मध्यकालीन राजस्थान में कला, स्थापत्य एवं चित्रकला - एक परिचय
मध्यकालीन राजस्थान में कला, स्थापत्य एवं चित्रकला - प्रस्तावना
मध्यकालीन राजस्थान, अर्थात् 1303 से 1761 ई. तक की अवधि में देखेंगे कि कुछ प्रमुख राजपूत राजवंशों का वर्चस्व बढ़ा जिनमें गुहिल सीसोदिया, कछवाहे, राठौड एवं चौहान प्रमुख थे। दिल्ली में इस बीच सुलतानों और 16वीं शती से मुगलों का प्रभुत्व रहा। सुलतानों से तो राजपूतों की लड़ाई ही होती रही किन्तु मुगलों ने उन्हें मित्र बनाकर साथ ले लिया और मेवाड़ को छोड़ सभी राजपूत राजाओं कंधे से कंधा मिलाकर मुगल साम्राज्य के निर्माण में सहयोग दिया । राणा कुम्भा ने अपने राज्य की सीमा बढ़ाई उसके बाद राणा सांगा ने यद्यपि सब को साथ मिलाकर खानवा के मैदान में बाबर से सामना किया किन्तु वहाँ की हार से सबके हौसले पस्त हो गए। कुछ दिनों के लिए सूरवंश का शासन अवश्य रहा पर पानीपत की लड़ाई के बाद तय हो गया कि भारत पर मुगल ही राज्य करेंगे। अगले तीन सौ वर्षो में मुगल राजपूत सहयोग से देश का अधिकांश भाग एक सूत्र में बंध गया, पश्चिम में काबुल से लेकर पूर्व में आसाम तक और उत्तर में काश्मीर से लेकर दक्षिण में नर्मदा तक मुगलों का आधिपत्य रहा, जहाँ सीमाओं के रक्षक आबेर के कछवाहे, बूंदी के चौहान, जोधपुर एवं बीकानेर के राठौड़ शासक थे। राजपूत राजे मुगल शासकों के लिए तो लड़े पर राजपूताने में अपेक्षाकृत शांति रही जिससे देश में समृद्धि आई । परिणामस्वरूप नए नगरों की स्थापना हुई उदयपुर, जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़ नगर इसी काल में बसे राजमहलों का निर्माण हुआ जिनमें सुख-सुविधा के लिए शीशमहल, फूलमहल, मोतीमहल, हवामहल, बादलमहल आदि भवनों का निर्माण हुआ । इन भवनों से जुड़े तथा स्वतंत्र रूप से भी बाग-बगीचे लगवाए गए। उदयपुर महाराणा ने सर्वऋतु विलास बनवाया तो आबेर में श्याम बाग, केसर क्यारी और दलाराम के बाग बने । जयपुर में नगर प्रसाद से जुड़ा जयीनवास उद्यान तथा जोधपुर के मण्डोर उद्यान भी बने जिनमें दुर्लभ प्रजातियों के फूल फल लगाए गए ।
सुरक्षा के लिए दुर्ग
संरचना में भी कुछ परिवर्तन हुए। खानवा को लड़ाई में बारुद ने राजपूत शासकों की
आखें खोल दी थी कि उनकी पराजय का प्रमुख कारण उनकी पुरानी युद्ध पद्धति थी । अतः
राजपूताने के सभी शासकों ने अपने-अपने किले मजबूत किए और उनमें नए साधनों को भी
इकट्ठा किया चित्रकला के क्षेत्र में कई नए प्रयोग हुए पहले भित्तिचित्र ही बनते
थे, समुचित माध्यम के अभाव
में देवी-देवताओं के चित्र यदा कदा ताल पत्रों पर बना लिए जाते थे। किन्तु एक तो
ताल पत्र इतना सुलभ नहीं था, दूसरे उसे तैयार करने की प्रक्रिया भी जटिल थी, और उससे भी बड़ी बात यह
