासों के फलस्वरूप
अमेरिका में ‘रमाबाई एसोसिएशन’ की स्थापना की गई जिसका उद्देश्य भारत
में चल रहे विधवा आश्रम के लिए संसाधनों को इकट्ठा करना था। बाद में उन्होंने भारत
लौटकर विधवाओं हेतु समर्पित ‘शारदा
सदन’ की स्थापना की। इसके साथ ही उन्होंने
महिलाओं को सहारा देने हेतु ‘कृपा
सदन’ नाम के एक महिला आश्रम को स्थापित
किया।
जीवन भर महिला अधिकारों एवं भारत के
सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध प्रखर आवाज उठाने वाली पंडिता रमाबाई की मृत्यु 5 अप्रैल, 1922 हो गई।
इनकी लोकप्रियता के कारण ब्रिटिश सरकार
के द्वारा सामाजिक कार्य हेतु पंडिता रमाबाई को ‘कैसर-ए-हिंद’
की उपाधि भी दी गयी। इनके जीवन के
संघर्ष को देखते हुए शुक्र ग्रह के एक क्रेटर का का नाम रमाबाई मेधावी रखा गया।
इसी के साथ यूरोपियन चर्च के द्वारा 5
अप्रैल को उनकी याद में फीस्ट डे मनाया जाता है। भारत सरकार के द्वारा 1989 में रमाबाई की स्मृति में एक डाक टिकट
चलाया गया।
आपको बता दें आज भी महिलाओं के अधिकारों को सुरक्षित करने हेतु ‘पंडिता रमाबाई मुक्ति मिशन’ वर्तमान में भी सक्रिय है एवं यह संगठन भारत के निर्माण में महिलाओं की सहभागिता एवं सम्मान सुनिश्चित करने के लिए कार्य कर रहा है।