कला संस्कृति में विज्ञान का सामंजस्य
साभार ओम प्रकाश प्रसाद
कला संस्कृति में विज्ञान का सामंजस्य
मनुष्य के हाथों निर्मित वह हर वस्तु कला या शिल्प है जो लय, सन्तुलन, अनुपात और सुसंगति आदि की स्थितियों में तैयार होती है, भले ही इसमें मस्तिष्क की सचेतन क्रियाशीलता न हो या उसने प्रेक्षक की अनुभूति तथा कल्पना में अपेक्षित भाव पैदा न किया हो। अपने चारों ओर अगणित सुन्दर प्रतीकों की रचना मनुष्य की कलात्मक साधना का उदाहरण है। चित्र का अर्थ पूरी प्रतिमा से है जिसको व्यक्त प्रतिमा कहते हैं। इसमें आधा अंग मुखपात्र अथवा कटिपर्यन्त चित्रित होता है। चित्राभास को पैंटिंग कहते हैं। यह किसी भित्ति, पट आदि पर चित्रित होती है। चित्र इस तरह मूर्तिकला का विभिन्न अंग है। शिल्पकार जिस पाषाण को अपने कौशल से छू देता है, वही सौन्दर्य का प्रतीक बन जाता है। यहाँ के कलाकारों या शिल्पियों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी यांत्रिकी और गणित के विज्ञान को सीखा, भवन सामग्रियों का ज्ञान प्राप्त किया, पत्थर काटने-तराशने और ईंट-पत्थर को सजाने की कला-विज्ञान को सीखने के बाद जो उपलब्धियाँ प्रस्तुत की, उन्हें देखने के बाद यह स्पष्ट होता है कि वैभवशाली भारत के प्रभुतासम्पन्न स्वरूप को और अधिक ऊँचा उठाने में शिल्प और स्थापत्यकला की भूमिका निःसन्देह अति महत्वपूर्ण रही है। कलात्मक ज्ञान विशेषज्ञ कलाकार एक शिलाखंड लेता है और उसे ही अपना विषय या विषय जगत बनाता है। शिलाखंड जैसे जड़ पदार्थ पर वह अपनी उत्सुकतापूर्ण एकाग्रता का प्रयोग करता है।
जब वह प्रस्तरखंड की रचना, तन्तुओं, रेखाओं आदि के अनुरूप अपने स्वप्न और बिम्ब उसमें देखता है तो धीरे-धीरे उसका अन्तर्ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है। अब दोनों में पारस्परिक सम्प्रेषण शुरू होता है। इसके बाद प्रत्यक्ष ज्ञाता विषयी और विषय एकरूप होकर काम करने लगते हैं, उसका विभाजन समाप्त हो जाता है। इस सर्जनात्मक प्रक्रिया में वस्तुतः विषयरूपी वह सामग्री भी सक्रिय सर्जनात्मक सहकर्मी की तरह काम करती रहती है। वह सामग्री बहुधा नए भाव और स्वप्न इंगित करती है तथा रूपगत साधनों एवं प्रक्रियाओं भी निरूपित करती है सर्जनात्मक प्रक्रिया के ही कतिपय क्षणों में स्वयं कलाकार उस विषय को अपने से पृथक मानकर देखता और उसका गुण-दोष विवेचन करता है। यह गुण-दोष विवेचन भी सर्जनात्मक प्रक्रिया का अंग होता है किन्तु ऐसे क्षणों में विषवरूपी कलाकार और उसके विषय एकरूप होकर कार्य नहीं करते। इस मानसिक हुन्द्र से कलाकार जब अनुकूल मुद्रा में बाहर निकलता है तो उसका स्वप्न या बिम्ब प्रत्यक्ष रूप में पूर्णतः प्रकट हो जाता है और एक कलावस्तु बन जाता है। कलाकार जो कुछ भी रचता है, उसमें प्रकृति या चरित्र तय करनेवाले नियमों का अनुसरण करता है।
अनुभव को जब सिद्धान्त रूप में सामान्यीकृत कर दिया जाता है तो वह विज्ञान कहलाता है। इसमें सुधार के लिए पुनः अभ्यास की जरूरत होती है। इसे ज्ञान की वह शाखा माना जाता जिसे प्राकृतिक तथ्यों एवं घटनाओं को वस्तुनिष्ठ तरीके से नियमानुसार अवलोकन तथा प्रयोगों द्वारा प्राप्त किया जाता है। उपकरणों के बिना विज्ञान सम्भव नहीं। पाषाण युग में ही मनुष्य अपने जीवन निर्वाह और भौतिक परिवेश को अपने हित में नियंत्रित करने हेतु पाषाण उपकरणों के रूप प्रौद्योगिकी विकसित कर रहा था। उपकरण (यंत्र, औजार) ज्ञान का एक ऐसा साधन है जिसे विभिन्न प्रकार के मापन का अवलोकन करने और उसे दर्ज करने के लिए उपयोग में लाया जाता है। वैज्ञानिकों और अध्ययन से सम्बद्ध विषयों के बीच उपकरण एक विशेष बिचौलिया और मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों को सशक्त बनाता है। उपकरणों के माध्यम से ही मनुष्य भौतिक यथार्थ का निर्माण करता है। प्रगति का महान मार्ग प्रशस्त करने में उपकरणों की भूमिका महत्वपूर्ण रही।
