मध्यकालीन राजस्थान स्थापत्य कला : धार्मिक स्थापत्य कला | Medieval Rajasthan Architecture : Religious Architecture - Daily Hindi Paper | Online GK in Hindi | Civil Services Notes in Hindi

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रविवार, 16 अक्तूबर 2022

मध्यकालीन राजस्थान स्थापत्य कला : धार्मिक स्थापत्य कला | Medieval Rajasthan Architecture : Religious Architecture

 मध्यकालीन राजस्थान में स्थापत्य कला 

Medieval Rajasthan Architecture : Religious Architecture


 

मध्यकालीन राजस्थान के स्थापत्य को अध्ययन की सुविधा के लिए  श्रेणियों में रखा जा सकता है धार्मिकरिहायशीसुरक्षात्मक और जल स्थापत्य ।

 

 मध्यकालीन राजस्थान में धार्मिक स्थापत्य कला 

धार्मिक स्थापत्य के अन्तर्गत हिन्दू एवं जैन मन्दिर तथा मस्जिद ही आएंगे क्योंकि 1200 ई. तक देश के इस भाग में बौद्ध धर्म लगभग समाप्त हो गया था और ईसाई एवं सिख धर्म  का आगमन नहीं हुआ था। हां लोकधर्मो और सन्तों के स्थान अवश्य थे किन्तु इनके देवालयों के निर्माण इस काल में लगभग नहीं के बराबर हुए. 

 

  1200 ई. तक मन्दिरों का भव्य रूप निश्चित हो चुका थासामान्यतः मन्दिर के पांच भाग होते थे - गर्भगृह जहां मुख्य देवता की मूर्ति प्रतिष्टित होती थीमण्डप जहां भक्तगण इकट्ठे होकर भजन कीर्तन करते थेअर्द्ध मण्डप अथवा प्रवेश द्वार और परिक्रमा के लिए प्रदक्षिणा पथसबके ऊपर भव्य शिखर होता था । प्रदक्षिणा पथ कभी खुला होता था और कभी  बंद मंदिर के साथ कुण्ड अथक बाबड़ी और एक बगीची भी होती हैजिससे मन्दिर के लिए पानी एवं फूल आदि की व्यवस्था होती है । भक्तगण तथा आने वाले साधुसन्त इस जलाशय से पानी पीते हैं और पुष्प देवताओं के चढ़ाने के काम आते हैं । यह सामान्य व्यवस्था थी किन्तु निर्माण स्थल और निर्माता की आर्थिक स्थिति के अनुसार देवताओं की साज-सज्जारख-रखाब और उत्सवों में परिवर्तन होते रहते थे ।

 

⇰ मध्यकालीन बड़े मन्दिरों में महाराणा कुम्भा द्वारा बनवाया कुम्भ-श्याम मन्दिर प्रसिद्ध है वस्तुतः यह मन्दिर आठवीं शती का है जिसका जीर्णोद्वार कुम्भा ने करवाया था उसके बाद इष्ट देव श्याम की मूर्ति प्रतिष्ठित की और उन्हीं के नाम से यह कुंभश्याम का मन्दिर कहलाया । पत्थर में खुदाई का काम और भव्यता के कारण मध्यकालीन मन्दिरों में इसका विशिष्ट स्थान है. 

 

⇰ कुम्भा के कोषाध्यक्ष भण्डारी बेलाक ने शांतिनाथ को समर्पित क्षार चौरी नामक जैन देवालय का निर्माण करवाया । इसी समय का एक प्रमुख निर्माण कीर्ति स्तंभ है शास्त्रीय नियमों के आधार पर बनी मूर्तियों से सुसज्जित इस स्तम्भ को मूर्तियों का कोष कहा जा सकता है इसमें नौ मंजिलें और 127 सीढ़ियां हैं। प्रत्येक मंजिल पर रोशनी आने के लिए झरोखे मे हुए हैं। इसका शिलान्यास संवत 1495 वी और प्रतिष्ठा 1517 वि. में हुई ।