थी कि उसका आकार निश्चित था, उसी के अनुसार चित्र संयोजना करनी पडती थी, 13वीं शती में कागज के
आगमन से ग्रन्थ चित्रण में वृद्धि हुई और गुणात्मक अन्तर आया। चित्रों का आकार रडा
हुआ धार्मिक, ऐतिहासिक, साहित्यिक और शृंगारिक
ग्रन्थों पर आधारित चित्रावीलया बनी । व्यक्ति चित्रण की शुरुआत भी हुई। यों तो
पहले मूर्तियां बनती थीं किन्तु अब तो कागज आ गया था जिस पर अंकन अपेक्षाकृत आसान
था ।
संगीत नृत्य विषयक
ग्रन्थों की रचना हुई क्लिष्ट शैलियों को सरल बनाने की भी चेष्टा की गई, इस प्रक्रिया में धुपद
जैसे शुद्ध शास्त्रीय शैली से हवेली संगीत का विकास हुआ जो वैष्णव मंदिरों गई जाने
लगी और आज भी गाई जाती है,
इसका प्रमुख केन्द्र
नाथद्वारा है। अधिकांश ग्रन्थ संस्कृत जिन्हें कुछ विद्वान ही पढ़ सकते थे। अतएव
उनके अनुवाद कराए गए जिसमें राजस्थान के शासकों और विद्वानों का बहुत योगदान रहा
इस युग की 'हिंदवी' और 'भाषा' का जो रूप बना वही आगे
चलकर आधुनिक हिन्दी हुई ।
मध्यकालीन राजस्थान में कला, स्थापत्य एवं चित्रकला - पृष्ठभूमि
कला एवं स्थापत्य की स्थिति का देश की राजनीतिक स्थिति से घनिष्ठ संबंध है, जब देश शान्ति होगी तो समृद्धि आएगी और समृद्धि आएगी तभी कला की उन्नति होगी इसलिए यहां पर मध्यकाल ( 1300-1761) में राजस्थान की राजनीतिक स्थिति का संक्षिप्त परिचय देना आवश्यक हैं। इस समयावधि के पूर्वार्द्ध में मेवाड, मारवाड, आंबेर और सिरोही के राज्य प्रमुख थे, उत्तरार्द्ध में पहले वागड क्षेत्र के स्वतंत्र राज्य डूंगरपुर और बांसवाडा बने, बीकानेर में बीकाजी ने स्वतंत्र सत्ता स्थापित की, बाद में कोटा अलग हुआ और फिर किशनगढ़ | समकालीन स्रोतों के अनुसार आबू सिरोही, बूंदी, हाडआटी, चाटसू, रणथम्भौर, गागरोन, मण्डोर, सारंगपुर, नागौर व नरायणा सब मेवाड की सीमा में ही थे.
मेवाड के जिन शासकों का
कला-संस्कृति के क्षेत्र में विशेष योगदान रहा, उनमें महाराणा कुम्भकर्ण (कुंभा 1433-61) संग्रामसिंह (
सांगा 1508-28 ) राजसिंह (165280) और जयसिंह (1680-98) के नाम प्रथमपक्ति में आते
हैं। इन लोगों ने कलाकारों को प्रश्रय दिया, कुंभा स्वयं निर्माता संगीत प्रेमी थे, उन्होंने कुम्भलगढ दुर्ग
एवं कीर्ति स्तंभ बनवाया। मेवाड की लड़ाई मालवा- गुजरात के सुलतानों से होती रहती
थी किन्तु सांगा ने दिल्ली की ओर दृष्टि की और 1528 में खनवा की लड़ाई में बाबर के
विरूद्ध लड़ते हुए मारा गया। इसके बाद दिल्ली के मुगल बादशाहों से संघर्ष होता रहा
और जहांगीर के समय से शान्ति स्थापित हुई उदयपुर का जगनिवास बना, राजसिंह ने अकाल राहत
कार्य में राजसमन्द बनवाया जिसके किनारे बना नौ चौकी घाट स्थापत्य का अनुपम उदाहरण
है। जयसिंह के समय में बड़ी-बड़ी चित्रावलिया बनी.