विशुद्ध वैज्ञानिक और खोट वैज्ञानिक के बीच प्राचीनकाल के सन्दर्भ में स्पष्ट विभाजन करना कठिन है, क्योंकि विज्ञान और खोट विज्ञान एक-दूसरे से विकट तरीके से उलझे रहे हैं। खोट विज्ञान वास्तविक विज्ञान से इस अर्थ में भिन्न है कि इसमें बिना प्राकृतिक तथ्यों के विधिवत् अवलोकन के सिद्धांत मंत्रों और जादू-टोना के रूप में धारण कर लिए जाते और उन्हें ही सत्य माना जाता है चाहे वे वास्तविकता से परे क्यों न हों। अनेक उदाहरणों में यह पाया जाता है कि विशुद्ध वैज्ञानिक उपलब्धियाँ नकली वैज्ञानिक चिन्तन तथा प्रयोगों के माध्यम से ही हो पाई हैं। रत्नाकार नामक तंत्रग्रन्थ के लेखक नागार्जुन ने नालन्दा में खोट रासायनिक विधि से सोना बनाने का प्रयास किया किन्तु इसके लिए कोष्ठिकातंत्र, वक्रनाल (मुँहवाली फुंकनी), धमन (धौंकनी), लौहपत्र का जो प्रयोग किया उनका वैज्ञानिक महत्व किसी-न-किसी रूप में आज भी है। कौटिल्य ने लिखा है ‘जो पुरुष विज्ञान से सम्पन्न होता है वह स्वयं को भी जीत सकता है विज्ञान विश्व को भयमुक्त बनता है।‘ संस्कृति के लिए वैदिक संस्कृति का प्राचीनतम् शब्द है कृषि। यह शब्द अथर्ववेद में प्रयुक्त है। संस्कृत की ‘कृष्‘ धातु से बने इस शब्द का अर्थ जोतना होता है। इसलिए कृषि का अर्थ हुआ जोतने का कार्य अथवा जोतने का फल या परिणाम पर लगभग इसी के साथ-साथ एक दूसरा शब्द संस्कृति भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होने लगा और ऐतरेय ब्रह्माण्ड में हमें इसका प्रयोग मिलता है। ऐतरेय में जहाँ इसका प्रयोग हुआ है, वहाँ इसका स्पष्ट अर्थ है अपने निजी ‘स्व‘ की उन्नति इसका तात्पर्य हुआ कि अपनी जीवन भूमि को जोतना या संस्कृत करना, जब कि कृषि का सीधा-सीधा अर्थ यह भी है कि खेतों को जोतना और फसल उपजाना। इस तरह, कृषि का दूसरा अर्थ हो सकता है, जीवन भूमि को जोतना। अंग्रेजी शब्द ‘कल्चर‘ तथा जर्मन शब्द ‘कुल्टर‘ लैटिन के कल्ट से ही उत्पन्न है। ‘कल्ट‘ शब्द का अर्थ होता है खेती करना, स्पष्ट है कि वह अर्थ कृषि के सम्बन्ध में ही है। पर बाद में जब इसका अर्थ-विस्तार हुआ तो इसका तात्पर्य हो गया अपनी जीवन भूमि को जोतना।
इस प्रकार कृषि तथा कल्चर दोनों ही शब्द भारतीय यूरोपीय जीवन, भाषा तथा विचार की एक जैसी पद्धति से व्युत्पन्न है। संस्कृति और विज्ञान का गहरा सम्बन्ध रहा है। पुरातत्वशास्त्र के माध्य इन पारिभाषिक विवेचनाओं के आधार पर हम पाते हैं कि कला के साथ संस्कृति और विज्ञान का गहरा सम्बन्ध रहा है। पुरातत्व शास्त्र के माध्यम से कला की जो भी धरोहर हमारे समक्ष मौजूद है उसे देखकर स्पष्ट होता है कि यहाँ के लोगों के जीवन में सिंधु काल से ही कला के प्रति विशेष लगाव रहा है। हड़प्पा से प्राप्त नृत्यमुद्रा में पुरुष धड़ और मोहनजोदड़ो से प्राप्त नृत्यमुद्रा में युवती को देख इस तथ्य को समझा जा सकता है।
मोहनजोदड़ो के घरों में सुन्दर स्नानागार, खुदाई से प्राप्त आभूषण, तराश कर बनाए गए हारों के मनके कड़े और चूड़ियाँ आदि इस बात के साक्षी है कि पुरुष और स्त्री दोनों ही सौन्दर्य और अलंकरण में पर्याप्त रूचि रखते थे। सिन्धु भाण्डों पर की काली लिखाई के अन्तर्गत रेखा और उपरेखाओं का सरल किन्तु दृढ़ प्रयोग हुआ है। पेड़-पौधे, फूल-पत्ती, उड़ते हुए पक्षी, तैरती हुई मछलियाँ, भागते और उछलते हुए इन हुए पशु इन विविध आकृतियों से यह लिखाई सुशोभित है। आड़ी-तिरछी, खड़ी पड़ी रेखाओं के सम्मिलन से शुल्बाकृतियों की जो सजावट की गई है उससे कलाकारों की बढ़ी-चढ़ी कुशलता के प्रमाण मिलते हैं।