 

⇰ कुम्भा के समय का ही बना एक अद्धितीय जैन मन्दिर रणकपुर (पाली) में हैं। मन्दिर समूह में पांच प्रसाद (मंदिर) हैं जिनमें से प्रमुख चार द्वार वाला चौमुखा मन्दिर हैइसे त्रैलोक्यदीपक कहते हैं। आदिनाथ को समर्पित यह मन्दिर वास्तुशास्त्र की दृष्टि से त्रैमामिक' (तिमंजिला) 'चतुरस' (चौकोर) प्रकार का हैं। इसके निर्माता शतामा के प्रीतीपात्र पोरवाल जैन धरणकशाह थे जिनके नाम पर यह धरणविहार भी कहलाता है। इसका शिलान्यास संवत 1495 वि. में हुआ था और प्रतिष्ठा 1516 वि. हुई. 

 

⇰ 17 वीं शती मेवाड के मन्दिरों में महाराणा जगतसिंह (1628- 1652 ) द्वारा बनवाया गया जगदीश मन्दिर उल्लेखनीय है जो उदयपुर में राजभवन के निकट ही जगदीश चौक में स्थित है । सडक से सीढ़ियां बढ़कर भव्य देवालय है जहां मुख्य द्वार पर बने दो विशाल हाथी स्वागत करते हैं। मन्दिर प्रांगण के बीचों बीच ऊंची जगती पर स्थित है चारों कोनों पर चार मन्दिर बने हैं जो इसे पंचायतन बनाते हैं । मन्दिर के मुख्य द्वार के सामनेसुन्दर छतरी में गरुड़ की धातु प्रतिमा है । मन्दिर अर्द्धमण्डपसमामण्डप अन्तराल और गर्भगह में विभक्त हैंगर्भगह के उपर विशाल शिखर है सभामण्डप की छत पिरामिड शैली की हैपरिक्रमा के लिए प्रदक्षिणापथ बना हुआ है। मंदिर की साज-सज्जा पारम्परिक ढंग की है। अधिष्ठान शिला के उपर जाड्यकुम्भ कुर्णिकाग्रास पट्टी और उसके ऊपर गजथरअश्वथर और नरथर बने हैं। वेदी के ऊपर जंघा भाग है जो तीन भागों में विभक्त है - नागरी जंघा (सादा)लाटी जंघा (स्त्री-पुरुष युगल) और कपोतावली । इस स्तर पर मंदिर की प्रथम मंजिल पूरी होती है फिर दूसरी मंजिल और शिखर का हिस्सा हैं। इस पूर्वाभिमुख मंदिर के तीनों ओर गवाक्ष बने हैं और पुनः जंघा और कपोतावाली है और मूर्तियों की शृंखला हैं जिनमें विष्णु के दस अवतारचौबीस स्वरूपशृंगारिक आकृतियांशार्दूलगजसिंहअश्वसिंहसुर सुंदरियां एवं नृत्य संगीतरत समूह हैं. 

 

⇰ इसके अतिरिक्त 17वीं शती में राजस्थान में कई नए मन्दिर बने कई प्राचीन स्थलों पर ही नए निर्माण हुए। ऐसे मंदिरों में पाटन स्थित केशवराय का मन्दिर बड़ा भव्य  है, मन्दिर के कारण ही यह कसा केशवरायपाटन कहलाता हैं। चम्बल नदी के तट पर स्थित एक प्राचीन मन्दिर था जिसका उल्लेख हम्मीर महाकाव्य में भी हुआ है अवश्य ही वह भी विशाल देवालय रहा होगा किन्तु 17वीं शती में वह जीर्ण-शीर्ण हो गया था। इसका निर्माण राह शत्रुशाल ने पूर्णतः नए सिरे से करवाया । आंबेर के मन्दिरों में सूर्य मन्दिरकल्याणराय जी का मन्दिर और अंबिकेश्वर शिवालय की विस्तृत चर्चा नही करेंगे क्योंकि वे इस पाठ्यक्रम की समय सीमा से बाहर हैं किन्तु लक्ष्मीनारायण एवं जगतशिरोमणि मन्दिर क्या जैन मन्दिरों में सांघी जी का मन्दिर उल्लेखनीय हैं ।