13 वी शती मारवाड में
राठौड़ों के पूर्वज सीहाजी ने पाली में एक छोटा राज्य स्थापित किया था जिसे उसके
वंशजों ने आगे बढ़ाया और राव जोधा (1438-89) ने 1459 में जोधपुर नगर की स्थापना की, उसने महाराणा कुम्भा से
संधि कर राजपूताने में शांति भी स्थापित की, जिससे कला संस्कृति को बढ़ाता मिला । आगे चलकर जोधपुर ने भी
मुगलों से मित्रता की, इस वंश के राजाओं में
गजसिंह प्रथम (1619-1638 ) जसवन्त सिंह (1638-1678) और अजीत सिंह (1707-1724) बहुत
बड़े निर्माता और कला संस्कृति के उन्नायक व पोषक हुए।
बीकानेर की स्थापना राव
जोधा के पांचवें बेटे राव बीका (1465-1504) ने 1488 में की। यद्यपि इस राज्य का
अधिकांश भाग रेगिस्तान है किन्तु भवन निर्माण, चित्रांकन व पुस्तक लेखन में यह प्रदेश अग्रणी रहा। यहां के
राजाओं ने भी मुगलों से संधि कर ली थी और महत्वपूर्ण युद्धों में मुगलों की ओर से
लडे । प्रमुख शासकों में राव लुणकर्ण (1505-26), रायसिंह (1574-1612) जिन्होंने जूनागढ़ बनवाया, करणसिंह (6831 1669), और अनूपसिंह (1669-1698)
हुए, जिन्होंने अनूप संस्कृत
पुस्तकालय स्थापित किया। राजाओं में साहित्यिक अभिरुचि तो थी ही, परिवार के अन्य सदस्यों
में भी कई लोग बड़े प्रतिभावान थे। रायसिंह के छोटे भाई पृथ्वीराज डिंगल के अच्छे
कवि थे और उनकी पुस्तक 'कृष्ण रुक्मणि री बेलि
बडी उच्च कोटि की रचना है। महाराजा अनूपसिंह के पुस्तक प्रेम का प्रमाण अनूप
संस्कृत पुस्तकालय है जिसमें दुर्लभ पाण्डुलिपियां सुरक्षित हैं इनके समय में कई
चित्रवालियाँ भी तैयार हुई।
किशनगढ़ की स्थापना
किशनसिंह ने की जो जोधपुर के महाराजा उदयसिंह के आठवे पुत्र थे, कला एवं साहित्य के
क्षेत्र में किशनगढ़ अपनी चित्रशैली एवं महाराजा सावंतसिंह (1748-57) की रचनाओं के
लिए प्रसिद्ध है | सावंतसिंह कृष्णभक्त कवि
थे, 'नागरीदास उनका उपनाम था, वह 1757 में राज्य त्याग
कर वृन्दावन में रहने लगे थे ।
बूंदी - कोटा का इलाका चौहानों की हाडा शाखा के अधीन होने के कारण हाड़ौती कहलाता है, किन्तु बूंदी 16 वीं शती तक मेवाड का मित्र राज्य ही रहा, आंतरिक मामलों में स्वतंत्र होते हुए भी महाराणा के सहयोगी थे। 16 वीं शती में बूंदी के राव सुरजन (1554-85) ने मुगल बादशाह अकबर से संधि कर ली, और हाड़ा सरदारों ने भारत के विभिन्न भागों में मुगलों का साथ दिया। राव सुरजन को बनारस की जागीर मिली थी, जहां उसने महल, घाट वगैरह बनवाए, उनके इलाके हास बाग, सूरजकुण्ड और राजमन्दिर में बूंदी का कटारशाही सिक्का भी बाद के दिनों में चलने लगा था । बूंदी का विभाजन 1631 में हुआ जब राव रतन के दूसरे पुत्र माधोसिंह को कोटा की जागीर मिली ।
राजस्थानी चित्र शैली में
बूंदी कोटा कलम का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है बूंदी अपने शृंगारिक और कोटा शिकार
चित्रों के लिए विशिष्ट माना जाता है। स्थापत्य में भी हाडा शासकों का बड़ा योगदान
रहा। बूंदी के राव छत्रशाल (1631-58) ने बूंदी में छत्रमहल और पाटन में केशवराव का
मन्दिर बनवाया ।
राव माधोसिंह ने चम्बल नदी के तट पर कोटा नगर बसाया और उनके बेटे राव मुकुन्द सिंह (1649-57) के नाम पर ही कोटा के पास का दरा मुकुन्द दरा कहलाता है, इनके वंशजों ने कोटा चित्रशैली को समृद्ध बनाया ।