वृक्ष-वनस्पति और पशु-पक्षी जगत के साथ भारतीय कला का अद्भुत सम्बन्ध रहा है। सिन्धुवृषभ भी कला की दृष्टि से बड़े जानदार है। वैदिककालीन लकड़ी एवं धातु के खिलौने, कच्ची दीवारों को विभिन्न रीतियों से रँगना और चित्रकला से सजाना एवं यज्ञ जैसे सामुदायिक धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करने के लिए शिल्पकला, चित्रकला तथा स्थापत्यकला का प्रयोग- ये सारे कला एवं शिल्प के विषय से सम्बन्ध रखते हैं। यही पद्धति थोड़ा बहुत बदलाव के साथ आगे बढ़ती रही। चाक पर बड़ी खूबसूरती से बने भाण्डों पर फूलपत्ती और ज्यामितिक डिजाइनें कला की विशेषताएँ हैं। ई.पू. 5वीं शताब्दी से शिल्प का महत्व बढ़ने लगा। सौन्दर्य-विधान और रूप-समृद्धि की ओर इन शिल्पियों का विशेष लक्ष्य था। कला में वाय अलंकरण और सजावट की प्रवृत्ति को और भी विशेषताएँ प्राप्त हुई। एक श्रेणी या समुदाय के अन्तर्गत परिवारों के व्यक्ति इसी शिल्पगत व्यवसाय को अपनाकर उसमें दक्षता प्राप्त करते और नवीन आविष्कारों के द्वारा उस शिल्प की उन्नति और रक्षा करते थे। एक-एक श्रेणी शिल्प विशेष के लिए एक विद्यालय के रूप में परिणत हो गई जो पुश्त-दर-पुश्त नया जीवन प्राप्त करके बढ़ती चली जाती और शिल्पविशेष की अपनी साधना को भूत से भविष्य में आगे बढ़ाती चलती थी। नव-कर्मियों के लिए शिल्प सीखने और सिखाने के नियम भी इन श्रेणियों के द्वारा निश्चित कर दिए गए। अधिकांश में परिवार के अन्तर्गत पुत्र पिता से शिल्प की शिक्षा प्राप्त करता चलता था। मौर्यकाल में ईरान, यूनान और भारतीय संस्कृतियों का सम्मिलन और पारस्परिक आदान-प्रदान हुआ।
इस समय कला की मुख्य विशेषता धार्मिक एवं दार्शनिक अनुभूतियों का चिन्हों के द्वारा अंकन थी। मौर्यकालीन रजत सिक्कों पर सैकड़ों प्रकार के चिह्न आहत विधि से लगाए गए। सूर्य, षड्चक्र, चौत्य, वैजयन्ती, वृक्ष, वृषभ, द्विरद, मयूर, शशक, सरोवर आदि अनेक प्रकार की आकृतियों की रेखाएँ कला की दृष्टि से अत्यन्त सुन्दर और निपुणता की सूचक हैं। स्थापत्यकला से भी चिह्नों की यह परम्परा प्राप्त होती है। चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा काष्ठ और ईंट से निर्मित पाटलिपुत्र का राजप्रासाद कला का अतिविशिष्ट उदाहरण था।
भारतीय कला को काठ, मिट्टी, ईंट, पुआल, गोबर तथा अन्य अस्थायी सामग्रियों के दायरे से बाहर निकालने में अशोक की भूमिका महत्वपूर्ण रहीं। उसने पहली बार पत्थरों पर और विराट आकारों एवं अनुपातों में कुछ ऐसी चीजें अंकित कर दी जो बाद के कालों में भी अपना अस्तित्व बनाए रहे। पाटलिपुत्र का स्तम्भयुक्त प्रांगण अशोक के निदेशन में बनाया गया था। स्तम्भ दो प्रकार के बने थे- धार्मिक और राजनीतिक धार्मिक स्तम्भों का विकास सम्भवतः प्राचीनतम वैदिक यूपों से हुआ जिनसे यज्ञ में बलि के लिए पशु बाँधे जाते थे। फिर इनका स्थान विष्णु आदि के स्मारक स्तम्भों ने ले लिया। राजनीतिक स्तम्भ विजयस्तम्भ या कीर्तिस्तम्भ कहलाए। चट्टानों में नक्काशी प्रारम्भ हुई। अशोक द्वारा निर्मित करीब 35 फीट और उससे भी अधिक ऊँचाई के स्तम्भाभिलेख पॉलिशदार, ऊँचे सुगठित और आकाश में उन्मुक्त खड़े हैं। इनका ऊपरी भाग कुछ पतला होता गया है। इन स्तम्भों में चुनार से निकाले गए गुलाबी पत्थर पर शीशे जैसी दमक पैदा की गई। स्तम्भों का शिरोभाग शिल्पकला की पराकाष्ठा को सूचित करता है।