 

⇰ लक्ष्मीनारायण मंदिर जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है वैष्णव मन्दिर हैइसका निर्माण महाराजा पृथ्वीराज की पत्नी बालाबाई ने करवाया था जो बीकानेर के राव लूणकरण की बेटी थी और परम वैष्णव थी। इसी रानी के प्रभाव में आकर पृथ्वीराज ने वैष्णव मत अंगीकार किया था । शिखर युक्त यह मन्दिर मध्यकालीन मन्दिर स्थापत्य का सुन्दर उदाहरण हैसभामण्डप और प्रदेश द्वार भी है । दूसरा महत्वपूर्ण मन्दिर जगतशिरोमणि भी विष्णु को ही समर्पित है और राजा मानसिंह की रानी श्रृंगार देवी कनकावत जी का बनवाया हुआ है। उन्होने अपने पुत्र जगतसिंह की स्मृति में इस देवालय का निर्माण करवाया था। तोरणयुक्त इस दो मंजिले मन्दिर में बड़े सुन्दर चित्र बने हैं। मन्दिर के बाहर गरुड़ मण्डप है । बलुए पत्थर से निर्मित इस मन्दिर की बनावट शास्त्रानुसार हैजगती गजधर अश्वथर और नरथर में विभाजित हैगजधर में हाथियों की शृंखला होती थी और अश्वथर में घोड़ो की रथर में तत्कालीन जन जीवन का चित्रण होता था मध्यभाग में मूर्तियां है और उसके ऊपर शिखर है ।

 

⇰ जैन मन्दिरों में तीन शिखरों बाला सांघीजी का मन्दिर उल्लेखनीय है, गांधी चौक के निकट ही बाई ओर जाने वाली सड़क के कोने पर स्थित इस मन्दिर का निर्माण मूलतः मोहनदास ने संवत 1714 वि. (1657 ई) में कराया थाकिन्तु इसका जीर्णोद्वार सांघी झुंथाराम ने 19वीं शती में कराया जिसके कारण यह सांधी जी के मन्दिर के नाम से ही प्रसिद्ध है ।

 

⇰ मध्यकाल में मन्दिरों की एक नई शैली विकसित हुई जिसे हवेली शैली कहा जाता हैइसमें शिखर नहीं होता केवल चौक और चारों ओर बरामदा एवं कमरे होते हैंउन्हीं बरामदों में से एक के अन्दर वाले कमरे में ठाकुर जी प्रतिष्ठित होते हैं और कभी कभी सुविधानुसार पृष्ठभाग को बढ़ाकर प्रदक्षिणापथ भी बना दिया जाता था । वल्लभ सम्प्रदाय के अनुयायी कृष्ण के बालस्वरूप की पूजा करते थे और गौड़ीय सम्प्रदाय वाले राधा-कृष्ण के युगल छवि कीकिन्तु दोनों ही मतों में यहां मन्दिर की कल्पना एक घर की थी जिसमें ठाकुर निवास करते थे । वल्लभ सम्प्रदाय के मन्दिरों में सर्वश्रेष्ठ उदाहरण नाथद्वारा (उदयपुर) और गौडीय सभदाय का गोविन्द देव जी (जयपुर) का है।

 

⇰ नाथद्वारा 1669 ई. में मुगल सम्राट औरंगजेब की ब्रज में वैष्णव विरोधी नीतियों से भयभीत बहुत से धर्माचायों ने अपने इष्ट देवताओं के साथ ब्रज का त्याग कियाइन्हीं में दामोदरलाल जी और उनके कुछ शिष्य भी थे जो श्री नाथ जी की मूर्ति लेकर राजस्थान आ गएयहां महाराणा राजसिंह ने उनका स्वागत किया और जब मूर्ति की गाड़ी सिहाड़ गाँव में रूक गई तो वही मन्दिर बनवाने का निश्चय कर श्रीनाथ जी के विग्रह की प्रतिष्ठा कर दी गई। यही स्थान नाथद्वारा अर्थात् श्री नाथ का दरवाजा कहलाया (1671 ई.)। यहां जो मन्दिर बनावह शिखरबन्ध मन्दिर नहीं था वरन् ठाकुर जी का घर था और सामान्य व्यक्ति की उपयोगिता को ध्यान में रखकर बनाया गया था यद्यपि धीरे-धीरे इसका आकार बढ़ता गया और हवेली कहलाने लगा। इस भवन के मुख्य द्वार पर दो विशाल हाथी चित्रित हैंनौबत खाना है जहां संगीतकार बैठकर गायन-वादन करते हैं। मोतीमहल का द्वार बडा भव्य हैअन्दर कई चौकों वाली हवेली है जिनमें कमल चौकगोवर्धन पूजा चौक और कई भण्डार हैंइन सबके बीच निज मन्दिर में श्रीनाथ जी विराजते हैं। अन्दर द्वारिकाधीश विट्ठलनाथ जी और मदनमोहन जी के भी मन्दिर हैं। यहां का स्थापत्य 17वीं शती राजस्थान की हवेलियों से मिलता हैं। हांयह अवश्य है कि इसके भवनों के नामकरण मन्दिर के उपयोग के अनुसार हुआ है

 

⇰ श्री गोविन्द देव जी जयपुर स्थित श्री गोविन्द का विग्रह भी आक्रांताओं के भय से जब वृन्दावन से आंबेर के लिए रवाना हुआ तो कई स्थानों पर रुकते रुकते अंतत: आंबेर पहुंचा यहां स जयसिंह ने इनके लिए सागर तट पर कनक वृन्दावन बनवाया हरे भरे बाग बगीचों के बीच शिखर बन्द मन्दिरकिन्तु शीघ्र ही नई राजधानी बनी जहां श्री गोविन्द को महलों में ही प्रतिष्ठित किया गया। महाराजा के शयन कक्ष से ही जयपुर के स्वामी गोविंद का दर्शन हो सकेऐसी व्यवस्था थी यह मन्दिर भी हवेली शैली का ही है शिखर नहीं हैं। एक तिबारे में श्री राधा-गोविन्द और सखियों के विग्रह हैप्रदक्षिणा पथ है और सामने खुला प्रांगण था जिस पर अब छत पड़ गई है। सेवा-पूजा की आवश्यकतानुसार कमरे बने हुए हैं सामने बगीचा है जिससे पूजा के लिए तुलसी दल और पुष्प आ जाते हैं। इन मध्यकालीन वैष्णव मन्दिरों में स्थापत्य संबंधी विस्तृत विधान नहीं हैं। 18वीं शती जयपुर में महाराजा जयसिंह और उनके पुत्र माधोसिंह तथा समश्द्ध महाजनों के बनवाए बहुत से मन्दिर हैं जिनमें गोपीनाथ जी का मन्दिर (पुरानी बस्ती)कल्कि जी का मन्दिर (सिरह ड्योढी बाजार)गिरधारी जी का मन्दिर (मोतीकटला बाजार) और लूणकरण नाटाणी का मन्दिर (छोटी चौपड) आदि अपने स्थापत्य लिए प्रसिद्ध है। इनमें छोटी चौपड़ स्थित रामचन्द्र जी का मन्दिर उतुंग शिखर के कारण दूर से ही दिखाई देता हैं स्थापत्य की दृष्टि से पारम्भिक प्रकार का हैसडक से मन्दिर तक सीढ़िया जाती है। ऊपर गर्भगृह और मण्डप हैं जो स्तम्भों पर आधारित है.